19वीं सदी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई 21वीं सदी में भी इसलिए हैं सभी के लिए प्रेरणास्रोत

By डॉ. नीलम महेंद्र | Jun 18, 2020

आसान नहीं होता एक महिला होने के बावजूद पुरूष प्रधान समाज में विद्रोही बनकर अमर हो जाना। आसान नहीं होता एक महिला के लिए एक साम्राज्य के खिलाफ खड़ा हो जाना। आज हम जिस रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित कर रहे हैं वो उस वीरता शौर्य साहस और पराक्रम का नाम है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में वो मुकाम हासिल किया जिसकी मिसाल आज भी दुर्लभ है। ऐसे तो बहुत लोग होते हैं जिनके जीवन को या फिर जिनकी उपलब्धियों को उनके जीवन काल के बाद सम्मान मिलता है लेकिन अपने जीवन काल में ही अपने चाहने वाले ही नहीं बल्कि अपने विरोधियों के दिल में भी एक सम्मानित जगह बनाने वाली विभूतियां बहुत कम होती हैं। 


रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही एक शख्सियत थीं जिन्होंने ना सिर्फ अपने जीवन काल में लोगों को प्रेरित किया बल्कि आज तक वो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। एक महिला जो मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का जज्बा रखती हो वो निःसंदेह हर मानव के लिए प्रेरणास्रोत रहेगी। वो भी उस समय जब 1857 की क्रांति से घायल अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे और बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में एक महिला की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई की इस दहाड़ की गूंज झांसी तक सीमित नहीं रही, वो पूरे देश में ना सिर्फ सुनाई दी बल्कि उस दहाड़ ने देश के बच्चे-बच्चे को हिम्मत से भर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे देश भर के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले विद्रोह सामने आने लगे। दरअसल झाँसी के लिए, अपनी भूमि की स्वतंत्रता के लिए, अपनी प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के दिल में जो आग धधक रही थी वो 1858 में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर पूरे भारत में फैला दी। उन्होंने अपनी स्वयं की आहुति से उस यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित कर दिया था जिसकी पूर्ण आहुति 15 अगस्त 1947 को डली। हालांकि 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई अकेले होने के कारण अपनी झाँसी नहीं बचा पाईं लेकिन देश को बचाने की बुनियाद खड़ी कर गईं एक मार्ग दिखा गईं। निडरता का पाठ पढ़ा गईं, अमरत्व की राह दिखा गईं। उनके साहस और पराक्रम का अंदाजा जनरल ह्यूरोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आज़ादी की दीवानी हो गईं तो हम सब को यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा। कल्पना कीजिए एक महिला की जिसकी पीठ पर नन्हा बालक हो उसके मुँह में घोड़े की लगाम हो और उसके दोनों हाथों में तलवार!! 

 

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शायद हाँ, हमारे लिए यह कल्पना करना इतना मुश्किल भी नहीं है क्योंकि हमने उनकी मूर्तियाँ देखीं हैं उनकी ऐसी तस्वीरें देखी हैं लेकिन ये औरत कोई मूर्ति नही है, कोई तस्वीर नहीं है किसी वीर रस के कवि की कल्पना भी नहीं है, यह हकीकत है। शायद इसलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी हाँ वो अमर है और सदियों तक रहेगी। जानते हैं क्यों? क्योंकि वो केवल इस देश के लोगों के दिलों में ही जिंदा नहीं है, वो आज भी जिंदा है अपने दुश्मनों के दिल में, अपने विरोधियों के दिलों में, उन अंग्रेजों के दिलोदिमाग में जिनसे उन्होंने लोहा लिया था। हाँ, यह सच है कि अंग्रेज रानी लक्ष्मीबाई से जीत गए थे लेकिन वो जानते थे कि वो इस लड़ाई को जीत कर भी हार गए थे। वो एक महिला के उस पराक्रम से हार गए थे जो एक ऐसे युद्ध का नेतृत्व निडरता से कर रही थी जिसका परिणाम वो जानती थी। वो एक महिला के उस जज्बे से हार गए थे जो अपने दूध पीते बच्चे को कंधे पर लादकर रणभूमि का बिगुल बजाने का साहस रखती थी। शायद इसलिए वो उनका सम्मान भी करते थे। उस दौर के कई ब्रिटिश अफसर बेहिचक स्वीकार करते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई बहादुरी बुद्धि दृढ़ निश्चय और प्रशासनिक क्षमता का दुर्लभ मेल हैं और उन्हें अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानते थे। जिस शख्सियत की तारीफ करने के लिए शत्रु भी मजबूर हो जाए तो किरदार का अंदाज़ा खुद ब खुद लगाया जा सकता है। 

 

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आज जब 21वीं सदी में हम 19वीं सदी की एक महिला की बात कर रहे हैं उन्हें याद कर रहे हैं उनके बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं तो मेरा मानना है कि यह सिर्फ एक रस्म अदायगी नहीं होनी चाहिए। केवल एक कार्यक्रम नहीं होना चाहिए बल्कि एक अवसर होना चाहिए। ऐसा अवसर जिससे हम कुछ सीख सकें। कुछ बातें जिनकी प्रेरणा हम रानी लक्ष्मीबाई के जीवन से ले सकते हैं-


1. हर कीमत पर आत्मसम्मान स्वाभिमान की रक्षा। जब आपके पास दो विकल्प हो आत्मसमर्पण या लड़ाई सरल शब्दों में कहें तो जीवन या स्वाभिमान में से चुनना तो उन्होंने स्वाभिमान को चुना।


2. ''आत्मविश्वास” अंग्रेजों के मुकाबले संसाधनों और सैनिकों की कमी ने उनके हौसले को डिगाने के बजाए और मजबूत कर दिया और वो दहाड़ पाईं कि जीते जी अपनी झाँसी नहीं दूंगी।


3. “लक्ष्य के प्रति दृढ़” अपनी झाँसी को बचाना ही उनका लक्ष्य था जिसके लिए वो अपनी जान देकर अमर हो गईं।


4. “अपने अधिकारों के लिए लड़ना” मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने राज्य की रक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से विद्रोह हमें सिखाता है कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है।


5. ''अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना” उन्होंने अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर न्याय के लिए लड़कर गीता का ज्ञान चरितार्थ करकर दिखाया।


6. और अंत में जो सबसे महत्वपूर्ण और व्यवहारिक शिक्षा जो उनके जीवन से हमें मिलती है वो ये कि, शस्त्र और शास्त्र विद्या, तार्किक बुद्धि, युद्ध कौशल और ज्ञान किसी औपचारिक शिक्षा की मोहताज नहीं है। रानी लक्ष्मीबाई ने कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी लेकिन उनकी युद्ध क्षमता ने ब्रिटिश साम्राज्य को भी अचंभे में डाल दिया था।


शायद इसलिए वो आज भी हमारे बीच जीवित हैं फिल्मों में, टीवी सीरियल में, किस्सों में कहानियों में, लोक गीतों में, कविताओं में उनके नाम पर यूनिवर्सिटी का नामकरण करके उनके पुतले बनाकर। लेकिन इतना काफी नहीं है प्रयास कीजिए उनका थोड़ा-सा अंश हमारे भीतर भी जीवित हो उठे।


-डॉ. नीलम महेंद्र

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


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