पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण के लिए समय-समय पर लॉकडाउन जरूरी

By योगेश कुमार गोयल | Apr 22, 2020

पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने तथा दुनिया के समस्त देशों से इस कार्य में सहयोग एवं समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को विश्वभर में ‘पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है। पूरी दुनिया में एक अरब से भी ज्यादा लोग प्रतिवर्ष यह दिवस मनाते हैं और इस प्रकार यह एक ऐसा नागरिक कार्यक्रम है, जो विश्वभर में सबसे बड़े स्तर पर मनाया जाता है। इस अवसर पर पर्यावरण संरक्षण तथा पृथ्वी को बचाने का संकल्प लिया जाता है। यह एक संयोग ही है कि इस बार यह दिवस ऐसे समय में मनाया जा रहा है, जब पहली बार हम पृथ्वी को काफी हद तक साफ-सुथरी और प्रदूषण रहित देख पा रहे हैं। हालांकि यह सब प्रकृति संरक्षण के लिए मानवीय प्रयासों के चलते हरगिज संभव नहीं हुआ है बल्कि इसका एकमात्र कारण कोरोना संकट के कारण दुनियाभर के अनेक देशों में चल रहा लॉकडाउन ही है अन्यथा इस पृथ्वी दिवस के अवसर पर भी प्रदूषण नियंत्रित कर पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने और धरती मां का कर्ज उतारने जैसी बातें ही हर साल की भांति दोहराई जा रही होती। कोरोना संकट ने पूरी दुनिया को पर्यावरण संरक्षण को लेकर सोचने का एक ऐसा अवसर प्रदान किया है, जहां दुनियाभर के तमाम देश एकजुट होकर अब समय-समय पर लॉकडाउन या ऐसी ही कुछ अन्य ऐसी योजनाओं पर विचार सकते हें, जिनसे पर्यावरण संरक्षण में अपेक्षित मदद मिल सके।


कैसे हुई पृथ्वी दिवस की शुरूआत?


पहले दुनियाभर में प्रतिवर्ष दो बार 21 मार्च तथा 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाया जाता था लेकिन वर्ष 1970 से यह दिवस 22 अप्रैल को ही मनाया जाना तय किया गया। 21 मार्च को पृथ्वी दिवस केवल उत्तरी गोलार्द्ध के वसंत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के पतझड़ के प्रतीक स्वरूप ही मनाया जाता रहा है। 21 मार्च को मनाए जाने वाले ‘पृथ्वी दिवस’ को हालांकि संयुक्त राष्ट्र का समर्थन प्राप्त है लेकिन उसका केवल वैज्ञानिक व पर्यावरणीय महत्व ही है जबकि 22 अप्रैल को मनाए जाने वाले ‘पृथ्वी दिवस’ का पूरी दुनिया में सामाजिक एवं राजनैतिक महत्व है। संयुक्त राष्ट्र में पृथ्वी दिवस को प्रतिवर्ष मार्च एक्विनोक्स (वर्ष का वह समय, जब दिन और रात बराबर होते हैं) पर मनाया जाता है और यह दिन प्रायः 21 मार्च ही होता है। इस परम्परा की स्थापना शांति कार्यकर्ता जॉन मक्कोनेल द्वारा की गई थी।

 

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पर्यावरण के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से ‘पृथ्वी दिवस’ पहली बार बड़े स्तर पर 22 अप्रैल 1970 को मनाया गया था और तभी से केवल इसी दिन यह दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। उस आयोजन में समाज के हर वर्ग और क्षेत्र के करीब दो करोड़ अमेरिकियों ने हिस्सा लिया था। उस समय अमेरिकी सीनेटर गेलार्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने के लिए इस महत्वपूर्ण दिवस की स्थापना पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गई थी, जिसे अब इसी दिन दुनिया के कई देशों में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। नेल्सन पर्यावरण को लेकर सदैव चिंतित रहा करते थे और इसके प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहते थे। सितम्बर 1969 में सिएटल (वाशिंगटन) में आयोजित एक सम्मलेन में सीनेटर नेल्सन द्वारा घोषणा की गई थी कि वर्ष 1970 की वसंत ऋतु में पर्यावरण पर राष्ट्रव्यापी जनसाधारण प्रदर्शन किया जाएगा और इस प्रकार पर्यावरण को राष्ट्रीय एजेंडे में जोड़ने के लिए नेल्सन द्वारा प्रथम राष्ट्रव्यापी पर्यावरण विरोध की प्रस्तावना दी गई थी। अमेरिका में इस दिवस को ‘वृक्ष दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पहले पृथ्वी दिवस के अवसर पर ही ‘यूनाइटेड स्टेट्स एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी‘ की स्थापना हुई थी तथा ‘स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल और लुप्तप्राय जीव’ (क्लीन एयर, क्लीन वाटर एंड एन्डेंजर्ड स्पीसेज) से जुड़े कानून को स्वीकृति प्रदान की गई थी।


