ओलंपिक में धाकड़ बेटियों के वो 60 मिनट हम हमेशा रखेंगे याद, जानें महिला हॉकी का इतिहास लिखने वाली रियल लाइफ चक दे गर्ल्स की कहानी

By अभिनय आकाश | Aug 03, 2021

भारतीय महिला हॉकी टीम ने टोक्यो ओलंपिक में इतिहास रच दिया। भारतीय टीम ने पहली बार ओलंपिक के सेमीफाइनल में जगह बना ली। टीम ने क्वाटर फाइनल मुकाबले में ऑस्ट्रेलिया को 1-0 से हराया। भारतीय टीम मेडल जीतने से अब महज एक जीत दूर है। इससे पहले भारतीय महिला हॉकी टीम ने कभी भी ओलंपिक के सेमीफाइनल में जगह नहीं बनाई थी। इस बार उन्होंने तीन बार के ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट को हराकर सेमीफाइनल का टिकट कटाया। ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, आयरलैंड जैसी टीमों को हराकर इस असंभव सी लगती सफलता को भारत की 16 बेटियों ने मुमकिन बनाया है। पहली बार भारत को सेमीफाइनल में पहुंचाने वाली खिलाड़ियों की रियल लाइफ स्टोरी से आज आपको रूबरू करवाते हैं। 

रानी रामपाल, शाहबाद, हरियाणा

टीम की कप्तान रानी रामपाल का जन्म हरियाणा के शाहबाद में एक गरीब परिवार में हुआ। रानी की शुरुआती जीवन संघर्षों से भरा रहा। रानी के पास हॉकी किट और जूते खरीदने के पैसे भी नहीं थे, जब उनके पिता तांगा चलाते थे। उन्होंने 14 साल की उम्र में पदार्पण किया था। हॉकी खिलाड़ी की ड्रेस को लेकर तरह तरह की बातें सुनने को मिलती थीं। 

नेहा गोयल, सोनीपत, हरियाणा

सोनीपत की रहने वालीं नेहा गोयल एक ऐसे माहौल में बड़ी हुई जहाँ ग़रीबी थी, पिता को शराब की लत थी। पहली बार ओलंपियन ने अपनी मां के साथ एक साइकिल कारखाने में काम किया, एक पहिया को ठीक करने के लिए 5 रुपये कमाए। उन्होंने 18 साल की उम्र में राष्ट्रीय टीम के लिए पदार्पण किया। 2018 से, गोयल ने एशियाई खेलों में रजत पदक जीता है और उन्हें हॉकी इंडिया मिडफील्डर ऑफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

निक्की प्रधान, हेसल, झारखंड

खूंटी की लाडली बिटया ओलंपिक में अपने झंडे गाड़ रही है। निक्की बचपन से ही फुर्तिली और चपल थी, जो हॉकी जैसे खेल के लिए सबसे जरूरी है। खूंटी की गलियों में लकड़ी के डंडे के साथ जब वो दौड़ लगाती थीं तो लगता था कि ये बेटी जरूर कुछ कर दिखाएगी। निक्की प्रधान मिडफील्डर हैं। नक्सलियों के गढ़ माने जाने वाले इलाके की रहने वाली प्रधान ने दावा किया कि अपने माता-पिता से मिलने के लिए वापस जाते समय वह डर जाती हैं। बड़ी होने के दौरान आर्थिक परेशानियों से जूझ रही उसकी बड़ी बहन, जो हॉकी भी खेलती थी, हॉकी स्टिक खरीदने के लिए एक मजदूर के रूप में काम करती थी।

निशा वारसी, सोनीपत, हरियाणा

निशा ने अपनी ट्रेनिंग कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीतने वाली टीम का हिस्सा रही रानी सिवाच की अकादमी से है। उनके पिता सोहराब अहमद एक दर्जी थे. साल 2015 में उन्हें लकवा मार दिया, जिससे काम छूट गया। निशा ने लगातार खेल जारी रखा और कठिन परिश्रम से स्पोर्ट्स कोटे से रेलवे में नौकरी भी हासिल कर लीं।

लालरेम्सियामी, कोलासिब, मिजोरम

जब लालरेम्सियामी को पहली बार 16 साल की उम्र में चुना गया था, तो सियामी अंग्रेजी या हिंदी नहीं बोल सकती थी। उन्होंने ओलंपिक में जगह बनाने वाली मिजोरम की पहली महिला खिलाड़ी बनकर इतिहास रच दिया।  जून 2019 में जब वे टीम के साथ थीं तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बावजूद उन्होंने टीम के साथ रहने का फैसला किया और FIH महिला हॉकी सीरीज में हिस्सा लिया।

