हिंदी के लिए तो एक पूरा युगे थे स्वर्गीय कुँवर नारायण

By संजय तिवारी | Nov 16, 2017

कुंवर नारायण नहीं रहे। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कवि कुंवर नारायण का 90 साल की उम्र में बुधवार को निधन हो गया। मूलरूप से फैजाबाद के रहने वाले कुंवर तकरीबन 51 साल से साहित्य में सक्रिय थे। हिंदी के लिए तो वह एक पूरा युग थे। वह अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कुंवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए, वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच में भी अहम योगदान दिया। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है।

2005 में कुंवर नारायण को साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वह वर्तमान में दिल्ली के सीआर पार्क इलाके में पत्नी और बेटे के साथ रहते थे। उनकी पहली किताब 'चक्रव्यूह' साल 1956 में आई थी। साल 1995 में उन्हें साहित्य अकादमी और साल 2009 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान भी मिला था। वह आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव और सत्यजीत रे से काफी प्रभावित रहे। कुंवर नारायण की सबसे बड़ी ताकत यह थी कि वह इतिहास और मिथक के जरिये वर्त्तमान को देखने में दिलचस्पी लिया करते थे। यह उनकी सबसे बड़ी ताकत भी थी और विशेषता भी। 

 

कुंवर जी की प्रतिष्ठा और आदर हिन्दी साहित्य की भयानक गुटबाजी के परे सर्वमान्य है। उनकी ख्याति सिर्फ़ एक लेखक की तरह ही नहीं, बल्कि कला की अनेक विधाओं में गहरी रुचि रखने वाले रसिक विचारक के समान भी है। कुंवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के माध्यम से वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं है। फ़िल्म समीक्षा तथा अन्य कलाओं पर भी उनके लेख नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। आपने अनेक अन्य भाषाओं के कवियों का हिन्दी में अनुवाद किया है और उनकी स्वयं की कविताओं और कहानियों के कई अनुवाद विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में छपे हैं। 'आत्मजयी' का 1989 में इतालवी अनुवाद रोम से प्रकाशित हो चुका है। 'युगचेतना' और 'नया प्रतीक' तथा 'छायानट' के संपादक-मण्डल में भी कुंवर नारायण रहे हैं।

 

19 सितम्बर, 1927 ई. को कुंवर नारायण का जन्म उत्तर प्रदेश के फैजाबाद ज़िले में हुआ था। कुंवर जी ने अपनी इंटर तक की शिक्षा विज्ञान वर्ग के अभ्यर्थी के रूप में प्राप्त की थी, किंतु साहित्य में रुचि होने के कारण वे आगे साहित्य के विद्यार्थी बन गये थे। उन्होंने 'लखनऊ विश्वविद्यालय' से 1951 में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। 1973 से 1979 तक वे 'संगीत नाटक अकादमी' के उप-पीठाध्यक्ष भी रहे। कुंवर जी ने 1975 से 1978 तक अज्ञेय द्वारा सम्पादित मासिक पत्रिका में सम्पादक मंडल के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।

 

कुंवर नारायण की माता, चाचा और फिर बहन की असमय ही टी.बी. की बीमारी से मृत्यु हो गई थी। बीमारी से उनकी बहन बृजरानी की मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ही मृत्यु हुई थी। इससे उन्हें बड़ा कष्ट और दु:ख पहुँचा था। कुंवर नारायण के अनुसार- मृत्यु का यह साक्षात्कार व्यक्तिगत स्तर पर तो था ही सामूहिक स्तर पर भी था। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद सन् 1955 में मैं पौलेंड गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी गए थे मेरे साथ। वहाँ मैंने युद्ध के विध्वंस को देखा। तब मैं सत्ताइस साल का था। इसीलिए मैं अपने लेखन में जिजीविषा की तलाश करता हूँ। मनुष्य की जो जिजीविषा है, जो जीवन है, वह बहुत बड़ा यथार्थ है।

 

कुंवर नारायण उस दौर के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी काव्ययात्रा 'चक्रव्यूह' से शुरू हुई थी। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता ही रही है, किंतु इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी अपनी लेखनी चलायी। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज ही संप्रेषणीयता आई, वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं और कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। 'तनाव' पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया। उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या हम सबके सामने आई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात् मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।

 

वाजश्रवा के बहाने कुँवर नारायण ने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की। नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुँवर नारायणजी की जो कृति 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस कृति की विरल विशेषता यह है कि 'अमूर्त' को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने' कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है।

 

वह कहा करते थे- 'मैं जब उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादेमी का उपाध्यक्ष बना तो मुझे संगीतकारों के संपर्क में और निकट आने का अवसर मिला। संगीत से पुराना नाता रहा है मेरा। मैं फैयाज खाँ, ओंकारनाथ ठाकुर, अच्छन महाराज, शंभु महाराज आदि से अक्सर मिलता-जुलता था। उनके सान्निध्य ने मेरी साहित्यिक संस्कृति को कई स्तरों पर प्रभावित किया। फ़िल्म फेस्टिवल पर भी लिखता रहा हूँ। विष्णु खरे, विनोद भारद्वाज और प्रयाग शुक्ल के साथ मिलकर हमने सोचा कि हिंदी में फ़िल्म समीक्षा उपेक्षित है। दरअसल बचपन से ही मुझे सिनेमा देखने का शौक़ था। हजरतगंज (लखनऊ) में तीन सिनेमा हॉल थे जिनमें रोज शाम को सिनेमा देखता था। ये सन् 40, 50 और 60 की बात है।'

