नया वर्ष चाहे अंग्रेजी हो या भारतीय; पर उत्सवप्रिय भारतीय उसे जोरशोर से मनाते हैं। लेकिन 2018 का प्रारम्भ एक कटु विवाद के साथ हुआ है। वह है पुणे के पास कोरेगांव में एक युद्ध की 200वीं वर्षगांठ पर हुआ जातीय संघर्ष। एक जनवरी, 1818 के इस युद्ध के बारे में सबका अपना-अपना दृष्टिकोण है; पर यह निश्चित है कि इससे भारत में अंग्रेजों की जड़ें मजबूत हुईं। यद्यपि 1757 में हुए पलासी के युद्ध में जीत से उनका प्रभाव तो बढ़ ही गया था; पर कोरेगांव की यह लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई।
एक समय सिक्खों की तरह मराठे भी भारत की प्रमुख शक्ति थे। 1760-61 में पानीपत की लड़ाई हुई। उसमें अहमद शाह अब्दाली से पराजय के बाद यह शक्ति कमजोर होकर महाराष्ट्र तक ही सिमट गयी। कोरेगांव की लड़ाई भी उन्होंने गिरे हुए मनोबल से लड़ी थी। वहां हुए पराभव से यह शक्ति स्थायी रूप से कुंठित हो गयी और अंग्रेजी राज प्रबल हो गया। इससे मराठों के साथ ही अन्य बड़े राजाओं की हिम्मत भी टूट गयी। फिर उन्होंने अंग्रेजों से सीधा संघर्ष नहीं किया। यद्यपि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से लेकर गढ़मंडल की रानी अवन्तीबाई जैसे अपवाद भी हैं। अधिकांश छोटे राजे, रजवाड़ों और जमीदारों ने भी अंग्रेजों का मुकाबला किया। जनजातीय (वनवासी) समूहों ने भी अपनी सीमित शक्ति और परम्परागत हथियारों के बलपर डटकर मुकाबला किया; पर बड़ों ने एक बार कंधे झुकाये, तो फिर वे झुके ही रहे।
उन दिनों महाराष्ट्र में शिवाजी के वंशज अर्थात क्षत्रिय मराठों का शासन था; पर वास्तविक शक्ति उनके प्रधानमंत्री अर्थात पेशवा के हाथों में थी। ये पेशवा मराठी ब्राह्मणों के चितपावन गोत्र से होते थे। राजकाज का केन्द्र पुणे का शनिवार बाड़ा था। शिवाजी के पौत्र छत्रपति शाहू जी के मन में समाज के दुर्बल और निर्धन वर्ग के प्रति बहुत प्रेम था। उन्होंने ही सबसे पहले अपने राज्य में आरक्षण व्यवस्था लागू की थी। इसलिए इन वर्गों में प्रभाव रखने वाले नेता और दल उन्हें बहुत मानते हैं। मायावती ने उ.प्र. में मुख्यमंत्री बनने पर लखनऊ के ‘किंग जार्ज मैडिकल कॉलिज’ के बाहर शाहू जी की भव्य धातु प्रतिमा लगवाकर उसका नाम ‘छत्रपति शाहू जी महाराज मैडिकल कॉलिज’ कर दिया था।
लेकिन शाहू जी के उत्तराधिकारी इतने उदार नहीं थे। पेशवाओं के मन में भी निर्धन वर्ग के प्रति कोई प्रेम और सम्मान नहीं था। कहते हैं कि उन्हें अपनी कमर में झाड़ू बांधकर तथा गले में थूक के लिए लोटा लटकाकर चलना पड़ता था। इसलिए वे क्षत्रिय मराठों और ब्राह्मण पेशवाओं से घृणा करने लगे। ये लोग भी शरीर और स्वभाव से वीर थे। शाहू जी के समय तक इन्हें सेना में लिया जाता था; पर फिर यह बंद हो गया।
अब उनके पास न शिक्षा थी, न व्यापार और न ही खेती। अतः उनके सामने खाने-कमाने और अपने परिवार को पालने की बड़ी समस्या आ गयी। अंग्रेजों की नीति सदा ‘बांटों और राज करो’ की रही है। उन्होंने इस मजबूरी का लाभ उठाने के लिए सेना में ‘महार रेजिमेंट’ बना दी। अतः इन वर्गों के युवक फौज में भर्ती होने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों ने इनके मन में शासक वर्ग के प्रति भरी घृणा को एक संगठित रूप दे दिया।
उन दिनों नियमित सेनाएं बहुत कम होती थीं। युद्ध की स्थिति में राजा की ओर से मुनादी होने पर इच्छुक लोग सेना में भर्ती हो जाते थे। पड़ोसी राज्यों या देशों से भी लोग आ जाते थे। उनका मुख्य उद्देश्य धनलाभ ही होता था। जो राजा या जमींदार उन्हें भरती कर ले, वे उसके लिए ही लड़ते थे। युद्ध में घायल या मृत्यु होने पर खेती की जमीनें दी जाती थीं। लूट में भी कुछ हिस्सा मिल जाता था। युद्ध के बाद सैनिकों को गांव और बिरादरी में सम्मान मिलता था। नियमित सेना की प्रथा भारत में विदेशियों की देखादेखी ही आयी है।
कोरेगांव युद्ध में मराठा सेना के अग्रणी दस्ते में अधिकांश अरबी मुसलमान थे। उस सेना में महाराष्ट्र के अन्य निर्धन वर्ग के हिन्दू भी थे। अंग्रेजों की सेना में महारों के साथ ही बंगाल और मद्रास के निर्धन वर्गों के लोग भी थे। मालिकों के नजरिये से ये मराठों और अंग्रेजों का, जबकि सैनिकों के नजरिये से ये महारों और मुसलमानों का युद्ध था। अंग्रेज अपनी सत्ता स्थायी करने के लिए चाहते थे कि जातिभेद के ये बीज पेड़ बन जाएं। इसलिए उन्होंने वहां एक स्मारक बना दिया। उसमें 27 महार और 22 अन्य (कुल 49) सैनिकों के नाम लिखे हैं।
तुलसी बाबा ने कहा है, ‘‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।’’ इसीलिए सब इस युद्ध को अपने-अपने चश्मों से देख रहे हैं; पर यह निर्विवाद है कि इसमें अंग्रेज जीते और भारत की हानि हुई। अतः इसे किसी जाति, वर्ग या समुदाय की जीत कहना उचित नहीं है।
कैसा दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों के जाने के 70 साल बाद भी हम जातियों के नाम पर लड़ रहे हैं। जातिवाद को मिटाना आसान नहीं है; पर हम जातिभेद को तो मिटा ही सकते हैं। जन्म के कारण किसी को ऊंचा या नीचा मानना केवल अपराध ही नहीं, पाप भी है। इस मिटाने के लिए हमें अपनी चुनाव प्रणाली बदलनी होगी। क्योंकि यह जातिभेद को हिंसक जातीय संघर्ष की ओर बढ़ा रही है। 1947 के बाद का परिदृश्य इसका गवाह है। कोरेगांव विवाद को बढ़ाने के पीछे भी भारतद्वेषी गुटों की राजनीति ही है, और कुछ नहीं।
-विजय कुमार