वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में फ्रांसीसी राष्ट्रपति चुनाव परिणाम कई दृष्टियों से अति महत्वपूर्ण व अभूतपूर्व रहे। इमैन्युएल मैक्रोन ने राइज ऑफ द राइट की की आँधी पर सवार मेरीन ला पेन को हराकर संपूर्ण दुनिया में वैश्वीकरण समर्थकों एवं उदारवादियों में खुशी की लहर ला दी। मैक्रोन की जीत के जश्न में वैश्विक बाजार में रौनक लौट आई है। दुनियाभर के बाजारों से शानदार संकेत मिले हैं। मैक्रोन एवं ली पेन की यह लड़ाई एक तरह से दक्षिणपंथ एवं मध्यमार्ग के बीच का ही संघर्ष नहीं था अपितु फ्रांस व यूरोपीय यूनीयन के भविष्य से भी संबद्ध था। इन चुनावों को यूरोपीय यूनियन के साथ संबंधों को लेकर जनमत सर्वे के रूप में देखा गया, जिसके परिणाम ने एकीकृत यूरोपीय यूनियन की ओर कदम बढ़ाए।
फ्रांस के 2017 के राष्ट्रपति चुनाव प्रारंभ से ही कई विशेषताओं से युक्त रहे, जैसे 1950 के दशक के बाद पहली बार चुनाव के प्रथम चरण में ही परंपरागत वामपंथी और उदारवादी पार्टी बाहर हो गई। फ्रांस के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय ओलांद सरकार में 2 वर्ष तक वित्त मंत्री रहे मैक्रोन ने जिस प्रकार विजयरथ की सवारी की, वह वाकई दिलचस्प है। 23 अप्रैल के प्रथम चरण के मतदान में 11 उम्मीदवार थे जिसमें मैक्रोन 24.9 प्रतिशत मतों के साथ सबसे आगे रहे। वह नेशनल फ्रंट के नेता ला पेन को मिले 21.4 प्रतिशत मतों से कुछ ही आगे रहे। फ्रांस में अगर प्रथम चरण के चुनाव में किसी उम्मीदवार को 50% से अधिक वोट नहीं मिलते हैं, तो फिर द्वितीय चरण के चुनाव में प्रथम चरण के दो सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवारों के बीच मुकाबला होता है। 7 मई को संपन्न द्वितीय चरण के चुनाव में मैक्रोन को 66.06% मत मिले, जबकि उनकी धुर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंद्वी को 33.94% वोटों से ही संतोष करना पड़ा।
इसके साथ ही इस चुनाव ने फ्रांस को अब तक का सबसे युवा राष्ट्रपति दिया। मैक्रोन केवल 39 वर्ष के हैं, राजनीति में उनका अनुभव भी काफी कम है। वे सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव लड़ सकते थे लेकिन उन्होंने समझ लिया था कि सालों से सत्ता में रही पार्टी के प्रति काफी निराशा है। फलतः मैक्रोन ने अप्रैल 2016 में जनशक्ति आधारित 'एन मार्शे' आन्दोलन की स्थापना की और चार माह बाद फ्रांस्वा ओलांद की सरकार में वित्त मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। "एन मार्शे" का शाब्दिक अर्थ है- "आगे बढ़ो" जिसे संक्षिप्तीकरण "ईएम" के रूप में जाना जाता है।
यहां से ही उनकी राष्ट्रपति पद की यात्रा शुरू होती है, लेकिन यह आसान नहीं था। यूरोप में कई राजनीतिक आन्दोलन उठे जैसे- स्पेन में पॉदेमॉस, इटली का फाइव स्टार मूवमेंट, लेकिन इनमें से कोई फ्रांस जैसा बड़ा राजनीतिक उलटफेर करने में सफल नहीं हुआ। ऐसे में फ्रांसीसी राष्ट्रपति चुनाव को अभूतपूर्व कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं है। मैक्रोन तो जैसे फ्रांस की राजनीति में भूचाल ही ले आए।
बड़ा सवाल यही है कि इतनी कम उम्र और सामने नेशनल फ्रंट की दक्षिणपंथी विचारों और जनलोकप्रिय मुद्दे उठाने वाली मेरीन ला पेन जैसी मजबूत उम्मीदवार थीं और अन्य परंपरागत राजनीतिक दल सोशलिस्ट और रिपब्लिकन के होते हुए मैक्रोन राष्ट्रपति पद का चुनाव कैसे जीत गए? लोगों ने 40 से भी कम उम्र के नेता पर विश्वास कैसे कर लिया? खासतौर पर ऐसे उम्मीदवार पर जिसे राजनीति का विशेष अनुभव नहीं है।
अर्थव्यवस्था की दुर्दशा-
हमें उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर के लिए फ्रांसीसी परिदृश्य को समझना होगा। इन दिनों संपूर्ण यूरोप आर्थिक संकट के हालात से जूझ रहा है। स्वयं फ्रांस की 82% जनता देश के आर्थिक दशा से संतुष्ट नहीं है। देश की एक तिहाई राष्ट्रीय आय सामाजिक मदों पर खर्च होती है। इस खर्च के मामले में पश्चिमी जगत का कोई दूसरा देश फ्रांस की बराबरी नहीं कर सकता।
