जन्माष्टमी पर कान्हा और उनकी माखन लीला बड़ी याद आती है। यूँ तो कृष्ण भगवान का तो पूरा जीवन ही लीलामय है,लेकिन मुझे हमेशा सबसे ज्यादा आकर्षित किया है तो उनकी माखन लीला ने। ''मुख माखन लिपटा दिखे, कान्हा पकड़े कान। बाल रूप में सज रहे, कैसे श्री भगवान।'' यूं तो बचपन में माताजी हमें भी कान्हा बना के ही रखती थीं। सुबह सुबह ही यसुदा मैया की तरह माथे पर चौड़ा सा कला टीका लगा देती थी। हम दिन भर मोहल्ले की गलियन की धुल फांकते शाम को घर पहुँचते तो माताजी को अपना लगाया काला टीका कहीं नजर नहीं आता था। नख से शिख तक कृष्ण वर्ण के बन कर माताजी के सामने उपस्थित होते थे! गाय चराने तो नहीं जाते थे, हां दिन भर रेंदा, पेंदा धनसुख मनसुख की टोलियां हमारी भी थी जो गली के कुत्तों को चराते डोलते थे। मक्खन हमें भी मिलता था, कृष्ण लीलाओं में जिस मक्खन का वर्णन है उसका कुछ मिलता जुलता रूप जिसे हम लोनी घी बोलते थे। सुबह सुबह ही मां दही बिलोते वक्त, दही मंथन से निकले लोनी घी का बड़ा सा लोंदा हमारी रोटी पर रख देती थीं। ये ही था हमारा रईसी ब्रेकफास्ट। उस समय पता नहीं था कि मक्खन इसी को कहते हैं। हमें यकीन था कि कान्हा की माखन रेसिपी में जरूर कोई देवत्व फार्मूला छिपा होगा जो हमारी पकड़ में नहीं आया। खैर हमने तो ये झूठ भी नहीं बोलना पड़ा कि मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।
कृष्ण को तो माखन पसंद था, और माखन की चोरे भी कर लेते थे, लेकिन आजकल तो लोकतान्त्रिक व्यबस्था कुछ ऐसी सुलभ कर दी है की बस आपको माखन खाने की इच्छा होनी चाहिए, खिलाने वाले तत्पर हैं। बस औकात, वक्त के तकाजे के हिसाब से ही खाने को मिलेगा। लोकतंत्र में दोनों की ही व्यबस्था है, खाने वाले सरकारी महकमे, कोर्ट, कचहरी, दफ्तर, संसद, विधायिका में बैठे है, खिलाने वाली तो आम जनता है ही। माखन खाने वाले लोकतंत्र को चूना लगा रहे हैं, लेकिन आपके माखन का हक़ अदा कर रहे है। नमक कोई नहीं खा रहा, नमक पिद्दी सा उसका क्या खाना, खायेंगे छंटाक भर, खिलने वाला गायेगा मन भर। नहीं भाई नहीं, नमक खाकर नमक की नहीं बजायी तो हमें नमक हलाल कहते फिरेंगे। नमक का हक़ अदा नहीं होता, इसलिए अब मक्खन खायेंगे! माखन खायेंगे तो मामाखन जैसे चिकने नजर आयेंगे। कान्हा तो माखन चुराते थे, और साफ़ झूठ बोल जाते थे, 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।' झूठ बोलने की जरूरत ही नहीं, खिलाने वाला भी धरा जायेगा, बोलता फिरेगा ''कसम से दरोगा जी,मैंने नहीं माखन खिलायो''।
और जब खाना ही है तो ढंग का खाओ यार, कम से कम कभी पकडे भी जाएँ तो कुछ खबर तो बने "यार खाओ तो इस साहब जैसा, क्या खाता है यार, हजार लाख करोड़ों से कम का खाता ही नहीं"। वैसे जरूरी नहीं है की हर किसी को माखन खाया पच जाए, खाते ही बदहजमी होने लगती है, पेट फूलने लगता है, समाज में चलना भारी हो जाता है। बदबू दार गैस निकलने लगती है तो पूरा गली मोहल्ला परेशान हो जाता है। कइयों ने माखन खाने की जगह मक्खन लगवाना चालू करवा दिया, माखन की सुगंध से ही खुश है, 'हरद लगे न फिटकरी रँग आये चोखो।'
माखन खाने वाले कभी कहते ही नहीं कि उन्होंने माखन खाया। अब कोयला खाएं तो मुँह पर कालिख लग जाए पहचान जाए, कोयले की दलाली में हाथ काले हो जाएँ। माखन खाओ तो कम से कम ये रिस्क तो नहीं है, हाथ बल्कि पाक दामन साफ़ नजर आते है। माखन खाएं तो पता भी नहीं लगे। मुँह पर लगे तो उसे क्रीम समझकर पोत लें, चेहरा और चमक जाए। वाह माखन तेरी लीला "खाने के काम भी और लगाने के काम की।"