 

साहित्य अकादमी द्वारा कुंवर नारायण को महत्तर सदस्यता 20 दिसंबर 2010 को नई दिल्ली में प्रदान की गयी। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर और वर्ष 2009 में 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कुंवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित 'तीसरा सप्तक' के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कुंवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है।

 

फिल्म और कविता

 

फ़िल्मों में कुँवर जी की दिलचस्पी की एक ख़ास वजह है। दरअसल कुंवर नारायण को फ़िल्म माध्यम और कविता में काफ़ी समानता दिखती है। उन्होंने स्वयं लिखा है- 'जिस तरह फ़िल्मों में रशेज इकट्ठा किए जाते हैं और बाद में उन्हें संपादित किया जाता है उसी तरह कविता रची जाती है। फ़िल्म की रचना-प्रक्रिया और कविता की रचना-प्रक्रिया में साम्य है। आर्सन वेल्स ने भी कहा है कि कविता फ़िल्म की तरह है। मैं कविता कभी भी एक नैरेटिव की तरह नहीं बल्कि टुकड़ों में लिखता हूँ। ग्रीस के मशहूर फ़िल्मकार लुई माल सड़क पर घूमकर पहले शूटिंग करते थे और उसके बाद कथानक बनाते थे। क्रिस्तॉफ क्लिस्वोव्स्की, इग्मार बर्गमैन, तारकोव्स्की, आंद्रेई वाज्दा आदि मेरे प्रिय फ़िल्मकार हैं। इनमें से तारकोव्स्की को मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ। उसको मैं फ़िल्मों का कवि मानता हूँ। हम शब्द इस्तेमाल करते हैं, वो बिम्ब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन दोनों रचना करते हैं। कला, फ़िल्म, संगीत ये सभी मिलकर एक संस्कृति, मानव संस्कृति की रचना करती है लेकिन हरेक की अपनी जगह है, जहाँ से वह दूसरी कलाओं से संवाद स्थापित करे। साहित्य का भी अपना एक कोना है, जहाँ उसकी पहचान सुदृढ़ रहनी चाहिए। उसे जब दूसरी कलाओं या राजनीति में हम मिला देते हैं तो हम उसके साथ न्याय नहीं करते। आप समझ रहे हैं न मेरी बात?

 

कुंवर नारायण की प्रमुख कृतियाँ 

 

चक्रव्यूह- 1956

तीसरा सप्तक- 1959

परिवेश: हम-तुम- 1961

आत्मजयी/प्रबन्ध काव्य- 1965

आकारों के आसपास- 1971

अपने सामने- 1979

वाजश्रवा के बहाने

कोई दूसरा नहीं

इन दिनों

 

मानवीय सम्बन्धो की नयी व्याख्या 

 

इनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या सबके सामने आई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया। इस कृति की विरल विशेषता यह है कि 'अमूर्त' को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर 'आत्मजयी' में कुंवर नारायण ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने' कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है। उन्हें पढ़ते हुए, ये लगता है कि कुंवर नारायण हिन्दी की कविता के पिछले 55 वर्ष के इतिहास के संभवतः श्रेष्ठतम कवि हैं।

 

पुरस्कार व सम्मान

 

कुंवर नारायण को 2009 में वर्ष 2005 के 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। कुंवर जी को 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'व्यास सम्मान', 'कुमार आशान पुरस्कार', 'प्रेमचंद पुरस्कार', 'राष्ट्रीय कबीर सम्मान', 'शलाका सम्मान', 'मेडल ऑफ़ वॉरसा यूनिवर्सिटी', पोलैंड और रोम के 'अन्तर्राष्ट्रीय प्रीमियो फ़ेरेनिया सम्मान' और 2009 में 'पद्मभूषण' से भी सम्मानित किया जा चुका है। युग के बड़े रचनाकार को हार्दिक श्रद्धांजलि उन्हीं के शब्दों में-

 

अबकी बार लौटा तो 

बृहत्तर लौटूंगा 

चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं 

कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं 

जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को 

तरेर कर न देखूंगा उन्हें 

भूखी शेर-आँखों से 

 

अबकी बार लौटा तो 

मनुष्यतर लौटूंगा 

घर से निकलते 

सड़कों पर चलते 

बसों पर चढ़ते 

ट्रेनें पकड़ते 

जगह बेजगह कुचला पड़ा 

पिद्दी-सा जानवर नहीं 

 

अगर बचा रहा तो 

कृतज्ञतर लौटूंगा 

 

अबकी बार लौटा तो 

हताहत नहीं 

सबके हिताहित को सोचता 

पूर्णतर लौटूंगा 

 

आप पूर्णतर होकर जरूर लौट आइये कुंवर। पीढ़ियां प्रतीक्षा करेंगी।

 

- संजय तिवारी

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