फ्रांस में सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन भी संसार में सबसे अधिक है और 35 घंटों के साथ कार्य सप्ताह का समय सबसे कम। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रम बहुत महंगा और श्रम उत्पादकता बहुत कम है। फलतः अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में फ्रांसीसी माल आसानी से नहीं बिक पाता। यूरोबैरोमीटर नाम के एक मत सर्वेक्षण के अनुसार फ्रांस के 75% निवासी मानते हैं कि देश का विकास गलत दिशा में हो रहा है। 90% लोगों का विश्वास राजनीतिक दलों से, 79% का सरकार से, 74% का संसद पर से और 51% का न्यायप्रणाली पर से उठ गया है। इन नकारात्मक स्थिति में मरीन ला पेन भी नकारात्मकता ही दिखला रही थीं, वो अप्रवासन, यूरोपीय यूनियन और सिस्टम के खिलाफ खड़ी थीं। दूसरी ओर मैक्रोन की चुनावी रैलियों में माहौल सकारात्मक था।
फ्रांस में बेरोजगारी की समस्या ने अभी गंभीर रूप ले लिया है। बेरोजगारी दर 10% से ज्यादा है। मरीन ला पेन ने इसका समाधान संरक्षणवाद से देने का नारा दिया, जबकि मैक्रोन ने वैश्वीकरण द्वारा। स्पष्ट है फ्रांस ने मैक्रोन के फार्मूला को स्वीकार किया। शरणार्थियों को लेकर भी मरीन ला पेन का रवैया कठोर था। ला पेन सिर्फ उन्हीं को शरण देना चाह रहीं थ़ीं, जो विदेशों में फ्रांसीसी दूतावासों में शरण के लिए आवेदन दें साथ ही वह प्रवासियों की संख्या को सलाना 10 हजार तक सीमित करने का प्रयास करना चाह रही थीं। वहीं इस संदर्भ में भी मैक्रोन ने उदारवादी रवैया अपनाया। उन्होंने शरणार्थियों के लिए केवल फ्रेंच भाषा के ज्ञान पर बल दिया।
आतंकवाद इस समय फ्रांस की एक बड़ी चुनौती है, जनवरी 2015 में चार्ली हेब्दो पत्रिका के कार्यालय पर हुए आतंकी हमले के बाद से प्रथम चरण के चुनाव के दो दिन पूर्व 21 अप्रैल की चाकूबाजी की घटना तक फ्रांस में पिछले 2 वर्षों में कम से कम 17 आतंकी वारदातें हो चुकी हैं, जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए। इस मामले में भी ली-पेन ने कोई ठोस समाधान के बावजूद "इस्लामी आतंकवाद" को मुद्दा बनाकर फ्रांस के सभी मुस्लिमों को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयत्न किया तथा फ्रांस की मस्जिदों को तोड़ने जैसी अतिवादी बातें कहीं। एक तरह से ली पेन आतंकवाद से डर दिखाकर भी लोगों से मत लेने का प्रयास कर रहीं थीं, जिसे फ्रांसीसी जनता ने अस्वीकार कर दिया। फ्रांस का उदारवादी समाज है, जहाँ लोगों ने आतंकवादी और मुस्लिमों के बीच भेद को स्पष्टत: स्वीकार किया।
ली पेन ने फ्रांस के लोगों के हित में यूरोपीय यूनियन से अलग होने की वकालत की। उन्होंने तो यह भी कह दिया कि अगर वह राष्ट्रपति बनती हैं तो वह ब्रिटेन की "ब्रेक्जिट" की तर्ज पर फ्रेक्जिट कराकर यूरोप से अलग होने की प्रक्रिया शुरू करेंगी। जबकि मैक्रोन ने एकीकृत एवं मजबूत यूरोप में ही फ्रांस के भविष्य को समाहित बताया। यूरोप 2008 के मंदी से उबर नहीं पाया है, यही कारण है कि रोजगार सृजन नहीं हो पा रहा है। ऐसे में मैक्रोन वैश्वीकरण व एकीकृत यूरोप के द्वारा अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर रोजगार सृजन करना चाहते हैं। मैक्रोन ने स्वयं को न तो दक्षिणपंथी और न ही उदारपंथी माना, अपितु उनके अनुसार उनकी नीतियां आवश्यकतानुसार बनेंगी, जिसे जनता ने भी स्वीकार किया।
भारत पर प्रभाव-
