प्रदर्शन एक कला है। स्वयं को क्रांतिवीर कहने वाला हर युवा प्रदर्शन कला में दक्ष हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। टायर जलाना, बस फूंकना, गाड़ियां रोकना, आँसू गैस के गोले फेंके जाने पर साँस रोककर खड़े रहना और वाटर केनन के आगे सीना तानकर खड़े होने में साहस के साथ दक्षता यानी एक्सपर्टीज की भी आवश्यकता होती है। पहली पहली बार प्रदर्शन कर रहा व्यक्ति इतना योग्य नहीं होता कि पुलिस से सीधे पंगा ले सके। फिर, टेलीविजन चैनल के कैमरों के सामने आते ही किस तरह किस मुद्रा में कितने डेसिबल में नारे लगाने हैं, ये सिर्फ एक्सपर्ट प्रदर्शनकारी ही जानता है। समाचार चैनलों का प्रदर्शन की गंभीरता और सफलता को नापने का अपना अलग सिस्टम है। इस सिस्टम को हर प्रदर्शनकारी नहीं समझता। और वो प्रदर्शन ही क्या, जो न्यूज चैनलों पर दिन-रात दिखाया ना जाए?
दिल्ली की धरा इन दिनों ऐसे ही प्रदर्शनकारियों से पटी पड़ी है। कई युवा क्रांतिवीर इसी मूड में हैं कि भरी ठंड को प्रदर्शन के बूते काटा जाए। ठंड में लगातार नारे लगाने से बदन में गर्मी पैदा होती है। इसके अलावा कभी पुलिस को दौड़ाने तो कभी पुलिस के दौड़ाने पर खुद दौड़ने से भी शरीर की सारी ठंड काफूर हो जाती है। दिल्ली की सर्दी क्रांतिवीरों को मजबूर कर रही है कि वो प्रदर्शन जारी रखें क्योंकि इस ठंड में बाकी सब ठीक है लेकिन पढ़ाई मुश्किल है।
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युवा क्रांतिवीरों की खास बात यह होती है कि वो किसी भी बात पर प्रदर्शन कर सकते हैं। जैसे, दिल्ली की धरा पर नागरिकता संशोधन बिल को लेकर कर रहे हैं। ये बिल क्या है-ये सही मायने में अभी राजनेता तक नहीं समझ पाए हैं लेकिन युवा क्रांतिवीरों को लगता है कि उन्हें बिल समझ आ गया है। सच कहा जाए तो कोई भी कानून चार छह हफ्ते तो समझ ही नहीं आता। आज आप सर्वे कीजिए और लोगों से पूछिए कि जीएसटी क्या बला है और जीएसटी में किस चीज़ को किस टैक्स कैटेगरी में रखा गया है तो यकीन जानिए 90 फीसदी लोग बता नहीं पाएंगे। लेकिन क्रांतिवीर मानते हैं कि जिस तरह उन्हें रोहित शेट्टी की फिल्म की कहानी समझ आती है, उसी तरह नए कानून भी समझ आते हैं।
दिल्ली क्रांतिवीरों के प्रैक्टिकल के लिए मुफीद जमीन है। यहां कई आयामों से प्रदर्शन प्रैक्टिकल किया जा सकता है। क्रांतिवीर संसद का घेराव कर सकते हैं, जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ सकते हैं, पुलिस मुख्यालय के सामने हाय-हाय के नारे लगा सकते हैं, इंडिया गेट पर कैंडल मार्च निकाल सकते हैं या पीएम-सीएम के घर की तरफ 'कुर्सी छोड़ों' के नारे के साथ कूच कर सकते हैं। इसके अलावा अगर क्रांतिवीरों को कोई मुद्दा नहीं मिलता तो दिल्ली खुद उन्हें मुद्दा भी देती है। मसलन-दिवाली के बाद हर साल दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है,तो क्रांतिवीर चाहें तो इस मुद्दे पर हंगामा कर सकते हैं। आँकड़ों के आईने में दिल्ली को रेप कैपिटल के रुप में भी पहचाना जाता है तो क्रांतिवीर लड़कियों की सुरक्षा के लिए प्रदर्शन कर सकते हैं।
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दरअसल, दिल्ली प्रदर्शनकारियों के लिए बेहतरीन शहर है। क्रांतिवीर यहां खूब प्रदर्शन करते भी हैं। लेकिन हर प्रदर्शन एक रस्मअदायगी क्यों साबित होता है, पता नहीं? आखिर, कोई क्यों प्रदर्शन अपने अंजाम तक नहीं पहुंचता। क्या प्रदर्शन के मकसद में ही खोट होती है या क्रांतिवीर सिर्फ दिखावे के लिए प्रदर्शन करते हैं? ये भी शोध का विषय है, और इसका निष्कर्ष ना निकले तो इस बात पर भी प्रदर्शन किया जा सकता है।
- पीयूष पांडे