By अभिनय आकाश | May 13, 2020
1973 का वो केस जिसकी सुनवाई 68 दिनों तक चली, सुनवाई के दौरान लगभग 100 केस खंगाले गए। अटॉर्नी जनरल ने 71 देशों के चार्ट कोर्ट में किए पेश। न्यायालय के फैसले को प्रभावित करने की पुरजोर कोशिश सत्ताधारी ताकतों की ओर से की गई। जिसमें अहम भूमिका निभाने के तात्कालिक कानून मंत्री और तत्कालीन स्टील मंत्री पर लगे आरोप। एक चीफ जस्टिस जो अपने निर्णय पर न ही किसी दवाब में झुके और न ही पीछे हटे। अंतत: फैसला आया- किसी भी सूरत में संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदल सकते।
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नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने रामलला के नाम जमीन के हक पर हस्ताक्षर कर दिए और आम जनमानस की आस पर रामलला का वनवास खत्म हो गया। अयोध्या मामले में सुनवाई 40 दिनों तक चली और 5 जजों की बेंच ने अपना फैसला दिया। लेकिन देश के इतिहास में मंदिर की संपत्ति से जुड़ा एक ऐसा मामला भी है जिसकी सुनवाई सबसे लंबे वक्त तक चली। 68 दिन कोर्ट में सुनवाई करने के बाद 13 जजों की बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। वो फैसला जिसकी वजह से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका। ये केस था केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार। आइए जानते हैं, क्या है ये केस और क्यों इसमें फैसला लेने के लिए इतना लंबा समय लग गया।
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कासरगोड़ केरल का सबसे उत्तरी जिला है। पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों पुराना एक शैव मठ है जो एडनीर में स्थित है। यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है। शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था। यह ब्राह्मणों की तांत्रिक पद्धति का अनुसरण करने वाली स्मार्त्त भागवत परंपरा को मानता है।
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इस मठ का इतिहास करीब 1,200 साल पुराना माना जाता है। यही कारण है कि केरल और कर्नाटक में इसका काफी सम्मान है। शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है। ऐसे में स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते हैं। उन्होंने महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था जिसके कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए। साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी। यह वही दौर था जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी। राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली। इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई। एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी।
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केशवानंद भारती VS केरल राज्य (1973)
ठीक 47 साल पहले 24 अप्रैल 1973 को भारत की सर्वोच्च अदालत ने केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले को भारत के कानूनी इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। 13 जजों की बेंच ने ये फैसला सुनाया था। लगातार न्यायालय में मिल रही हार से सबक लेते हुए केशवानंद भारती केस में इंदिरा गांधी ने पूरी तैयारी कर ली थी। 68 दिन तक चली सुनवाई के दौरान लगभग 100 केस खंगाले गए। अटॉर्नी जनरल ने लगभग 71 देशों के संविधान में संसद द्वारा संविधान में संशोधन करने वाले अधिकारों का चार्ट कोर्ट के समक्ष पेश किया।
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दूसरी तरफ सरकार की तरफ से कुछ और भी सांठ-गांठ चल रही थी। द टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इंदिरा गांधी के तात्कालिक कानून मंत्री एच.आर.गोखले व तत्कालीन स्टील मंत्री कुमार मंगलम ने इसमें हम भूमिका निभाई थी। उन पर अपने दायरे से बाहर निकलकर न्यायालय के फैसले को प्रभावित करने के आरोप भी लगे। केशवानंद भारती केस में 13 जजों की पीठ बनी थी, जिसमें चीफ जस्टिस सीकरी भी शामिल थे। जस्टिस पी जगनमोहन रेड्डी ने अपनी किताब ‘वी हैव रिपब्लिक’ में लिखा है कि सरकार के फेवर में फैसला लाने के लिए कानून मंत्री गोखले ने अपने दो उम्मीदवार उतारे। इनमें मुंबई हाईकोर्ट के जस्टिस डीजी पालेकर और वाई वी चंद्रचूड़ का नाम लिया जाता है। इसके आलावा इस मामले में कुमारमंगलम के उम्मीदवार जस्टिस के.के. मैथ्यू, इंदिरा के करीबी एस.एस.रे भी शामिल थे। इसी लिस्ट में दो उम्मीदवार खुद प्रधानमंत्री के भी थे, जो एस.एच.बेग और एस.एन द्विवेदी थे।
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जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फ़ैसला सुनाया तब सुनवाई कर रही पीठ दो भागों में बट चुकी थी। 7 जज जहां इस फ़ैसले के पक्ष में थे, वहीं 6 जज इससे सहमत नहीं थे। खैर, न्यायालय ने तय किया कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने का अधिकार है, किन्तु वह किसी भी सूरत में संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदल सकते। बुनियादी ढांचे का मतलब है संविधान का सबसे ऊपर होना, कानून का शासन, न्यायपालिका की आजादी, संघ और राज्य की शक्तियों का बंटवारा, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, सरकार का संसदीय तंत्र, निष्पक्ष चुनाव आदि।
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इसकी जड़ी 1951 से जुड़ी
इस कहानी की शुरूआत 1951 में होती है। जब जवाहर लाल नेहरू अपना पहला संविधान संशोधन करते हैं। जिसमें आर्टिकल-31 यानि संपत्ति के अधिकार पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हैं तो इस मामले की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई, जिसमें संपत्ति के अधिकार को में कटौती की गई। इसे शंकरी प्रसाद मामले के नाम से जाना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। कुल मिलाकर कर समझें तो संसद के पास मूल अधिकारों को संशोधित करने की ताकत है। लेकिन समय बीतने के साथ ही 17 पहले की कहानी बदल गई। पंजाब का गोलकनाथ मामला 1967 में आया जब 17वें संशोधन अधिनियम को संसद में चुनौती दी गई। यह मामला भूमि सुधार से जुड़ा था। इस बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद के पास मूल अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति नहीं है। ये वौ दौर था जब इंदिरा गांधी राजनीति में प्रवेश कर रही थीं। न्यायपालिका और सरकार के बीच एक जंग शुरू हो गई।
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नानी पालकी वाला की वो दलील
एक शख्स जिनके जिक्र के बिना इस पूरे केस की कहानी न सिर्फ अधूरी है बल्कि केशवानंद भारती केस के मुक्मल अंजाम तक पहुंचाने की कवायद में इस किरदार की रही अहम भूमिका। नानी पालकीवाला ने अपने करियर में 140 महत्वपूर्ण मुकदमे लड़े थे। पालकीवाला के लिए ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ केस शायद उनकी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण केस था। इस मुकदमे को भारतीय संविधान की रूह को अक्षुण रखने वाला सबसे महान मामला कहा जाता है। इस केस में पालकीवाला ने स्वामी का बचाव करते हुए, उन्हें आर्टिकल 26 के अंतर्गत मुकदमा दायर करने के लिए कहा क्योंकि कोई भी सरकार उनकी धार्मिक संपत्ति के सञ्चालन में अवरोध नहीं लगा सकती है। इसी निर्णय ने “मूल संरचना” सिद्धांत को जन्म दिया, जिसके साथ अन्य प्रावधानों के साथ आम नागरिकों को संविधान जो “बुनियादी सुविधाएँ” देता है; वह हैं नागरिकों के मौलिक अधिकार। इस ऐतिहासिक मुकदमे के लिए हमेशा पालकीवाला को याद किया जायेगा।
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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद क्या
सुप्रीम कोर्ट का फैसला तात्कालिक सत्तारूढ़ सरकार के लिए एक बड़ा झटका था, जो कि न्यायपालिका की निगहबानी की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की हर संभव कोशिश कर रही थी। फैसले का अंजाम तय था। केशवानंद भारती मामले में फैसला आने के दो दिनों के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी (तात्कालिक प्रधानमंत्री) ने सुप्रीम कोर्ट की एक परंपरा को तोड़ने का फैसला किया, जबकि यह परंपरा उतनी ही पुरानी थी, जितना पुराना सुप्रीम कोर्ट था। सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद से वरिष्ठतम न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता रहा, जिसे एक परिपाटी बना दिया गया था। रामचंद्र गुहा अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में लिखते हैं कि फैसले के बाद ही 3 वरिष्ठ जजों को छोड़कर सरकार का पक्ष लेने वाले एन.एन.रे को चीफ जस्टिस चुन लिया गया। जवाब में अधिक्रमित किए गए तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया। भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल सीके दफ्तरी ने उस दिन को लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला दिन कहा था। जयप्रकाश नारायण ने भी इंदिरा की आलोचना करते हुए एक पत्र लिखकर उन्होंने पूछा कि क्या सरकार न्यायपालिका को अपना गुलाम बनाना चाहती है!
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बहरहाल, केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भले ही इंदिरा सरकार थोड़ा सा अपनी तरफ झुकाने में सफल हो गई थी, किन्तु संविधान के साथ छेड़छाड़ करने की असीमित शक्ति न देकर सुप्रीम कोर्ट यह संदेश जरूर देने में सफल रहा था कि संविधान संसद से ऊपर है।