मैक्रोन के वैश्वीकरण एवं एकीकृत यूरोप की अवधारणा से भारत के हित भी जुड़े हैं। कमजोर यूरोप एवं संरक्षणवादी फ्रांस भारतीय हितों के अनुरूप नहीं था। ब्रिटेन के बाद फ्रांस भी यदि यूरोपीय यूनियन से बाहर निकल जाता तो यूरोपीय यूनियन को गंभीर धक्का लगता, जो एकीकृत मजबूत यूरोप के लिए खतरनाक होता। यूरोपीय यूनियन भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है और भारत के कुल निर्यात में उसका हिस्सा 24% से भी अधिक है। यूरोपीय यूनियन भारत के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का एक सबसे बड़ा स्रोत है। यूरोपीय यूनियन से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के अतिमहत्वपूर्ण स्रोतों में जर्मनी, नीदरलैंड, फ्रांस, इटली और बेल्जियम आते हैं।
उल्लेखनीय है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में फ्रांस की चमक पहले से ही कायम है, लेकिन अब भारत की चमक भी बढ़ रही है। भारत-यूरोपीय यूनियन के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग संबंधी संरचना करार ने दोनों पक्षों के आर्थिक प्रतियोगियों एवं अन्वेषकों का ध्यान आकर्षित करने में वृद्धि की है।
सामरिक और आर्थिक समेत अनेक दूसरे अन्य क्षेत्रों में भी दोनों देशों की जुगलबंदी एक नये मुकाम के लक्ष्य की ओर अग्रसर है। फ्रांस उन देशों में से एक है, जिसने कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी भारत का साथ दिया है, फिर चाहे वह कूटनीति के "ग्रेट गेम" हों या सूचना प्रौद्योगिकी। इसका सीधा सा अर्थ है कि पेरिस की "स्ट्रैटजिक कैलकुलस" में नई दिल्ली विशेष अहमियत रखती है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पेरिस यात्रा से राष्ट्रपति ओलांद के भारत के वर्ष 2016 के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि बनने के सरकार के निहितार्थों को खोजना और समझना आवश्यक होगा, जो न केवल इन देशों को आर्थिक और रणनीतिक संबंधों के लिए खास महत्व रखते हैं, बल्कि वैश्विक कूटनीति के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था में आने वाले उतार-चढ़ाव के लिहाज से भी उपयोगी हो सकते हैं।
वैसे पेरिस की जिंदादिली और चुनौतियों से निबटने के सहज व निर्णायक प्रयासों व प्रतिबद्धताओं से हम काफी कुछ सीख सकते हैं। बता दें वर्ष 1998 में जब भारत के परमाणु परीक्षण के बाद ज्यादातर विकसित देशों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस तनाव पूर्ण वैश्विक माहौल में भी फ्रांस ने भारत के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को और भी ज्यादा मजबूती प्रदान की थी। 2008 में परमाणु सप्लायर ग्रुप (एन एस जी) द्वारा भारत को असैन्य परमाणु व्यापार करने की छूट देने के बाद फ्रांस वह पहला देश था, जिसने भारत के साथ असैन्य परमाणु हथियार समझौते पर हस्ताक्षर किए। भारतीय प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने फ्रांस का राष्ट्रपति चुने जाने पर इमैनुएल मैक्रोन को बधाई दी और कहा कि वह द्विपक्षीय संबंधों को अधिक सुदृढ़ बनाने की खातिर उनके साथ काम करने को लेकर आशान्वित हैं। यद्यपि फ्रांस भारत का पुराना साथी रहा है, पर अब नये हालत में भारत के प्रति उसका रवैया क्या रहता है, यह भविष्य में ही स्पष्ट हो सकेगा।
मैक्रोन की चुनौतियां
मैक्रोन की जीत के बाद मैक्रोन के सामने कई चुनौतियाँ हैं। मैक्रोन की पार्टी एन मार्शे के पास संसद में कोई सीट नहीं है। ऐसे में मैक्रोन के सामने संसदीय चुनाव बड़ी चुनौती है। 11 और 18 जून को फ्रांस में होने वाले संसदीय चुनाव के लिए पार्टी को जल्द उम्मीदवार तय करने होंगे। मैक्रोन को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए गठबंधन का सहारा लेना पड़ सकता है। मैक्रोन को हिचकिचाहट के साथ ही सही सोशलिस्ट और रिपब्लिकन पार्टी से समर्थन मिला है, लेकिन वो मोटे तौर पर मरीन ला पेन को हराने के मकसद से दिया गया था। अब यक्ष प्रश्न यह उठता है कि क्या संसदीय चुनावों में पुन: यह समर्थन मिल पाएगा?
