सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।
भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रो ! पूर्व कथा में हमने जरासंध, कालयवन और मुचुकुंद की कथा सुनी। कालयवन के भस्म हो जाने के बाद प्रभु ने मुचुकुंद को दर्शन दिया। मुचुकुंद ने आर्तभाव से श्री कृष्ण की स्तुति की और परम धाम को प्राप्त हुए।
आइए ! अब आगे के प्रसंग में चलते हैं --
रुक्मिणी हरण
राजाSसीत् भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान।
तस्य पंचाभवन पुत्रा कन्यैका छ वरानना ।।
रूक्म्यग्रजो रुक्मरथो रूक्मबाहुरनन्तर:।
रुक्मकेशो रक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती।।
राज भीष्मक के पाँच पुत्र और एक कन्या थी रुक्मिणी। वह श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध थी। उसने मन ही मन कृष्ण को पति के रूप मे स्वीकार कर लिया था। कृष्ण ने भी रुक्मिणी का शील सौंदर्य और चारित्रिक गुण सुन रखा था। वे भी उसके गुणों पर मुग्ध थे। दोनों ने ही अपना दिल एक दूसरे को दे दिया था। देखिए- यदि स्नेह सच्चा हो तो मिलन अवश्य ही होता है। गोस्वामी जी ने शब्दों मे पिरोया।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू सो तेहि मिलही न कछु संदेहू ॥
रुक्मी जो रुक्मिणी का बड़ा भाई था, वह चाहता था कि रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से हो। रुक्मिणी बहुत उदास थी। क्या करे। सोचती थी मैं सिंह का हिस्सा हूँ और मुझे सियार लेना चाहता है। उसने एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को कृष्ण के पास भेजा। द्वारिकापुरी में द्वारपाल ब्राह्मण को राजमहल के भीतर ले गए। आदि पुरुष भगवान कृष्ण अपने राज सिंहासन पर विराजमान थे। ब्राह्मण को देखते ही तुरंत सिंहासन से उठ गए। ब्राह्मण को अपने सिंहासन पर बैठाया, आदर सत्कार करने के बाद ब्राह्मण देव के पैर अपने कोमल हाथों से सहलाते हुए बड़े ही शांत भाव से कहने लगे- यदि ब्राह्मण संतोष पूर्वक अपने धर्म का पालन करे तो संतोष से उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। अहंकार रहित शांत ब्राह्मण को मैं सिर नवाकार प्रणाम करता हूँ। भगवान ने हम ब्राह्मणों के लिए कितना सुंदर संदेश दिया। हमें इस पर अमल करना चाहिए। बाद में भगवान ने आगमन का कारण पूछा- ब्राह्मण ने बड़ी ही नम्रता पूर्वक रुक्मिणी का संदेश सुनाया।
श्रुत्वागुणान् भुवनसुंदर श्रृण्वतां ते निर्विश्य कर्णविवरै:हरतोsङग तापम ।
रूपं दृशां दृशिमतां अखिलार्थ लाभम् त्वयच्युताविशति चित्तमपत्रपं ते।।
का त्वा मुकुन्द महती कुल शीलरूप
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्म तुल्यम् ।
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
कालेनृसिंह नरलोक मनोSभिरामम्।।
ब्राह्मण देव कहते हैं--- प्रभो! आप गुणज्ञ हैं ऐसी कौन गुणवती कन्या होगी जो विवाह के योग्य हो जाने पर आपको पति के रूप में न चाहे। रुक्मिणी ने आपको अपने पति के रूप में चयन कर लिया है। आप उसका पाणि ग्रहण करे प्रभो। विवाह के पहले हमारे कुल का ऐसा नियम है कि दुलहन को गिरिजा मंदिर में जाना होता है। वहाँ से आप मेरा हरण कर ले। रुक्मिणी का संदेश सुनकर द्वारिकाधीश ने ब्राह्मण का हाथ पकड़कर हँसते हुए कहा- मेरा चित्त भी रुक्मिणी में लगा है। लकड़ी मथकर जैसे आग निकलती है वैसे ही जरासंध आदि आतताइयों को मथकर मैं रुक्मिणी को वहाँ से निकाल लाऊँगा।
कृष्ण ने सारथी को आदेश दिया। रथ सजाकर सारथी ले आया। कृष्ण ने पहले ब्राह्मण को रथ पर बैठाया फिर स्वयं आरूढ़ होकर एक ही रात मे विदर्भ पहुँच गए। नगर सजाया गया था, मंडप में विवाह की तैयारी चल रही थी। रुक्मिणी को स्नान कराया गया, हाथ में कंगन और उत्तम आभूषणों से सजाया गया। उधर शिशुपाल भी सज-धज कर दूल्हे के रूप में तैयार था। विपक्षी राजा जरासंध आदि राजा भी तैयारी से आए थे। जब बलराम जी को पता चला कि कृष्ण वहाँ अकेले ही गए हैं वे भी चतुरंगिणी सेना के साथ वहाँ पहुंचे। दोनों में कितना भ्रातृ प्रेम है। यहाँ बेचारी रुक्मिणी भगवान के इंतजार में है। विचार कर रही है- भगवान तो आए नहीं, ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे। मैं कितनी अभागिनि हूँ। तब तक रुक्मिणी की बाईं आँख और भुजा फड़कने लगी। प्रियतम के आगमन का संकेत। तब तक ब्राह्मण ने रुक्मिणी के पास आकर श्रीकृष्ण का शुभ संदेश सुनाया। ब्राह्मण द्वारा कृष्ण का शुभ संदेश सुनकर रुक्मिणी उसी तरह प्रसन्न हुईं जिस तरह हनुमान द्वारा रामजी का संदेश सुनकर सीताजी प्रसन्न हुईं थी और हनुमान जी को वरदान दिया था।
यदि कहीं राम मंदिर होगा तो राम दुलारा भी होगा
सीता लक्ष्मण के साथ-साथ यह हनुमत प्यारा भी होगा।
ब्राह्मण को भी विश्वास पात्र होना चाहिए। रुक्मिणी जी ने भी बिना बताए उस ब्राह्मण को सभी ऐश्वर्य दे दिए।
जुलूस गिरिजा मंदिर में पहुंचा। रुक्मिणी जी ने गिरिजा वंदन में कृष्ण को ही पति मांगा।
जय-जय-जय गिरिराज किशोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी
जय गज वदन षडानन माता जगत जननी दामिनी दुति गाता।
अचानक भगवान श्री कृष्ण जुलूस में प्रकट हो गए और शत्रु राजाओं के सिर पर अपने पैर रखते हुए रुक्मिणी का हाथ पकड़कर रथ में बैठा कर चल दिए। विपक्षी राजा मुँह देखते ही रह गए। और शुकदेव जी श्लोक गाया-----
ताम राज कन्याम् रथमारूरुक्षतीम्
जहार कृष्णो द्विशताम् समीक्षताम्
रथम् समारोप्य सुपर्ण लक्षणम्
राजन्य चक्रम परिभूय माधव;॥
शेष अगले प्रसंग में ----
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी