सत्य ही शिव हैं और शिव ही सुंदर है। भगवान शिव की महिमा अपरंपार है। भोलेनाथ को प्रसन्न करने का ही महापर्व है महाशिवरात्रि। इस दिन भक्त जप, तप और व्रत रखते हैं और भगवान के शिवलिंग रूप के दर्शन करते हैं। शिवलिंग शिव एवं सृष्टि का प्रतीक है। शिव का अर्थ है कल्याणकारी और लिंग का अर्थ है सृजन। सर्जनहार के रूप में लिंग की पूजा होती है। मान्यताओं के अनुसार, लिंग एक विशाल लौकिक अंडाशय है, जिसका अर्थ है ब्रह्माण्ड। इसे ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है।
महाशिवरात्रि पर देश के हर हिस्सों में शिवालयों में बेलपत्र, धतूरा, दूध, दही, शर्करा आदि से शिवजी का अभिषेक किया जाता है। देश एवं दुनिया में यह पर्व एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस दिन देवों के देव महादेव का विवाह पावर्ती से हुआ था। भगवान शिव को देवादि देव, महादेव, शंकर, विश्वनाथ, नीलकंठ, भोलेनाथ, शिव-शम्भू, महेश, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय, त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर और भोले भंडारी जैसे अनेकों नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि तन-मन और पूर्ण श्रद्धा से जो कोई भी भोले भंडारी की आराधना करता है उसे मनवांछित फल मिलता है। वे अपने भक्तों के दुख और परेशानियों को देख नहीं पाते। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि महाशिवरात्रि का व्रत करने वाले साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह जगत में रहते हुए मनुष्य का कल्याण करने वाला व्रत है। इससे साधक, श्रद्धालु एवं व्रती के सभी दुखों, पीड़ाओं का अंत तो होता ही है साथ ही मनोकामनाएं भी पूर्ण होती है। शिव की साधना से धन-धान्य, सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव सारे कष्टों एवं संकटों को हरने वाले हैं। समुद्र मंथन से 14 प्रकार के तत्व निकले। उसमें एक कालकूट विष भी निकला, उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा। इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्रार्थना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया। इस प्रकार इनका नाम नीलकंठ पड़ा। भगवान शिवशंकर करोड़ों सूर्य के समान दीप्तिमान हैं। जिनके ललाट पर चन्द्रमा शोभायमान है। नीले कण्ठ वाले, अभीष्ट वस्तुओं को देने वाले हैं। तीन नेत्रों वाले यह शिव, काल के भी काल महाकाल हैं। कमल के समान सुन्दर नयनों वाले अक्षमाला और त्रिशूल धारण करने वाले अक्षर-पुरुष हैं। यदि क्रोधित हो जाएं तो त्रिलोक को भस्म करने के शक्ति रखते हैं और यदि किसी पर दया कर दें तो त्रिलोक का स्वामी भी बना सकते हैं। यह भयावह भव सागर पार कराने वाले समर्थ प्रभु हैं। भोलेनाथ बहुत ही सरल स्वभाव, सर्वव्यापी और भक्तों से शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले देव हैं। उनके सामने मानव क्या दानव भी वरदान मांगने आये तो उसे भी मुंह मांगा वरदान देने में वे पीछे नहीं हटते हैं।
भगवान शिव के प्रति जन-जन की भक्ति और निष्ठा, उनका समर्पण और उनकी स्तुति अनायास नहीं है, बल्कि भक्तों ने शिव की भक्ति में वह सब कुछ पाया है, जो उन्होंने चाहा है। यह उस अनादिअनंत, शांतस्वरूप पुरुषोत्तम शिव की भक्ति और वंदना का ही परिणाम है कि व्यक्ति अपनी परेशानियों, असाध्य बीमारियों से उभरकर स्वस्थ बन जाता है, अपने भौतिक जीवन में हर कामनाओं को पूर्ण होते हुए देखता है। वस्तुतः अपने विरोधियों एवं शत्रुओं को मित्रवत बना लेना ही सच्ची शिवभक्ति है। जिन्हें समाज तिरस्कृत करता है उन्हें शिव गले लगाते हैं। तभी तो भक्त भगवान शिव की शरण आकर निश्चिंत हो जाता है, तभी तो अछूत