मैक्रोन के राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद आए ओपिनियन पोल के मुताबिक वो और उनकी सहयोगी पार्टी मोडेम संसदीय चुनाव के पहले राउन्ड में 11 जून को सबसे ऊपर रहेंगी जिसमें 24-26% वोट इनके खाते में जाएँगे। रिपब्लिकन और नेशनल फ्रंट, दोनों को 22-22% वोट और धुर वामपंथी फ्रांस अनबाउंड को 13-15% और फ्रांस्वा ओलांद की अलोकप्रियता से जूझ रही सोशलिस्ट पार्टी के खाते में 9% वोट जाते दिखाए गये हैं।
मरीन ला पेन की नेशनल फ्रंट के पास संसद में 2 सीटें हैं और राष्ट्रपति चुनाव में हार के बाद एक ओपिनियन पोल के अनुसार उनकी पार्टी को 577 सीटों वाली संसद में 15-25 सीटें ही मिलेंगी। इस अनिश्चितता का मतलब है कि मैक्रोन को अन्य पार्टियों को अपने मेनिफेस्टो से सहमत कराने के लिए बड़ी सौदेबाजी करनी पड़ सकती है। दूसरे शब्दों में मैक्रोन को अपनी राजनीति से असहमत लोगों को अपनी तरफ करना होगा। अपने पहले संबोधन में मैक्रोन ने वादा किया कि वो देश में मौजूद भेदभाव वाली शक्तियों से लड़ेंगे ताकि यूरोपीय संघ और उनके देशवासियों के बीच संपर्क को पुनर्स्थापित किया जा सके। वो विचारों के आधार पर बंटे हुए देश को जोड़ेंगे और चरमपंथ और जलवायु परिवर्तनों के खतरों का मुकाबला करेंगे। पूर्व राष्ट्रपति ओलांद ने मैक्रोन को बधाई देते हुए कहा कि चुनाव परिणामों ने दर्शाया है कि फ्रांस के लोग "गणतंत्र के मूल्यों" के लिए एकजुट होना चाह रहे हैं।
इस चुनाव में धुर दक्षिणपंथ को जनता ने अस्वीकार किया है। हाल ही में नीदरलैंड और ऑस्ट्रिया में भी चुनाव हुए, वहाँ भी धुर दक्षिणपंथ को जनता ने अस्वीकार किया है। जर्मनी में भी इस वर्ष चुनाव होने वाले हैं, वहाँ भी फ्रांस का प्रभाव पड़ सकता है। फ्रांस और जर्मनी दशकों से ईयू के इंजन रहे हैं। मैक्रोन के जीतने से जर्मनी के लिए परिस्थितियां अनुकूल हो गई हैं, क्योंकि अब जर्मनी एवं फ्रांस दोनों मिलकर एकीकृत यूरोपीय यूनीयन के प्रतिबद्धता में वृद्धि कर सकते हैं। इस तरह बदलाव के मुहाने पर खड़े फ्रांस के चुनाव ने न केवल कठोर राजनीतिक विचार से संघर्ष किया है, अपितु फ्रांसीसी क्रांति के मूल्य "स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व" के मूल्यों को वैश्वीकरण एवं एकीकृत यूरोप से संबद्ध किया है।
- राहुल लाल