प्राकृतिक रूप खो रही धरती


अब प्रश्न यह है कि आखिर दुनियाभर में हर साल पृथ्वी दिवस के आयोजन की जरूरत ही क्यों महसूस हुई? इसका जवाब है कि अनेक दुर्लभ प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर हमारी पृथ्वी प्रदूषित वातावरण के कारण धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है और इसी प्राकृतिक रूप को बचाने हेतु लोगों को जागरूक करने तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से यह दिवस मनाया जाने लगा। हालांकि चिंता की बात यह है कि न केवल अपने देश में बल्कि समूची दुनिया में इस महत्वपूर्ण दिवस को लेकर सामाजिक जागरूकता का तो बड़ा अभाव है ही, राजनीतिक स्तर पर भी पृथ्वी संरक्षण के लिए कोई ठोस पहल होती नहीं दिखती। दुनियाभर में कुछ पर्यावरण प्रेमी तथा पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी संस्थाएं धरती को बचाने की कोशिशें अवश्य करती रही हैं लेकिन जब तक धरती को बचाने की चिंता दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति की चिंता नहीं बनेगी और इसमें हर व्यक्ति का योगदान नहीं होगा, तब तक मनोवांछित परिणात मिलने की कल्पना भी नहीं की सकती। धरती की सेहत बिगाड़ने और इसके सौन्दर्य को ग्रहण लगाने में समस्त मानव जाति ही जिम्मेदार है। आधुनिक युग में मानव जाति की सुख-सुविधा के लिए सुविधाओं के हुए विस्तार ने ही पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है और निरन्तर हो रहा जलवायु परिवर्तन भी इसी की देन है। इन्हीं सब तथ्यों की विस्तृत चर्चा मैंने हिन्दी अकादमी दिल्ली के आर्थिक सहयोग से पर्यावरण संरक्षण पर पिछले ही माह प्रकाशित हुई 190 पृष्ठों की अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में की है।

 

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मानवीय क्रियाकलापों की देन ग्लोबल वार्मिंग


न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही वृद्धि तथा मौसम का निरन्तर बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का सबब बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं और वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में कोई ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं।


ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर में मौसम का मिजाज किस कदर बदल रहा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्षों में उत्तरी ध्रुव के तापमान में एक-दो नहीं बल्कि करीब 30 डिग्री तक की बढ़ोतरी देखी गई है। ग्लोबल वार्मिंग तमाम तरह की सुख-सुविधाएं व संसाधन जुटाने के लिए किए जाने वाले मानवीय क्रियाकलापों की ही देन है। धरती का तापमान यदि इसी प्रकार साल दर साल बढ़ता रहा तो आने वाले वर्षों में हमें इसके बेहद गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा क्योंकि हमें यह बखूबी समझ लेना होगा कि जो प्रकृति हमें उपहार स्वरूप शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, शुद्ध मिट्टी तथा ढ़ेरों जनोपयोगी चीजें दे रही है, अगर मानवीय क्रियाकलापों द्वारा पैदा किए जा रहे पर्यावरण संकट के चलते प्रकृति कुपित होती है तो उसे सब कुछ नष्ट कर डालने में पल भर की भी देर नहीं लगेगी। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वातावरण में पहले की अपेक्षा 30 फीसदी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड मौजूद है, जिसकी मौसम का मिजाज बिगाड़ने में अहम भूमिका है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया जाता रहा है।

 

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औपचारिक न बने पृथ्वी दिवस


प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें बारम्बार चेतावनियां देती रही है किन्तु जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। अगर प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर हम स्वयं इन समस्याओं का कारण बने हैं और गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर यदि हम वाकई चिंतित हैं तो इन समस्याओं का निवारण भी हमें ही करना होगा ताकि हम प्रकृपि के प्रकोप का भाजन होने से बच सकें अन्यथा प्रकृति से जिस बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा समस्त मानव जाति को अपने विनाश से चुकाना पड़ेगा। लोगों को पर्यावरण एवं पृथ्वी संरक्षण के लिए जागरूक करने के लिए साल में केवल एक दिन अर्थात् 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ मनाने की औपचारिकता निभाने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर हम वास्तव में पृथ्वी को खुशहाल देखना चाहते हैं तो यही ‘पृथ्वी दिवस’ प्रतिदिन मनाए जाने की आवश्यकता है। अगर हम चाहते हैं कि हम धरती मां के कर्ज को थोड़ा भी उतार सकें तो यह केवल तभी संभव है, जब वह पेड़-पौधों से आच्छादित, जैव विविधता से भरपूर तथा प्रदूषण से सर्वथा मुक्त हो और हम चाहें तो सामूहिक रूप से यह सब करना इतना मुश्किल भी नहीं है। बहरहाल, यह अब हमें ही तय करना है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं? एक ऐसे युग में, जहां सांस लेने के लिए प्रदूषित वायु होगी और पीने के लिए प्रदूषित और रसायनयुक्त पानी तथा ढेर सारी खतरनाक बीमारियों की सौगात या फिर एक ऐसे युग में, जहां हम स्वच्छंद रूप से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी का आनंद लेकर एक स्वस्थ एवं सुखी जीवन का आनंद ले सकें।


-योगेश कुमार गोयल

(लेखक तीस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं तथा इसी वर्ष हिन्दी अकादमी दिल्ली के सहयोग से पर्यावरण संरक्षण पर उनकी 190 पृष्ठों की पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ प्रकाशित हुई है)


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