जीने का सामान (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Nov 26, 2024

ज़िंदगी आराम से जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आधारभूत वस्तुएं मानी जाती हैं। इन तीन के इर्द गिर्द ही दूसरी दर्जनों चीज़ें जुडी हुई हैं जो ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं। उनकी प्रवृति के अनुसार ही उन्हें हासिल करने के प्रयास किए जाते हैं लेकिन समय बदलता है तो नई नई ज़रूरतें भी पैदा होती हैं। नए नए आविष्कार भी होते हैं। ज़रूरतें पैदा करने और फिर आविष्कार करवाने में समसामयिक परिस्थितियां संजीदा रोल अदा करती हैं। परिस्थितियां उगाने में राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक योजनाएं खाद और पानी का काम करती हैं।

  

विरोधी को पटखनी देने के लिए शारीरिक, आर्थिक रूप से सक्षम होना, जीने के लिए ज़रूरी है। पटखनी देने की ज़रूरत कभी भी पड़ सकती है। इसके साथ ही हार का मुंह देखने की खूब सारी हिम्मत भी जुटा कर रखनी ज़रूरी है। ज्यादा उम्र बढ़ने से पहले अपनी सुविरासत या कुविरासत खुशी खुशी उसे सौंप देनी चाहिए जो संभाल सके नहीं तो विरासत धीरे धीरे रिसने लगती है। उधर बढ़ती उम्र और शरीर पकडती बीमारियां परेशान करने लगती हैं लेकिन  दिल है की मानता नहीं और बंदा इच्छाओं का बंदी बनकर रह जाता है। 

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आज का परिदृश्य कई बार सतयुग जैसा लगने लगता है। राजनीतिक खेल में मनपसंद लोग विजयी हो जाते हैं तो कहा जाता है विकास, सुशासन और सामाजिक न्याय की जीत हुई है। वह बात दीगर है कि उदास पर्यावरण, बुलडोज़र के मारे और एक समय की रोटी के लिए दूसरों पर आश्रित लोग कुछ कह नहीं सकते, कुछ करना तो दूर की बात है। वे संतुष्ट और शांत रहते हैं। सुना है आजकल नकारात्मक राजनीति भी हारने लगी है। कई हाथ मिलाकर झूठ, फरेब, विभाजनकारी ताकतें को भी हरा दिया जाता है।  सुना करते थे पैसा सबकुछ नहीं खरीद सकता लेकिन योजना बनाकर की गई नकद मदद,  चमत्कार कर सकती है।  इससे मकान को घर बनाने वाली महिलाओं को जीता जा सकता है और छोटी सी मदद के बदले वे बड़ा इतिहास रच सकती हैं।  


यह फिर से स्थापित हुआ जाता है कि सुधार करने से कई तरह के कार्य जिनमें स्वार्थ भी शामिल हैं पूरे होते हैं लेकिन इंसान परेशान है। सुबह से शाम तक उसके पास भारी भरकम उपदेशों की भरमार है। कोई कह रहा है महात्मा गांधी के पद चिन्हों पर चलो। दूसरा कह रहा है स्वामी विवेकानंद की बातों को आत्मसात करो। वो सामने वाला कह रहा है भगवान के व्यक्तित्व से प्रेरित हो जाओ। सच बोलने को भी कहा जा रहा है। जेब में पैसे नहीं हैं लेकिन पर्यटन के लिए उकसाने वाली योजनाएं द्वार खड़ी हैं। सच यह है कि योजनाएं, ज़िंदगी को घुमाकर रखती हैं। जीने का सामान जुटाते रहने के लिए बंदा अपने क़दमों पर खड़े रहना भी भूल जाता है।


- संतोष उत्सुक 

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