मध्य प्रदेश में यात्री परिवहन सेवाएं बेहाल, उत्तर प्रदेश की सफलता से सीख लेने की जरूरत

By डॉ. अजय खेमरिया | Jun 30, 2020

लोकपरिवहन सुविधा के अभाव में मध्य प्रदेश के लोग बुरी तरह से परेशान हैं। सड़कों पर यात्री वाहन नदारद हैं और नागरिकों के पास आने जाने के साधन का कोई विकल्प नहीं है। किसान बोवनी के लिए बाजार जाकर खाद, बीज, कीटनाशक लाने के लिए या तो अपने ट्रैक्टर का सहारा ले रहे हैं या बाइक का। डीजल पेट्रोल की आसमान छूती कीमतों के चलते यह नया संकट किसानों की कमरतोड़ रहा है। किसानों के अलावा गरीबों और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के सामने लोक परिवहन के आभाव ने रोजमर्रा के तमाम संकट खड़े कर दिए हैं। प्राइवेट बस ऑपरेटरों ने 22 मार्च से ही मध्य प्रदेश में बसें बन्द कर रखी हैं। ऑपरेटर लॉकडाउन अवधि का टैक्स माफ करने की मांग पर अड़े हुए हैं जो व्यवहारिक रूप से ठीक भी है।

 

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बहरहाल इस मामले को केवल कोविड संकट के सीमित दायरे में ही समझने की जरूरत नहीं है बल्कि यह अफ़सरशाही और नेताओं के गठजोड़ द्वारा जनता को दिया गया एक दर्दनाक दंश भी है। मप्र में 2005 में तबके मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने सड़क परिवहन निगम को बंद करने का एकतरफा निर्णय लिया था। दावा किया गया था कि निगम का घाटा लगातार बढ़ रहा है जबकि हकीकत यह थी कि लोक परिवहन के धंधे पर नेताओं की नजर काफी लंबे समय से थी और वे इसे सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त कराकर इस पर एकाधिकार चाहते थे। आज मप्र में लगभग हर जिले में प्रभावशाली नेता बस ऑपरेटर है। पंजाब में ऑर्बिट बस सेवा बादल परिवार चलाता है जो पूरे पंजाब में सबसे बड़ी ट्रांसपोर्ट कम्पनी है। बिहार में भी निगम बन्द कर दबंग नेताओं के लिए यह धंधा उन्मुक्त किया जा चुका है। राजस्थान में पिछली सरकार ने तो राजकीय निगम को बंद करने का निर्णय ले ही लिया था। दावा किया जाता है कि राजस्थान में निगम 2700 करोड़ के घाटे में है वहाँ 20 हजार कर्मचारियों द्वारा इसे चलाया जाता है। दिल्ली परिवहन निगम का यह घाटा 3991 करोड़ और केरल का 755 करोड़ है। कुछ समय पूर्व देश के 54 में से 46 परिवहन निगमों के प्रदर्शन पर जारी रिपोर्ट में ओडीसा, पंजाब, उत्तर प्रदेश को छोड़कर शेष सभी निगमों के घाटे को रेखांकित किया गया है। उत्तर प्रदेश का बस निगम 72 साल पुराना है और देश के आठ राज्यों के लिए यहां से बसें चलाई जाती हैं। हिमाचल, कर्नाटक के निगम भी अपने दूरवर्ती इलाकों तक सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।


एक दौर में मप्र परिवहन निगम भी फायदे का कारोबार कर नागरिकों को सस्ती और सुदूर तक सेवाएँ उपलब्ध कराता था। मप्र की कहानी असल नेताओं और अफसरों की मिलीभगत की केस स्टडी भी है जिसका अनुसरण अधिकतर राज्य कर रहे हैं या कर चुके हैं। 1990 तक मप्र में निगम को अफसर चलाते थे लेकिन बाद में सरकार ने इसमें नेताओं को मंत्री दर्जा देकर बिठाना शुरु कर दिया। 1994 में आईएएस भगीरथ प्रसाद ने 450 कर्मचारियों की भर्ती कर ली जबकि उस समय 1500 कर्मी अतिशेष यानी सरप्लस थे। इनमें से अधिकतर नेताओं, अफसरों के नजदीकी थे। 1995 से 1997 के बीच आईएएस यूके शामल ने गोवा की एक कम्पनी से 400 बसें दोगुनी से ज्यादा कीमत पर खरीदीं जबकि एसी बसें निगम की तीन सर्वसुविधायुक्त कर्मशालाओं में आसानी से निर्मित हो सकती थीं।


इस तरह के स्वेच्छाचारी निर्णयों से निगम का दिवाला निकलना सुनिश्चित हो गया। जिस समय निगम में तालाबंदी की गई तब मासिक घाटा लगभग साढ़े तीन करोड़ ही था। हालांकि इसे बंद करने की प्रक्रिया तो 1993 से ही शुरू हो गई थी लेकिन दिग्विजय सिंह कैबिनेट में यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था। 2005 में मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने इसे बगैर केंद्र सरकार की अनुमति से बंद कर दिया। जबकि 29.5 फीसदी केंद्रीय भागीदारी इन निगमों की रहती है।

 

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एक बार निगम के बन्द करने से आम आदमी किस तरह परेशान हो रहा है इसका भान इसे बंद करने वाले सुविधा सम्पन्न लोगों को कभी नहीं हो सकता है। भोपाल से 500, इंदौर से 400 और ग्वालियर, जबलपुर जैसे शहरों से लगभग 300 बसें औसतन 500 किलोमीटर तक की दूरी सफर करती थीं। सुदूर गांव देहातों को कवर करतीं इन बसों से क़स्बाई औऱ ग्रामीण लोकजीवन और आर्थिकी चला करती थी। आज ग्रामीण रूटों पर कोई बस नहीं है और केवल फायदे के राष्ट्रीय राजमार्गों पर ही बसें चल रही हैं। 2013 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने निजी ऑपरेटरों के लिए अनुदान की घोषणा की लेकिन उस पर कोई अमल नहीं हुआ। 23 जून 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सूत्र बस सेवा का उद्घाटन किया। दावा किया गया कि नगरीय निकाय इनके संचालन को पूर्ववर्ती निगम से भी बेहतर करेंगे। केंद्र सरकार की अमृत और स्मार्टसिटी योजनाओं से फंड दिलाये गए। इंटीग्रेटेड कमांड सेंटर खड़े किए गए लेकिन जिन 1600 बसों के संचालन का दावा था उनमें से आज 160 भी सड़कों पर नहीं हैं। मजबूर नागरिक निजी ऑपरेटर की मनमानी और लूट का शिकार हैं।


बेहतर होगा मप्र सहित अन्य राज्य यूपी, ओडीसा, कर्नाटक, हिमाचल के मॉडल को अपना कर अपने निगमों को पुनर्जीवित करें क्योंकि निम्नमध्यवर्गीय और गरीब आदमी के लिए आज सड़क तो है लेकिन परिवहन की सुविधा नहीं। डीजल-पेट्रोल की बढ़ती खपत को रोकने के लिए भी सार्वजनिक परिवहन समय और पर्यावरण की मांग है।


-डॉ. अजय खेमरिया


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