By सुखी भारती | May 30, 2024
भगवान श्रीराम जी भी कितने दयालु हैं। उन्हें श्रीसती जी के बारे में सब कुछ ज्ञात है। लेकिन तब भी उन्होंने एक बार भी उन्होंने क्रोध नहीं किया, और न ही श्रीसती जी को कोई श्राप दिया। श्रीराम जी बस इतना ही कहते हैं, कि आप बिना बृषकेतु के इस भयानक वन में क्या कर रही हैं?
इस समय श्रीसती जी शंका की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी। जबकि उनके स्वामी भगवान शंकर जी, साक्षात विश्वास की प्रत्यक्ष मिसाल हैं। बिना विश्वास का धन लिये, भगवान की ओर जाने से क्या ही प्राप्त होने वाला है। जिस प्रकार से श्रीसती जी शंका लेकर वन में सिवा भटकने के और कुछ भी प्राप्त नहीं कर पा रही, ठीक ऐसे ही, जो साधक शंकालु विचारों के वन में उलझ जाता है, वह श्रीसती जी भाँति ही दुख पाता है।
देखा जाये, तो श्रीसती जी दो भगवानों के मध्य ही अपना मार्ग तैय कर रही हैं। जैसे वे पहले, भगवान शंकर से श्रीराम जी ओर बढ़ी, और अब श्रीराम जी की दिशा से भगवान शंकर जी और बढ़ रही हैं। लेकिन आश्चर्य, वे इतनी सुंदर डगर पर चलकर भी शाँत न होकर, भयंकर अशाँति के भँवर में उलझ चुकी हैं। कहने का तात्पर्य, कि अगर आपकी यात्रा भगवान से आरम्भ होकर, भगवान की ही ओर हो, तो भी आपको यह आश्वासन नहीं होना चाहिए, कि आप शाँत अवस्था को प्राप्त होंगे। जिसका कारण मात्र एक है, और वह है, हृदय का संदेह से पटा होना। जैसे किसी पात्र में खट्टा डालकर, उसमें रखे दूध को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता, ठीक वैसे ही मन में संदेह पालकर, प्रभु की भक्ति को फलीभूत नहीं किया जा सकता। श्रीसती जी से बस यही गलती हो रही थी।
जैसे ही उन्होंने जाना, कि श्रीराम जी ने मुझे पहचान लिया है, तो वे उनसे सामना ही नहीं कर पाई। वे उसी क्षण दिशा की ओर बढ़ी, जहाँ भगवान शंकर जी थे। लेकिन उनके मन में अथाह ग्लानि है, कि मैंने भगवान शंकर जी की बातों पर विश्वास नहीं किया। अब मैं उन्हें भी कैसे अपना मुख दिखाऊँगी? मैं तो सब कुछ खोकर बैठी हुँ। अब उनके मन में मेरे प्रति गाँठ बन जायेगी। मैंने निश्चित ही भोलेनाथ को गहरी चोट पहुँचाई है। पता नहीं क्यों मैं इतनी जिद्दी हो बैठी, कि भोलेनाथ के वचनों पर भी विश्वास नहीं किया।
उधर श्रीराम जी ने जब देखा, कि श्रीसती जी अतियंत मानसिक कष्ट का सामना करते हुए जा रही हैं, तो उन्होंने सोचा, कि क्यों न मैं दैवीय स्वरुप की एक झलक श्रीसती जी को दिखलाता चलुँ-
‘जाना राम सतीं दुखु पावा।
निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा।।
सतीं दीख कौतुकु मग जाता।
आगें रामु सहित श्री भ्राता।’
श्रीराम जी ने अपना प्रभाव दिखाते हुये, जगत जननी श्रीसीता एवं श्रीलक्षमण सहित अपना रुप प्रगट कर दिया। श्रीसती जी ने देखा, कि जिन श्रीराम जी को मैं पत्नी वियोग में रोते बिलखते देख रही थी, वे तो मेरे समक्ष ही श्रीसीता जी सहित मुझे दर्शन दे रहे हैं। श्रीसती जी ने पीछे मुडकर देखा, तो पीछे भी श्रीराम जी, अपने पत्नी श्रीसीताजी एवं अपने छोटे भाई लक्षमण जी सहित, चारों ओर बिराजमान हैं।
इतना ही नहीं। श्रीसती जी क्या देखती हैं, कि अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णु जी, जो कि एक से एक असीम प्रभाव वाले थे, अनेकों देवता, जो कि भाँति-भाँति वेष वाले थे, वे सभी श्रीराम जी की चरण वंदना व सेवा कर रहे हैं। श्रीसती जी ने वहाँ अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी व लक्ष्मी जी भी देखी। जिस-जिस रुप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुरुप उनकी शक्तियाँ भी थी। उन्होंने देखा, कि अनेकों वेष धारण करके देवता, प्रभु श्रीराम जी की पूजा कर रहे हैं। देवता भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु श्रीरामचन्द्र जी का दूसरा रुप कहीं नहीं देखा। श्रीसीताजी सहित, श्रीरघुनाथजी बहुत से देखें, लेकिन उनके वेष अनेक नहीं थे। सब जगह वही श्रीरघुनाथजी, वही श्रीलक्ष्मण जी एवं श्रीसीता जी हैं, जिन्हें देखकर, श्रीसती जी बहुत ही डर गई। उनका हृदय काँपने लगा, और देह की सारी सुध बुध जाती रही। आखिर वे वही आँखें मूँदकर बैठ गई।
आगे श्रीसती के मन की उलझन सुलझ पाई अथवा और उलझ गई, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती