रायबरेली में सोनिया को कोई खतरा नहीं पर अमेठी में कहीं अपनी सीट खो ना बैठें राहुल

By अजय कुमार | Mar 29, 2019

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव का मुकाबला कहीं त्रिकोणीय तो कहीं दो तरफा नजर आ रहा है। मोदी के डर से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपनी वर्षों पुरानी दुश्मनी को भूल कर हाथ तो मिला लिया है, लेकिन गठबंधन के बाद भी इन दलों के नेताओं की चिंताएं कम नहीं हुई हैं। खासकर बसपा सुप्रीमो मायावती कुछ ज्यादा ही आशंकित हैं। इसी तरह से पूरे प्रदेश में कमजोर, लेकिन अमेठी−रायबरेली में हमेशा मजबूत नजर आने वाली कांग्रेस भी इन दोनों सीटों पर भाजपा से आमने−सामने के मुकाबले में सहमी−सहमी है। इन दलों के नेताओं के डर की वजह है मतदाताओं का जागरूक हो जाना। अब वह दौर खत्म हो रहा है जब किसी नेता की एक आवाज पर वोटर उसके पक्ष में अपना मन बदल लिया करते थे। स्थिति यह है कि अब यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि समाजवादी वोटर, अखिलेश यादव के कहने पर बसपा या राष्ट्रीय लोकदल के प्रत्याशी को आंख बंद करके अपना वोट दे ही देंगे। इसी प्रकार बसपा भी इस तरह का कोई दावा नहीं कर सकती है। इन दलों को वोटर इस बात का अहसास पिछले कुछ चुनावों में करा भी चुके हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती तो अक्सर कहती सुनी भी गई हैं कि गठबंधन से उन्हें नुकसान होता है। उनका वोट तो गठबंधन सहयोगी को ट्रांसफर हो जाता है, लेकिन उन्हें इसका फायदा नहीं मिलता है। यह तर्जुबा वह पूर्व में गठबंधन करके हासिल कर चुकी हैं।

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उत्तर प्रदेश में सपा−बसपा करीब 25 वर्षों से अलग−अलग थे, लेकिन राजनैतिक पंडित हमेशा आकलन करते रहे कि सपा का 22 प्रतिशत और बसपा का 21 प्रतिशत वोट मिलकर 43 प्रतिशत का चुनाव जिताऊ समीकरण कभी भी बना सकते हैं, लेकिन मुलायम के रहते ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि मायावती स्टेट गेस्ट हाउस कांड को भूल नहीं सकी थीं, जिसके चलते 1993 के बाद दोनों दल कभी एकजुट नहीं हो पाए। अब करीब 25 वर्षों के बाद सपा−बसपा के बीच गठबंधन हुआ जरूर है, लेकिन हालात काफी बदल चुके हैं। पहले मुलायम अपना हाथ ऊपर रखते थे, अब ऐसा मायावती करती हैं। 1993 में जब सपा−बसपा साथ मिलकर लड़े थे उस समय इस गठबंधन की कुल 176 सीटें आई थीं। 67 बसपा की और 109 सीट पर सपा जीती थी। उस चुनाव में सपा 260 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जबकि बसपा 163 पर। तब सपा सीनियर पार्टनर थी, बसपा जूनियर, तब गठबंधन की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी।

 

खैर, यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के कोई भी दो चुनाव आपस में एक जैसे नहीं हुए हैं। यह पिछले ढाई दशकों का इतिहास बताता है। आजमगढ़ की लोकसभा सीट लें, 1998 में लहर आई तो अकबर अहमद डंपी सांसद बन गए। आज वे राजनीतिक परिदृश्य से ही लापता हैं। 2007 में मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो 2012 में अखिलेश यादव ने और 2017 में भाजपा ने यही कारनामा किया। राजनीति के फार्मूले भले ही एक रहे हों लेकिन जनता ने इक्का−दुक्का मामलों को छोड़कर किसी को भी दोबारा मौका नहीं दिया। 2009 में कांग्रेस लोकसभा में 21 सीटें जीतने में कामयाब हुई तो 2014 में 2 सीटों पर सिमट गई। यानी किसी भी दो चुनाव को आपस में जोड़कर नहीं देखा जा सकता। बात आज की कि जाए तो इस समय कोई भी पार्टी जीत को लेकर निश्चिंत नहीं है।

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गठबंधन से बेचैन भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अब तक जिन 61 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है, उनमें से 13 नए चेहरे हैं। गौर करने वाली बात ये है कि इनमें से 6 प्रत्याशी अनुसूचित जातियों के हैं। बीजेपी सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवारों के नाम बेहद सोच−समझकर इसलिए चुन रही है, क्योंकि उसकी नजर गैर−जाटव दलित वोटों पर है। माना जा रहा है कि मायावती की पकड़ मुख्य तौर पर जाटव वोट बैंक पर है, जिन्हें महागठबंधन के किसी भी दल के पक्ष में ट्रांसफर करवा पाने में वो पूरी तरह सक्षम हैं। इसलिए, बीजेपी ने इस बार सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में पूरी एहतियात बरतने की कोशिश की है। मसलन पार्टी ने इस बार 2014 में जीते हुए जिन उम्मीदवारों की जगह नए लोगों को टिकट दिया उनमें हाथरस से राजवीर सिंह बाल्मीकि, शाहजहांपुर से अरुण सागर, हरदोई से जय प्रकाश रावत, मिश्रिख से अशोक रावत, बाराबंकी से उपेंद्र रावत और बहराइच से अक्षयवर लाल गौड़ शामिल हैं। इनमें अरुण सागर को केंद्रीय मंत्री कृष्ण राज का टिकट काटकर चुनाव मैदान में उतारा गया है और गौड़ को सावित्री बाई फुले की जगह लाया गया है, जो बीजेपी को टाटा कह चुकी हैं। 6 सुरक्षित सीटों के अलावा पार्टी ने 7 और सीटों पर भी उम्मीदवार बदले गए हैं। इनमें भी सिर्फ 1 सीट छोड़कर जातीय समीकरण को पुख्ता रखने की कोशिश की गई है, ताकि महागठबंधन की धार को धीमा किया जा सके।

 

बात कांग्रेस की कि जाए तो उसे सबसे अधिक चिंता रायबेरली और खासकर अमेठी की है। लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन ने रायबरेली और अमेठी सीटें छोड़ने की घोषणा की है लेकिन कांग्रेस में बेचैनी बनी हुई है। अमेठी में पिछले पांच वर्षों से सक्रिय स्मृति ईरानी का पलड़ा इस बार राहुल गांधी के बराबर का लग रहा है। ईरानी यहां अभी भी पूरा समय दे रही हैं, लेकिन राहुल गांधी चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते हैं। उनके कंधों पर पूरी 543 सीटों की जिम्मेदारी है। इसके अलावा अमेठी में मोदी−योगी की रैली, भाजपा द्वारा की जा रही घेराबंदी के अलावा विकास के कार्य, सहयोगी दलों का वोट ट्रांसफर न होने की आशंका भी है। कांग्रेस संगठनात्मक कमजोरी और पार्टी में असंतोष से भी बेचैन है। कांग्रेस में अमेठी को लेकर चिंता की वजह गत विधानसभा चुनाव भी है। क्षेत्र की पांच विधानसभा सीटों में एक भी कांग्रेस को नहीं मिल सकी थी। ऐसा तब हुआ था जबकि वह 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी। तब चार पर भाजपा और एक पर सपा उम्मीदवार विजयी हुआ था। वहीं गत दिनों राहुल के करीबी माने जाने वाले हारून रशीद का प्रियंका के दौरे से पहले पार्टी छोड़ने से साबित होता है कि संगठन में सब कुछ सामान्य नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल को यहां से मात्र एक लाख वोटों से ही जीत हासिल हुई थी, तब ईरानी ने सिर्फ एक महीने की मेहनत की थी, अबकी यह पांच साल तक पहुंच चुकी है।

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बीजेपी के लिए अमेठी जैसे हालात राबयरेली में नहीं हैं। 2014 में मोदी लहर के बाद भी रायबरेली में सोनिया गांधी की जीत का अंतर भी अधिक था। पिछले विधान सभा चुनाव मं कांग्रेस के दो विधायक बड़े अंतर से विजयी हुए थे और भाजपा के दो व सपा का एक विधायक जीता था। यहां से सोनिया की हार की संभावनाएं तो न के बराबर हैं, लेकिन कांग्रेस संगठन में उठापटक नेतृत्व की बेचैनी बढ़ाए हुए है। विधान परिषद सदस्य दिनेश प्रताप सिंह व उनके भाई अवधेश प्रताप सिंह कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा में शामिल हो चुके हैं। उधर, दिनेश के भाई तथा हरचंदपुर के कांग्रेस विधायक राकेश प्रताप सिंह का प्रियंका गांधी की बैठक में शामिल न होना भी खतरे की घंटी है।

 

-अजय कुमार

 

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