तीसरी लहर की छोड़िये, पहली और दूसरी लहर ने क्या बच्चों को कम प्रभावित किया है ?

By ललित गर्ग | Jul 28, 2021

कोरोना महामारी के कारण बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। ज्यादातर राज्यों में जहां सवा साल से स्कूल बंद पड़े हैं, वहीं अस्पतालों में कोरोना पीड़ितों के दबाव के कारण बच्चों का इलाज प्रभावित हुआ है, उन्हें समुचित चिकित्सा सुविधाएं सुलभ नहीं हो पायी हैं। महामारी के दौरान दो करोड़ तीस लाख बच्चों को डीटीपी का टीका नहीं लग पाया है, जो चिंताजनक स्थिति है। छोटे बच्चों को डिप्थीरिया, टिटनेस और पर्टुसिस (काली खांसी) से बचाने के लिए ये टीके जीवन रक्षक हैं। डीटीपी टीकाकरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पोलियो, चेचक जैसी बीमारियों से बचाने वाले टीके हैं। दुनिया में आबादी का बड़ा हिस्सा खासतौर से बच्चे पहले ही कुपोषण से जूझ रहे हैं। ऐसे में अगर बच्चे को जीवन रक्षक टीके नहीं लग पायेंगे तो बच्चे कैसे स्वस्थ कैसे जीयेंगे? महामारी ने बच्चों की जिन्दगी को बदलकर रख दिया है, स्वास्थ्य खतरों में धकेल दिया है।

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पिछले सवा साल के दौरान न केवल लोगों की आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक जिन्दगी गहरे रूप में प्रभावित हुई है, बल्कि बच्चों पर इसका घातक असर भी पड़ा है। घर से पढ़ाई ने बच्चों पर काफी असर डाला है। पहली कक्षा से लेकर बारहवीं तक की पढ़ाई ऑनलाइन चलती रही। यह मजबूरी भी थी। हालांकि ऑनलाइन कक्षाओं और परीक्षाओं का प्रयोग बहुत सीमा तक कामयाब नहीं कहा जा सकता। ज्यादातर लोगों के पास ऑनलाइन शिक्षा के बुनियादी साधन जैसे स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, लैपटॉप और इंटरनेट आदि उपलब्ध ही नहीं थे। ऐसे में विद्यार्थियों का बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित भी रहा। ऐसे विद्यार्थियों की तादाद भी कम नहीं होगी जो आधे-अधूरे मन से ऑनलाइन व्यवस्था को अपनाने के लिए मजबूर हुए। जिन बच्चों ने पूरी तरह ऑनलाइन शिक्षा को अपनाया है, उन पर तरह-तरह के शारीरिक एवं मानसिक दबाव बने हैं। स्कूल बंद होने के कारण स्कूल जाने वाले 33 फीसदी बच्चे प्रभावित हुए हैं। यूनिसेफ के मुताबिक वैश्विक स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पोषण, स्वच्छता या पानी की पहुंच के बिना गरीबी में रहने वाले बच्चों की संख्या में 15 फीसदी की वृद्धि होने की आशंका है।


एक सर्वे में खुलासा किया गया है कि ऑनलाइन पढ़ाई के कारण बच्चों के देखने और सुनने की क्षमता प्रभावित हुई है। बच्चों को मोबाइल एडिक्शन हो रहा है। वो अब अकेले रहना अधिक पसंद कर रहे हैं, कुंठित है। बच्चों का रुझान अब सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेम्स की ओर अधिक हो गया है। कोरोना काल में एक ओर जहां सभी को अपने रहने और काम करने की तरीकों में बदलाव करना पड़ रहा है तो वहीं बच्चों की पढ़ाई पर भी इस संकट का बहुत गहरा असर पड़ा है। बच्चों के हाथों में अब कॉपी किताब से अधिक फोन, आईपैड या कंप्यूटर होता है। बदले शिक्षा के स्वरूप ने न केवल बच्चों को बल्कि शिक्षकों को भी ऊब एवं नीरसता दी है।


अनेक राज्यों ने अब स्कूलों को खोलने का इरादा बना लिया है। कुछ राज्यों ने तो पहले ही बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को स्कूल आने की अनुमति दे दी थी। कोरोना महामारी के मामले कम पड़ जाने के साथ ही राज्यों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। यह जरूरी भी था। राजस्थान, ओड़िशा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, पंजाब आदि राज्यों में जल्दी ही स्कूली गतिविधियां प्रारंभ होने जा रही हैं। हरियाणा में बड़ी कक्षाएं तो पहले ही शुरू हो चुकी थीं, अब आठवीं तक की कक्षा के विद्यार्थियों के लिए भी स्कूल खोल दिए हैं। महाराष्ट्र में तो पंद्रह जुलाई से स्कूल खुल चुके हैं।