माखन खाने और खिलाने का काम अनवरत चल रहा है, लोकतंत्र के चारों स्तम्भ की नींव में माखन खूब डाला जा रहा है, इसी से लोकतंत्र के चारों स्तंभ मजबूत बने हुए हैं। कुछ के पास माखन है, लेकिन वो चाहते हैं की सारा माखन वो खुद ही खाएं, तो उन्होंने माखन लगाने का काम पकड़ लिया। कभी कभार लगाने के लिए उधारी का भी माखन ले लेते हैं। माखन लगाना माखन खिलाने से भी ज्यादा कारगर साबित हो रहा है। मेरे पड़ोसी हैं माखन लाल जी हैं, माखन उनकी रग रग में बसा है। जब भी बात करते हैं, माखन की ही करते हैं। लगाने के लिए या किसी को कोसना हो, गालियां देनी हो, प्रशंसा करनी हो, सब में माखन घुसा देते हैं। एक दिन फोन पर अपने बॉस की बीवी की बडी प्रशंसा कर रहे थे, क्या भावी जी आपने गाल भी ऐसे पाए हैं बिलकुल माखन के माफिक, वो हम नई भैंसिया लाए हैं, तो माखन निकाले हैं, बिलकुल माखन जैसा माखन, आप कहो तो आपके घर भिजवा दूँ। वो क्या है, साहब को देखता हूँ, बड़े दुबले पतले हो गए हैं, चेहरे से कांति गायब हो गयी है, आप इन्हें ये माखन के लड्डू खिलाओ, देखना भावी जी दो दिन में रौनक आ जाएगी।” हमारे माखन लाल जी का प्रमोशन. इन्क्रेमेंट, टीएडीए, सब इसी माखन लीला से माखन की भांति स्मूथ दौड़ता है।
बैंक वालों के माखन लगाकर लोन कबाड़ लिए। थोड़ा बहुत खिलाया भी होगा। उधारी का माखन भी 'मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन' की तरह ही होता है। अपने पुश्तैनी घर की मरम्मत करवा ली। फर्श में टायल लगवाई तो बिलकुल माखन के माफिक चिकनी। मेरे से कहने लगे 'देखो आओ ना एक बार हमारे घर माखनखाने में, माखन खाने! नहीं मेरा मतलब चाय पीने, आपको नया फर्श दिखाएँगे, बिल्कुल माखन माफिक चमकता है।”
मैंने कहा "रहने दो माखन लाल जी, माखन पर हमारे पैर थोड़ा जल्दी फिसल जाते हैं।” भाई मुझे मालूम है इस उम्र में फिसलना सही नहीं, कूल्हे की हड्डी टूट जाएगी, अब कहाँ दूसरों से हड्डी जुड़वाता फिरूंगा।
पता नहीं क्यूँ मुझे तो वो बचपन का लोनी घी ही अच्छा लगता है। आजकल का माखन, न बाबा न, कोई भरोसा नहीं। कितना मिलावटी है। लोनी घी तो इतना चमकता नहीं था जितना आजकल का माखन चमकता है। मिलावटी चीजें ज्यादा चमकती है। टीवी ऐड में देखता हूँ माखन मिश्री खाते भगवान कृष्ण के साथ अगरबत्ती, मोमबत्ती, घी, दीपक, पूजा थाली का ऐड। ऐड वाले भी जानते हैं जिसको सर्व किया जाए, उसी को ब्रांड एंबेसडर बना कर माल बेचेंगे तो ज्यादा बिकेगा। ये आज कल की सेलेब्रिटीया ऐड के नाम पर माखन नहीं लगा कर चूना लगा रहे हैं। सांडे का तेल, जैतून का तेल, साबुन की देसी टिकिया, गाय छाप काला दंत मंजन बेचने वाला हीरो महंगी विदेशी कंपनियों का तेल साबुन इस्तेमाल कर रहा है। ये तो गलत है। चूना लगाना अच्छा काम नहीं है। जब माखन लगाने से काम चल सकता है तो वो ही लगाइए न। मेरे धंधे पर ही लोग उंगली उठाते हैं। आप चूना लगाना बंद करिए, माखन लगाइए। मैं भी प्लास्टर बैंडेज बनाने वाली कंपनियों से कहूंगा कि भाई चूने की जगह माखन की पट्टियाँ बनवाई जाएं। लोग चूना लगवाना मजबूरी समझते हैं। फीस के साथ कुछ लानत भी परोस कर जाते हैं। माखन होगा तो वो खुश होंगे, शायद फीस भी डबल दे जाएं।
हमारे ये माखन लाल जी, इनकी भी एक बार हड्डी टूट गई। इन्होने मुझे कोसा "यार आप पड़ोसी हैं मेरे, फिर भी मेरी हड्डी टूट गयी, जरूर कोई टोन टोटका किया होगा तुमने"। मैंने इनके माखन प्रेम को देखते ही एक मुफ्त की सलाह दे दी थी, "आप माखन खूब खाएं हड्डी जल्दी जुड़ेगी।"
उल्टा मेरे पे चढ़ गए, "अरे डॉक्टर साहब आपको पता नहीं माखन खाने से हड्डी के एंड चिकने हो जाएंगे, आपस में फिसलेंगे, सेट ही नहीं होंगे।” उस दिन मुझे मेरे अस्थिभंग ज्ञान के तुच्छपन पर बहुत गिलानी महसूस हुई।
– डॉ मुकेश ‘असीमित’