उत्तर प्रदेश की राजनीति में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर का सियासी कद बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन उन्हें सुर्खियां बटोरने और चर्चा में बने रहने की महारथ हासिल है। सियासत में ‘मोल-भाव’ कैसे किया जाता है और किस तरह से ‘रंग’ बदला जाता है, राजभर से बेहतर शायद ही कोई जानता होगा। आज वह किसके साथ खड़े हैं और कल किसके साथ खड़े होंगे, यह बात संभवतः ओम प्रकाश राजभर को स्वयं भी पता नहीं होगी। राजभर अपनी सियासी ‘वफादारी’ कपड़ों से भी तेजी से बदलते हैं। बसपा, भाजपा, समाजवादी पार्टी सहित तमाम छोटे दलों के साथ मिलकर राजनीति में अपनी किस्मत आजमा चुके राजभर का अब समाजवादी पार्टी से भी तलाक हो गया है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राजभर ही नहीं बल्कि अपने चाचा शिवपाल यादव को भी अपने से दूर कर दिया है।
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव का जिस तरह से अपने साथ छोड़ रहे हैं उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद भी अखिलेश के लिए सियासी संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। एक तरफ सपा के सुभासपा के चीफ ओम प्रकाश राजभर ने नाता तोड़ लिया है तो वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम संगठन भी अखिलेश यादव के विरोध में उतर आए हैं। शिवपाल यादव और महान दल तो पहले से ही अलग हो चुके हैं। समाजवादी पार्टी के खिलाफ जिस तरह का सियासी माहौल बन रहा है उसके आधार पर कहा जाने लगा है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव 2024 के चुनाव में कैसे बीजेपी के सामने मैदान में खड़े हो पायेंगे? यह सवाल राजनीति के गलियारों में लगातार बड़ा होता जा रहा है।
इसी के साथ बरेली दरगाह आला हजरत से जुड़े मुस्लिम संगठन ऑल इंडिया तंजीम उलेमा-ए-इस्लाम ने भी अखिलेश यादव के खिलाफ खुलकर राजभर के साथ देने का एलान कर दिया है। तंजीम चाहती है कि राजभर मुसलमानों को बताएं कि अखिलेश किस तरह से मुसलमानों को छल रहे हैं। जो हालात बन रहे हैं उस पर गौर किया जाए तो 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ही सपा और अखिलेश यादव की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं और आगे की सियासी राह लगातार लम्बी होती जा रही है। उधर, सपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाले महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य अलग हो चुके हैं। वहीं, सपा का पत्र आने के बाद शिवपाल सिंह यादव और ओमप्रकाश राजभर की अखिलेश यादव से सियासी दोस्ती टूट गई है।
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के सियासी सफर की बात की जाए तो राजभर ने 1981 में कांशीराम के समय में राजनीति की शुरुआत की थी। 2001 में राजभर का बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती से विवाद हो गया तो उन्होंने बसपा से किनारा कर लिया। दरअसल, राजभर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के भदोही का नाम बदल कर संतकबीर नगर रखने से नाराज थे। इसके बाद इन्होंने अपनी पार्टी बनाई। 2004 से चुनाव लड़ रही सुभासपा ने यूपी और बिहार के चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े किए मगर वह ज्यादातर मौकों पर चुनाव जीतने से ज्यादा खेल बिगाड़ने वाले बने रहे। 2017 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से राजभर की किस्मत ने पलटी मारी और राजभर ने सत्ता सुख पाया। वह योगी सरकार में मंत्री बने, लेकिन यह साथ लम्बा नहीं चला। बसपा, सपा और भाजपा के अलावा एक बार राजभर ने मुख्तार अंसारी के खिलाफ भी चुनाव लड़ने का मन बनाया था, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाए, बाद में पीछे हट गए थे। इतना ही नहीं राजभर एक बार मुख्तार अंसारी की इंकलाब पार्टी से विधान सभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं।
इसी वर्ष 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ओम प्रकाश राजभर का जहूराबाद सीट पर मुकाबला बीजेपी के कालीचरण राजभर और बसपा की शादाब फातिमा से था। जहां पर उन्होंने 40 हजार से ज्यादा वोटों से बीजेपी प्रत्याशी को शिकस्त दी। विधानसभा का चुनाव उन्होंने अखिलेश यादव के गठबंधन के तहत लड़ा। उनकी पार्टी से 6 विधायक जीतकर आए। लेकिन गठबंधन को बहुमत नहीं मिला। इसके बाद उम्मीद यही की गई कि अखिलेश और राजभर का यह गठबंधन कम से कम आगामी लोकसभा चुनाव 2024 तक तो चलेगा ही, लेकिन इतिहास दोहराते हुए गठबंधन टूटने से बचा नहीं। राजभर को अब अखिलेश में खामियां ही खामियां ही नजर आ रही हैं। सपा से तलाक होने के बाद राजभर अखिलेश पर और भी हमलावर हो गए हैं। वैसे राजभर की नाराजगी की वजह कोई एक नहीं है। वह अखिलेश के एसी कमरे में बैठ कर राजनीति करने से नाराज हैं। राष्ट्रपति चुनाव के समय विपक्ष के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के साथ बैठक में अखिलेश का राजभर को नहीं बुलाने की घटना ने भी विवाद में घी डालने का काम किया। राजभर सपा से तलाक के बाद अब बसपा के साथ जाने की बात कहने लगे हैं, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि एक तरफ राजभर बसपा के साथ जाने की बात कह रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपा भी उन पर मेहरबान है। इस बीच बसपा सुप्रीमो मायावती ने राजभर को गोलमोल शब्दों में मौका परस्त बताकर उनकी बसपा में इंट्री पर बैन लगा दिया है।
अखिलेश-राजभर विवाद में बीजेपी भी आग में घी डालने का काम कर रही है। ओम प्रकाश राजभर को राज्य सरकार ने वाई श्रेणी की सुरक्षा दी है। जिसके बाद चर्चा चल पड़ी कि राजभर एक बार फिर से योगी सरकार में शामिल हो सकते हैं। इसके पीछे राष्ट्रपति चुनावों में राजभर का राजग उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देना भी बताया जा रहा है। कहा गया कि उनके और बीजेपी के रिश्ते फिर से ठीक हो रहे हैं। वैसे वाई श्रेणी की सुरक्षा मिलने पर ओम प्रकाश राजभर का कहना है कि उन पर पहले भी हमला हो चुका है। फिर से हमला हो सकता है। ऐसे में उनके द्वारा सरकार से सुरक्षा मांगी गई थी जो अब मिल गई है। राजभऱ ने योगी सरकार या भाजपा से नजदीकियों पर कहा कि अभी हमारा गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ है। वहां से गठबंधन टूटेगा तभी किसी से बातचीत होगी। कौन गठबंधन तोड़ेगा? इस सवाल पर राजभर कहते हैं कि अखिलेश यादव ही तोड़ेंगे। वहां से तलाक-तलाक-तलाक कहा जाएगा और हम कबूल है-कुबूल है कहेंगे।
सपा से अलग होने के बाद राजभर आगे की रणनीति के बारे में बताते हुए कहते हैं कि वे सपा से गठबंधन टूटने के बाद मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन करना चाहेंगे। अगर बसपा से बात नहीं बनेगी तो किसी और से बात की जाएगी। उन्होंने कहा कि अभी तो लोकसभा चुनाव से पहले कई दल सामने आएंगे। जिसके साथ हमारी बात बनेगी, उसके साथ गठबंधन किया जायेगा। फ़िलहाल भाजपा से ऑल इज वेल नहीं है।
सुभासपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर को वाई श्रेणी की सुरक्षा प्रदान मिलने पर पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉक्टर ओम प्रकाश पांडेय ने बताया कि खुद ओम प्रकाश राजभर ने योगी सरकार से सुरक्षा की मांग की थी। गाजीपुर में हुए बवाल के बाद ही ओपी राजभर ने राज्य सरकार से सुरक्षा की मांग की थी। इतना ही नहीं, कई महीनों से लगातार ओम प्रकाश राजभर पर हमले का प्रयास हो रहा था। इस वजह से योगी सरकार ने उन्हें सुरक्षा दी है।
बहरहाल, राजभर की भविष्य की राजनीति को लेकर राजनीति का कोई भी जानकार दावे के साथ कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। इसकी वजह भी है एक तरफ राजभर भाजपा के करीब लग रहे हैं तो बसपा के साथ जाने की बात भी कहने से संकोच नहीं कर रहे हैं। वहीं शिवपाल यादव की भाजपा से जो नजदीकी दिख रही थी, वह अतीत की बात हो चुकी है। फिलहाल शिवपाल अपनी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को ही मजबूत करने की बात कर रहे हैं, लेकिन आम चुनाव के आते-आते वह भी छोटे-छोटे दलों को एक बार फिर से एक छतरी के नीचे लाने की कोशिश कर सकते हैं, जो विधान सभा चुनाव के समय परवान नहीं चढ़ पाई थी।
-अजय कुमार