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तीसरी लहर की संभावनाओं के बीच स्कूलों का खुलना पूर्णतः सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह तो तय है कि जैसे ही स्कूल खुलेंगे, विद्यार्थियों की भीड़ बढ़ेगी। और इसी के साथ तीसरी लहर का खतरा भी मंडरायेगा। पूर्णबंदी खत्म होने के बाद चरणबद्ध तरीके से काफी हद तक प्रतिबंध हटाए जा चुके हैं। दफ्तरों से लेकर बाजार तक खुल गए हैं। जिम, सिनेमाघर, होटल, रेस्टोरेंट, पर्यटन स्थल भी चालू हो चुके हैं। ऐसे में स्कूलों को भी अब और लंबे वक्त तक बंद रखना न तो संभव है, न ही व्यावहारिक। हालांकि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्राथमिक स्कूलों को पहले खोले जाने की सलाह दी है। इसके पीछे वैज्ञानिक दलील यह है कि कोरोना विषाणु जिस एस रिसेप्टर के जरिए कोशिकाओं से जुड़ता है, वह बच्चों में कम आता है। इससे छोटे बच्चों में कुदरती तौर पर खतरा कम रहता है। चौथे सीरो सर्वे से इसकी पुष्टि हुई है। जो हो, स्कूलों को खोलने से पहले बच्चों की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए ताकि और बड़ा संकट खड़ा न हो जाए।


शिक्षा के साथ-साथ बच्चों के इलाज को भी सुनिश्चित किया जाना अपेक्षित है। गौरतलब है कि सवा साल में महामारी ने दुनिया को हिला दिया। अभी भी इससे मुक्ति के आसार नहीं है। ऐसे में सभी देशों का जोर फिलहाल महामारी को नियंत्रित करने पर ही है। कई महीनों तक तो अस्पतालों में कोरोना पीड़ितों के कारण दूसरी गंभीर बीमारियों के इलाज भी नहीं हो पा रहे थे। ऐसे में बच्चों के लिए दूसरे जरूरी टीकों का अभियान बुरी तरह से प्रभावित होना ही था। दरअसल किसी भी देश में टीकाकरण जैसे अभियान तभी सफल हो पाते हैं जब उसके पास पहले ही से स्वास्थ्य सेवाओं का मजबूत ढांचा हो। भारत जैसे देश में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी बदहाल हैं, यह महामारी के दौरान उजागर हो चुका है। यह अपने आप में कम गंभीर बात नहीं है कि डीटीपी की पहली खुराक के मामले में दुनिया में भारत की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। पिछले साल भारत में तीस लाख से ज्यादा बच्चों को इस टीके की पहली खुराक नहीं मिली। 2019 में भी 14 लाख बच्चे इस टीके से वंचित रह गए थे। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि 2019 में जब कोरोना नहीं था तब 14 लाख बच्चों को डीटीपी का टीका क्यों नहीं लग पाया? दरअसल यह हमारी बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था का सबूत है।

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यूनिसेफ ने कहा है कि स्वास्थ्य सेवाओं के बाधित होने और महामारी के कारण गरीबी बढ़ने के साथ “एक पूरी पीढ़ी का भविष्य खतरे में है।“ एजेंसी ने सरकारों से बच्चों के लिए सेवाओं में सुधार करने के लिए और अधिक कदम उठाने का आग्रह किया है। यूनिसेफ ने कहा कि कोविड-19 महामारी दुनिया भर के बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के लिए “अपरिवर्तनीय नुकसान“ का कारण बन सकती है। 140 देशों का सर्वेक्षण करने वाली एक रिपोर्ट में पाया गया कि लगभग एक तिहाई देशों ने स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में कम से कम 10 फीसदी की गिरावट दर्ज की है, जिनमें टीकाकरण और मातृ स्वास्थ्य सेवाएं शामिल हैं। यूनिसेफ ने कहा कि अगर सेवाओं में रुकावट और कुपोषण का बढ़ना जारी रहता है तो इससे अगले 12 महीनों में 20 लाख अतिरिक्त बच्चों की मौत हो सकती है और 2 लाख मृत जन्म हो सकते हैं। एजेंसी ने पाया कि महिलाओं और बच्चों के लिए पोषण सेवाओं में महामारी के कारण 135 देशों में 40 फीसदी की गिरावट देखी गई। वहीं एजेंसी ने बताया कि पांच साल से कम उम्र के 60-70 लाख अतिरिक्त बच्चे तीव्र कुपोषण का शिकार हो सकते हैं।


दुनिया भर में शिक्षा पर महामारी के पड़ते प्रभाव को मापने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक नया ट्रैकर जारी किया है जिसे जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, वर्ल्ड बैंक और यूनिसेफ के आपसी सहयोगी से बनाया गया है। यदि पिछले एक साल की बात करें तो कोरोना महामारी के कारण 160 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर असर पड़ा है। यदि शिक्षा पर संकट की बात करें तो वो इस महामारी से पहले भी काफी विकट था। इस महामारी से पहले भी दुनिया भर में शिक्षा की स्थिति बहुत ज्यादा बेहतर नहीं थी। बच्चों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा को पटरी पर लाने के लिये सरकारों को गंभीर एवं व्यापक कदम उठाने होंगे। अगर गहराई से विश्लेषण किया जाये तो बच्चों को भी सक्षम एवं स्वस्थ जीने का अधिकार है। देश में नये शब्द की रचना करो और उसी अनुरूप शासन व्यवस्थाएं स्थापित हो। वह शब्द है.... मंगल। सबका मंगल हो, बच्चों के जीवन में भी मंगल हो और उससे जुड़ी नीतियों में प्रामाणिकता का मंगलोदय हो।


-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवँ स्तम्भकार हैं)

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