सर्प उनके गले का हार है। अधम रूपी भूत-पिशाच शिव के साथी एवं गण हैं। शिव सच्चे पतित पावन हैं। उनके इसी स्वभाव के कारण देवताओं के अलावा दानव भी शिव का आदर करते हैं और भक्ति करते हैं। समाज जिनकी उपेक्षा करता है, शंकर उन्हें आमंत्रित करते हैं। ऐसे पालक रुद्रदेव की शरण में भक्त स्वयं को निश्चिंत, सुखी, समृद्ध महसूस करता है। वे संपूर्ण जगत का पालन करते हुए अभिमानयुक्त नहीं हैं, निराभिमानी हैं, वे हमें श्रेष्ठ मार्ग को दिखाने के लिए हमारी तामसीवृत्ति को मिटाते हैं, हमारी बुराइयों को दूर करते हैं।
शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं। शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं। चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है। शिव की तीन आंखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम (तीन गुणों), भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों), स्वर्ग, मृत्यु, पाताल (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं। शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है वहीं शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रूप है। शिव के गले में मुंडमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है। शिव ने शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है। शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है। शिव का वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।
भगवान शिव जटारूपी वन से निकलती हुई गंगाजी की गिरती हुई धाराओं से पवित्र किए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर, डमरू के डम-डम शब्दों से मंडित प्रचंड तांडव नृत्य कर इस संसार की आसुरी शक्तियों को ललकारते हैं, वे शिव हम सबका कल्याण करते और हमारी जीवन सृष्टि को उन्नत एवं खुशहाल बनाते हैं। भगवान शिव इस संसार के पालनहार हैं, उनके एक हाथ में वर, दूसरे हाथ में अभय, तीसरे हाथ में अमृत कलश और चैथे हाथ में त्रिशुल है। आपकी कृपा चाहने वाले कोई भक्त आपके ‘वर’ के पात्र बनें, कोई भक्त ‘अभय’ के पात्र बनें और कोई हाथ में स्थित घनीभूत ‘अमृत’ के पात्र बनें और ऐसी पात्रता हर शिव भक्त में उमड़े और शिव भक्ति का एक प्रवाह संपूर्ण संसार में प्रवहमान बने, यही इस संसार और सृष्टि का उन्नयन और उत्थान कर सकती है।
भारतीय संस्कृति की भांति शिव परिवार में भी समन्वयकारी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। वहां जन्मजात विरोधी स्वभाव के प्राणी भी शिव के प्रताप से परस्पर प्रेमपूर्वक निवास करते हैं। शंकर का वाहन बैल है तो पार्वती का वाहन सिंह, गणेश का वाहन चूहा है तो शिव के गले का हार सर्प एवं कार्तिकेय का वाहन मयूर है। ये सभी परस्पर वैरभाव को छोड़ कर सौहार्द एवं सद्भाव से रहते हैं। शिव परिवार का यह आदर्श रूप प्रत्येक परिवार एवं समाज के लिये प्रेरक है। भगवान शिव जन-जन की रक्षा करते हैं, भक्तों की रक्षा करते हैं। वे देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहारकर्ता, सर्वव्यापक, कल्याणरूप, चंद्रमा के समान शुभ्रवर्ण हैं, जिनकी गोद में पार्वती, मस्तक पर गंगा, ललाट पर बाल चंद्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्ष स्थल पर सर्पराज शोभित हैं, वे भस्म से विभूषित हैं। जो जगत का भरण करते हैं पर स्वयं भिक्षु हैं, जो सब प्राणियों को निवास देते हैं परंतु स्वयं गृहहीन हैं, जो विश्व को ढकते हैं परंतु स्वयं नग्न हैं। वाणियों के उत्पत्ति स्थान होते हुए भी अज्ञानी भक्तों की वाणियों (स्तुतियों) को सुन लेते हैं। विनीतों, भक्तों के आग्रह से आप क्या-क्या नहीं करते।
- ललित गर्ग