यों तो श्रम दिवस के नाम पर एक दिन का सवैतनिक अवकाश और कहने को कार्यशालाएं, गोष्ठियों व अन्य आयोजनों की औपचारिकताएं पूरी कर ली जाती हैं पर आज असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की समस्याओं को लेकर कोई गंभीर नहीं दिखाई देता। अंतरराष्ट्रीय मई दिवस की शुरुआत 1886 में शिकागो में हुई वहीं हमारे देश में 1923 में पहली बार मई दिवस मनाया गया। दुनिया के 80 देशों में इस अवसर पर सवैतनिक अवकाश रहता है।
एक समय था जब मजदूर आंदोलन पीक पर था पर उदारीकरण के दौर व रूस में साम्यवाद के पतन के बाद से स्थितियों में तेजी से बदलाव आया। आज मजदूर आंदोलन लगभग दम तोड़ता जा रहा है। इसके कई कारण रहे हैं। श्रमिकों नेताओं ने समय रहते सोच में बदलाव लाने पर जोर नहीं दिया और इसका प्रभाव मजदूर आंदोलनों को पीछे धकेलने के रूप में सामने आया। एक सोच यह भी विकसित हुई कि मजदूर आंदोलन तेजी से होने वाले औद्योगिक विकास में रुकावट डाल रहा है और उसके परिणाम स्वरूप श्रमिक आंदोलन की धार धीरे धीरे कुंद पड़ने लगी। मजदूरों का भी आंदोलनों से मोहभंग होने लगा। हालांकि संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हालातों में काफी सुधार हुआ है और सामाजिक सुरक्षा में इजाफा होने से संगठित क्षेत्र के श्रमिक अब सुकूनभरी जिंदगी जीने लगे हैं। यही कारण है कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती मंहगाई से सबसे अधिक प्रभावित असंगठित क्षेत्र के कामगार ही होते हैं। जहां तक कर्मचारियों का प्रश्न है उनको मंहगाई भत्ते के माध्यम से थोड़ी बहुत भरपाई हो जाती है वहीं संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को भी कुछ राहत मिल ही जाती है। ले देकर असंगठित क्षेत्र के कामगारों के सामने दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल भरा काम होता जा रहा है। असंगठित क्षेत्र में भी खास तौर से दुकानों, ठेलों, खोमचों, चाय की स्टॉलों, होटलों−ढाबों पर काम करने वाले आदमियों की मुश्किलें अधिक हैं। इसके अलावा रिक्शा-टैक्सी चलाने वाले, माल−ढोने वाले, कारीगर, पलम्बर, सेनेटरी का काम करने वाले, बिजली सुधारने वाले, परिवार पालने के लिए रेहडी या साइकिल आदि से सामान बेचने वाले और ना जाने कितनी ही तरह के असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की समस्याओं का अंत नहीं है। रोजमर्रा के काम करने वाले लोगों की समस्याएं अधिक हैं। कल कारखानों में भी ठेके पर श्रमिक रखने की परंपरा बनती जा रही है और तो और अब तो सरकार भी अनुबंध पर रखकर एक नया वर्ग तैयार कर रही है। शहरीकरण, गांवों में खेती में आधुनिक साधनों के उपयोग व परंपरागत व्यवसाय में समयानुकूल बदलाव नहीं होने से भी गांवों से पलायन होता जा रहा है। हालांकि सरकार असंगठित क्षेत्र के कामगारों को भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठा रही है पर अभी इसे नाकाफी ही माना जाएगा।
एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में केवल 10 प्रतिशत श्रमिक ही संगठित क्षेत्र में हैं। 90 फीसदी कामगार असंगठित क्षेत्र में हैं। जानकारों के अनुसार असंगठित क्षेत्र के कामगारों में भी 60 प्रतिशत कामगारों की स्थिति बेहद चिंताजनक मानी जाती है। करीब 50 फीसदी श्रमिक केजुअल वेज पर काम कर रहे हैं वहीं केवल 16 प्रतिशत मजदूर ही नियमित रोजगार से जुड़े हुए हैं। खेती में आधुनिकीकरण के चलते मानव श्रम की कम आवश्यकता के कारण कोई 36 फीसदी लोगों ने खेती पर निर्भरता छोड़ अन्य कार्यों को अपनाया है। गृह उद्योगों का जिस तरह से विस्तार होना चाहिए था वह अपेक्षाकृत नहीं हो पा रहा है। इसके चलते सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है। हालांकि महात्मा गांधी रोजगार गारन्टी योजना मनरेगा में निश्चित रोजगार की बात की जा रही है पर इसमें भी रोजगार के क्षेत्र में विषमता पनपी है और धीरे धीरे यह भी भ्रष्टाचार और आलस्य को बढ़ावा देने वाला बनता जा रहा है।
देश के आर्थिक विकास में असंगठित श्रमिकों की भागीदारी को नकारा नहीं जा सकता। सरकार द्वारा समय समय पर इनके लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों की घोषणा भी की जाती रही है। पर इसका पूरा लाभ असंगठित श्रमिकों को प्राप्त नहीं हो पाता है। असंगठित श्रमिकों के कौशल को विकसित करने के लिए नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था, कच्चे माल की उपलब्धता, बीमा−स्वास्थ्य जैसी सुरक्षा और विपणन सहयोग के माध्यम से असंगठित क्षेत्र के बहुत बड़े वर्ग को लाभान्वित किया जा सकता है। हालांकि सरकार द्वारा अफोर्डेबल आवास योजना व अन्य योजनाएं संचालित की जा रही हैं। यदि थोड़े से प्रयासों को गति दी जाती है तो असंगठित क्षेत्र के कामगारों के हितों की भी रक्षा हो सकती है और उन्हें सामाजिक सुरक्षा कवच देकर अच्छा जीवन यापन की सुविधा दी जा सकती है। इससे देश में लघु उद्योग, सेवा क्षेत्र, हस्तशिल्प, परपंरागत रोजगार, दस्तकारी आदि को बढ़ावा मिल सकता है। समाज में संगठित और असंगठित क्षेत्र के बीच बढ़ रही खाई को पाटने में सहायता मिल सकती है।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा