Gyan Ganga: भगवान ने गीता में कहा है- जिंदगी में प्रत्येक संघर्ष का स्वागत करना चाहिए

By आरएन तिवारी | Mar 12, 2021

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि सच्चा साधक संसार के सभी प्रपंचों को छोड़कर श्रद्धा पूर्वक भगवान के चरण कमलों में अपना चित्त लगाता है।


श्री भगवान उवाच 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ 


भगवान कहते हैं- हे परम तपस्वी अर्जुन ! धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे नहीं प्राप्त कर पाते और परिणाम स्वरूप जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़कर इस संसार में आते-जाते रहते हैं। इसलिए हमें अपने धर्म-कर्म और भगवान में श्रद्धा रखनी चाहिए। भगवान ने कृपा करके परमात्मा को प्राप्त करने के लिए यह मनुष्य तन दिया है। ऐसे मोक्ष के सुअवसर को पाकर भी हम जन्म-मरण की परंपरा में चले जाते हैं। यह देखकर मानो, प्रभु पश्चाताप करते हुए सोचते हैं, मैंने इसको मनुष्य तन क्यों दिया?  

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भजन:- 

मैंने मानुष जीवन तुमको हीरा दिया, जो तू व्यर्थ गँवाएँ तो मैं क्या करूँ । 

मुक्ति का मार्ग सब कुछ बता ही दिया तेरे दिल में ना उतरे तो मैं क्या करूँ।। 

दीन-दुखियों के मन को सताने लगा रात-दिन पाप में मन लगाने लगा। 

तूने जैसा किया वैसा पाने लगा आज आँसू बहाए तो मैं क्या करूँ।।

नाम मेरा तेरे पाप को काट दे तू बुरा कर्म करने से मन डांट ले।

आ जा मेरी शरण में बुलाऊँ तुझे गर शरण में ना आए तो मैं क्या करूँ।।


यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ 


भगवान कहते हैं- जिस प्रकार सभी जगह बहने वाली महान वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं। जिस प्रकार हवा आसमान को छोड़कर कहीं रह नहीं सकती प्रकार तीनों लोकों और चौदह भुवन में घूमने वाले जड़-चेतन सभी प्राणी मुझमें ही रहते हैं। फिर देर किस बात की, इस संसार में रहते हुए तुम मेरे हो जाओ। 


अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ 


मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान साधारण शरीर (जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) वाला समझते हैं इसलिये वे सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञानी मनुष्य भगवान के अलौकिक प्रभाव को नहीं समझ पाते, वे भगवान को भी अपनी ही तरह लौकिक और साधारण समझने की बड़ी भारी भूल करते हैं। 


महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥ 


हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो भक्त सांसारिक मोह माया को छोड़कर दैवीय स्वभाव को धारण करके मेरी शरण ग्रहण करते हैं, और मुझको सभी जीवात्माओं का उद्‍गम जानकर अनन्य-भाव से मुझ अविनाशी का भजन करते हैं, वे मेरे हो जाते हैं।

  

भगवान का भजन किसी तरह से किया जाए, उससे लाभ ही होता है। किन्तु भगवान के साथ अनन्य होकर, “हम हैं रामजी के, रामजी हमारे” ऐसा नाता जोड़कर थोड़ा भी भजन किया जाए तो उससे बहुत लाभ होता है।  


अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌॥ 


जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मानकर अनन्य-भाव से मेरा ही चिंतन करते हुए मेरी उपासना करता है, जो सदैव निरन्तर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताएं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ। 

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अनन्य भक्त वे हैं, जिनकी नजर में भगवान के सिवाय और कोई नहीं हो। 


मीरा की तरह अनन्य भक्ति होनी चाहिए।  

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई

जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई। 

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।। 

 

आपने गौर किया होगा ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्‌’ यह भारतीय जीवन बीमा L. I. C.  का प्रतीक चिह्न (Logo) है। इसका अर्थ है— अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करा देना “योग” है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना “क्षेम” है। भगवान कहते हैं कि अपने अनन्य भक्तों का योग और क्षेम मैं स्वयं ही वहन करता हूँ।    


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥


भगवान कहते हैं— हे अर्जुन ! जो मनुष्य एक पत्ता, एक फ़ूल, एक फल, थोड़ा-सा जल और कुछ भी निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित करता है, उस शुद्ध-भक्त का निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित किया हुआ सभी कुछ मैं स्वीकार करता हूँ। 


जैसे द्रौपदी से पत्ता लेकर भगवान श्री कृष्ण ने खा लिया और पूरे त्रिलोक को तृप्त कर दिया। गजेंद्र ने सरोवर का एक पुष्प लेकर भगवान को अर्पण किया तो भगवान ने गजेंद्र का उद्धार कर दिया। शबरी के दिए हुए फल खाकर भगवान इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भी जाते, शबरी के फलों की प्रशंसा करते रहे। 


रंति देव ने भगवान को जल पिलाया तो उनको भगवान के साक्षात् दर्शन हो गए। प्रेम की अधिकता में भक्त को इसका ख्याल ही नहीं रहता कि मैं क्या दे रहा हूँ, तो भगवान को भी यह ख्याल नहीं रहता कि मैं क्या खा रहा हूँ। विदुर जी की पत्नी ने प्रेम के आवेश में भगवान को केले के छिलके देती हैं, भगवान उन छिलकों को बड़े प्रेम से पाने लगते हैं। देखिए ! जब भक्त में भगवान को खिलाने का भाव आता है, तो भगवान को भी भूख लग जाती है।  

 

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥ 


हे कुन्तीपुत्र ! तू जो भी कर्म करता है, जो भी खाता है, जो भी हवन करता है, जो भी दान देता है और जो भी तपस्या करता है, उन सभी को मुझमें समर्पित करते हुए करो। परमात्मा की वस्तु को आदरपूर्वक परमात्मा को देना ही “अर्पण'' कहलाता है। इसीलिए हमारे संत-भक्त आरती गाते हैं–


तन-मन-धन सब तेरा, सब कुछ है तेरा ।   

तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ 

 

ॐ जय जगदीश हरे-


श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...

जय श्रीकृष्ण...


-आरएन तिवारी

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