लद्दाख की धरती पर गर्मियों में लगने वाले इस ''कुम्भ'' की छटा देखते ही बनती है

By सुरेश एस डुग्गर | Jul 18, 2019

अपने उत्सवों के लिए प्रसिद्ध बर्फीले रेगिस्तान अर्थात् लद्दाख में वर्षभर में कितने उत्सव मनाए जाते हैं गिनती असंभव है क्योंकि बेशुमार गौम्पाओं (बौद्ध मंदिरों) के अपने-अपने उत्सव होते हैं जिन्हें उस क्षेत्र के लोग सदियों से मनाते आ रहे हैं। लेकिन इन सबमें विश्व प्रसिद्ध उत्सव ‘हेमिस उत्सव’ होता है जो चन्द्र वर्ष अर्थात् भोट पंचाङ के अनुसार पांचवें महीने में मनाया जाता है।

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इस उत्सव का अधिक महत्व इसलिए भी होता है क्योंकि लद्दाख की धरती पर जितने भी उत्सव होते हैं वे सर्दियों में संपन्न होते हैं जब वहां पर तापमान शून्य से भी कई डिग्री नीचे होता है और लोग खुले दिल से उसमें भाग नहीं ले पाते हैं जबकि ‘हेमिस उत्सव’ ही एकमात्र ऐसा उत्सव है जो गर्मियों में मनाया जाता है। चन्द्र भूमि लद्दाख में इस बार यह उत्सव 11 जुलाई को मनाया गया। प्रत्येक वर्ष की भांति इस बार भी उत्सव में शामिल होने के लिए देश-विदेश से हजारों पर्यटकों ने भाग लिया है। लेकिन उत्सव के प्रत्येक बारह वर्षों के उपरांत जब भोट पंचाङ के अनुसार बंदर वर्ष आता है तो चार मंजिला ऊंची गुरु पद्भसंभवा की खूबसूरत मूर्ति अर्थात् थंका (सिल्क के कपड़े पर बनाई गई तस्वीरों को थंका कहा जाता है) प्रदर्शित की जाती है।

उस वर्ष होने वाले उत्सव को ‘लद्दाख का कुम्भ’ भी कहा जाता है क्योंकि गुरु पद्भसंभवा के थंका को देखने के लिए दो लाख से अधिक व्यक्ति आते हैं। सिर्फ भारत वर्ष से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लोग इस मूर्ति के दर्शानार्थ आते हैं।

 

हेमिस गोम्पा

 

लेह से करीब 48 किमी की दूरी पर पूर्व-दक्षिण में सिंधु नदी के किनारे स्थित हेमिस गोम्पा अपनी कला तथा आकर्षण के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है क्योंकि यहीं पर बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध तथा पुराने भवन हैं। लद्दाख में एकमात्र हेमिस गोम्पा ही सबसे अधिक पुराना भवन है जो अपनी संस्कृति तथा कला की खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है। इस गोम्पा में रखी गई मूर्तियों पर सोने की कढ़ाई की गई है और बेशकीमती पत्थर भी जड़े गए हैं। अति मूल्यवान चित्रों तथा अभिलेखों से यह गोम्पा सुसज्जित है।

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इसी हेमिस गोम्पा का वार्षिक उत्सव चन्द्र वर्ष के पांचवें महीने में मनाया जाता है। हालांकि इसकी कोई तारीख निश्चित नहीं है और तिब्बत के कैलेण्डर के अनुसार पांचवें महीने में पूर्ण चंद्रमा दिखने के दिन से यह उत्सव आरंभ होता है जो तीन दिनों तक चलता है।

 

हेमिस गोम्पा में इस उत्सव के दौरान एक रहस्यमय खेल, जिसे मुखौटा नाच के नाम से भी जाना जाता है, खेला जाता है। वैसे इसे हेमिस छेसचू भी कहा जाता है। इस नृत्य रूपी खेल में भाग लेने वाले संगीतकार आदि सभी लामा ही होते हैं, जो 15-15 फुट लंबे ढोलों व तुराहियों को बजाते हैं। यह खेल हेमिस गोम्पा के बरामदे में ही खेला जाता है जिसे देश विदेश से हजारों लोग उत्सुकता से देखने के लिए आते हैं और इस बार भी हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया।

 

मुखौटा नाच

 

इस बार भी अन्य वर्षों की ही तरह हेमिस उत्सव का मुख्य तथा महत्वपूर्ण आकर्षण मुखौटा नाच ही था जिसको ‘शुद्धता का नाच’ के नाम से भी जाना जाता है। वैसे यह रहस्यमय खेल कब से आरंभ हुआ है लद्दाख में, कोई निश्चित जानकारी लद्दाख के लामा और उस पर लिखी गई किताबें नहीं दे पाती हैं। मगर एक किवंदती के अनुसार इसकी शुरूआत राजा शुशोक के लद्दाख की गद्दी संभालने के साथ ही हुई थी।

मुखौटा नाच में भाग लेने वाले नर्तक काली टोपी पहने हुए और हाथों में ‘शुक्पा’ नामक पेड़ की टहनी लिए हुए थे, जिसे वे ‘पवित्र’ पेड़ भी मानते हैं। जैसे ही उनके द्वारा नाच प्रारंभ किया गया लामा अपने साथ लाए बर्तनों में से ‘पवित्र’ जल छिड़क कर पहले भूमि को पवित्र करने की प्रक्रिया पूरी करने में जुट गए।

नाच का नाम है मुखौटा तो सभी के चेहरों पर मुखौटे ही थे। यह बात अलग है कि आधे नाचने वालों ने जानवरों की सूरत के मुखौटे तथा कुछेक ने अन्य किस्म के मुखौटे पहन रखे थे। इन मुखौटाधारियों की संख्या ‘पवित्र’ पानी छिड़कने की प्रक्रिया के बाद और बढ़ गई।

 

हेमिस गोम्पा के बरामदे में मुखौटा पहन नाच करने वाले मुखौटाधारी लामा घड़ियों की सुईयों के अनुरूप नृत्य करते हुए अंत में जोड़ों में परिदृश्य में चले जाते थे। यह नृत्य भी लद्दाख के अन्य पारंपारिक नृत्यों की ही तरह बहुत ही धीमा नृत्य है। वैसे भी लद्दाख के अन्य सभी नृत्य भी धीमी गति के साथ ही होते हैं।

 

इन मुखौटाधारी लामाओं द्वारा थोड़ी देर घड़ियों की सुइयों के अनुरूप नाच करने के बाद जब वे परिदृश्य में चले जाते हैं तो थोड़ी देर के ही बाद ‘भगवान’ बुद्ध बने एक व्यक्ति का बरामदे में प्रवेश हुआ। इसके साथ नौ अन्य व्यक्ति भी थे। इन सभी ने भड़कीले वस्त्र पहने हुए थे और आते ही उन्होंने शिष्टाचार का दिखावा किया। बरामदे का चक्कर लगाने के बाद इन सभी ने पहले से ही बैठे हुए संगीतकारों के दाहिने का स्थान ग्रहण कर लिया। जहां बुद्ध बना व्यक्ति बीच में था और ये सभी उसके ईर्द-गिर्द। अभी ये सभी बैठे ही थे कि परिदृश्य में चले जाने वाले मुखौटाधारी लामा वापस लौट आए और और उन्होंने इन सभी को प्रणाम किया।

 

इस प्रणाम करने के साथ ही सही रूप से मुखौटा नाच आंरभ हो गया। एक के बाद एक दल जिनमें तीन-चार व्यक्ति थे बरामदे में आ गए और नाचने के उपरांत वे वापस लौट गए। प्रत्येक नर्तक दल के साथ एक एक ढोल भी था जिसे प्रवेश के दौरान अधिक जोर से बजाया जाता था और लौटते समय उसका स्वर धीमा होता चला जाता था।

 

अभी इन मुखौटाधारियों का नृत्य चल ही रहा होता है तो तभी ‘नरक का देवता’ अपने साथियों सहित, जिनके चेहरों पर कुत्तों जैसे मुखोटे थे, प्रवेश करता है। इसके उपरांत कुछ देर बाद ‘नरक के वासियों’ पर ‘स्वर्ग के वासियों’ की विजय होती है। हालांकि हेमिस उत्सव में होने वाले नृत्यों का संदेश भी बुराई पर अच्छाई की विजय ही होता है।

 

इस विजय के बाद हेमिस गोम्पा की छत पर दो लबादाधारी आकृतियां दिखाई देती हैं जिनका शरीर पूरी तरह से लाल रंग से रंगा होता है। वे लद्दाखी भाषा में चिल्लाते हैं जो दर्शकों के लिए संकेत होता है कि दोपहर के खाने के लिए बरामदे को खाली किया जाए।

 

खाना खाने के बाद पुनः वही आकृतियां एकत्र होने का इशारा करती हैं। फिर मुखौटा नाच आरंभ होता है। प्रत्येक वर्ष यह आवश्यक नहीं है कि एक ही नृत्य बार-बार दिखलाया जाए बल्कि हर बार कुछ न कुछ नया अवश्य होता है। कभी आदमी मंगोल वेशभूषा में लम्बी तलवारों के साथ आते हैं तो कभी दो लामा एक फुट लंबी मूर्ति, जो तिब्बत के राजा की प्रतीक होती है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह बौद्ध धर्म का विरोधी था, को साथ लेकर नृत्य करते हैं।

 

इस तरह से दिन भर विभिन्न प्रकार के मुखौटा नाच हेमिस गोम्पा के बरामदे में लगातार तीन दिनों तक चलते रहते हैं लेकिन सभी नृत्यों का एक ही संदेश होता है: ‘बुराई पर अच्छाई की विजय।’ प्रत्येक दिन, लगातार तीन दिनों तक जब तक ये उत्सव चलता रहता है, दोपहर बाद फिर बरामदे में पशुओं को लाया जाता है जिनमें याक, खच्चर तथा कुत्ते भी शामिल होते हैं। पहले उन्हें धूप दिखलाई जाती है और फिर जल छिड़का जाता है। इस प्रक्रिया के उपरांत उन पर लाल रंग लगा कर गोम्पा के तीन चक्कर लगाए जाते हैं। इस प्रक्रिया के पीछे यह धारणा है कि ऐसा करने से आदमी बुराई पर विजय पाने में दृढ़ होता जाता है। इस प्रक्रिया के उपरांत सारे दिन के खेल समाप्त हो जाते हैं और अगले दिन की तैयारी आरंभ कर दी जाती है।

 

-सुरेश एस डुग्गर

 

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