सुशीला चानू, इंफाल, मणिपुर

टीम में सबसे वरिष्ठ खिलाड़ियों में से एक, सुशीला रानी रामपाल के साथ पिछले एक दशक में भारत की सबसे प्रभावशाली खिलाड़ियों में से एक रही है। भारत की ओर से ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में आयोजित किये गए 2016 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक में प्रतिनिधित्व किया।

दीप ग्रेस एक्का, लुलकिडीही, ओडिशा

एक्का हॉकी खेल के बैकग्राउंड वाले परिवार से आती हैं; उनके बड़े भाई दिनेश भारत के पूर्व गोलकीपर हैं। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए, एक्का भी एक गोलकीपर बनना चाहती थी, लेकिन दिनेश और उसके चाचा  ने उसे डिफेंडर के रूप में खेलने के लिए प्रेरित किया। उसके परिवार ने उसका समर्थन किया और वह 2017 में एशिया कप जीतने वाली टीम का हिस्सा बनी। 200 से अधिक कैप के साथ, वह अब अपना दूसरा ओलंपिक खेल रही है।

सलीमा टेटे, हेसल, झारखंड

झारखंड के सिमडेगा जिला मुख्यालय से करीब 30 किमी दूर पिथरा पंचायत के छोटे से गांव बड़कीछापर के - एक धूल भरे मैदान में हस्त निर्मित बांस के स्टिक व बॉल से सलीमा ने हॉकी का सफर शुरू किया। उनका जन्म नक्सलियों के गढ़ में हुआ था, जो इसे हॉकी का अड्डा भी माना जाता है। उसने परिवार के खेत में काम किया, पैसे कमाए और अपने लिए एक हॉकी स्टिक खरीदी। ओलंपिक से पहले, उसने सीनियर राष्ट्रीय टीम के लिए 29 कैप जीते थे। 

उदिता दुहन, हिसार, हरियाणा

उदिता को आज भले ही लोग एक बेहतरीन हॉकी प्लेयर के रूप में जानते हैं, लेकिन उनके लिए हॉकी कभी भी उनकी पहली पसंद नहीं थी। बचपन में पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए उदिता हैंडबॉल खेला करती थीं। बाद उदिता ने गेंद छोड़ स्टिक उठाई और उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा।  साल 2016 में उन्होंने जूनियर टीम के लिए डेब्यू किया। 2016 में उन्हें अंडर-18 एशियाई कप में कांस्य पदक जीतने वाली टीम का कप्तान बनाया गया था।

वंदना कटारिया, हरिद्वार, उत्तराखंड

हरिद्वार के एक छोटे से गांव की वंदना कटारिया ने ओलंपिक में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। कदम रखते हुए वंदना कटारिया, तीन बार, ओलंपिक हैट्रिक बनाने वाली एकमात्र भारतीय महिला बनीं। यह एक व्यक्तिगत त्रासदी के ठीक तीन महीने बाद आया है। दरअसल, तीन महीने पहले उनका निधन हो गया, अपनी तैयारियों की वजह से वंदना अपने पिता के निधन पर गांव भी नहीं जा सकी थी। 

नवनीत कौर, शाहबाद, हरियाणा

26 जनवरी 1996 को हरियाणा के शाहबाद में जन्म लेने वाली नवनीत ने पांचवी कक्षा में ही ह़ॉकी खेलने की इच्छा जाहिर की। इसके बाद 2017 में एशियन कप में गोल्ड मैडल, 2018 में एशियन गेम्स में सिल्वर, 2018 में ही कामनवेल्थ गेम्स में चौथा स्थान पाया। नवनीत आठ खिलाड़ियों में से एक हैं जिन्होंने रियो ओलंपिक में भी भाग लिया था। 

 

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मोनिका मलिक,  सोनीपत, हरियाणा 

मोनिका का जन्म 5 नवंबर, 1993 को सोनीपत में हुआ। चंडीगढ़ पुलिस में एएसआई के पद पर तैनात पिता तकदीर सिंह मलिक को कुश्ती पसंद थी, लेकिन मोनिका ने हॉकी स्टिक थामने की ठानी। मोनिका ने 8वीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान ही हॉकी की ओर कदम बढ़ा दिए। मोनिका मलिक ने 2012 में बैंकॉक में हुए छठे जूनियर एशिया कप में खेलते हुए रजत पदक जीता। वर्ष 2013 में उन्होंने जर्मनी में हुए जूनियर विश्व कप में कांस्य पदक झटका तथा इसी वर्ष आयोजित तीसरी एशियन चैम्पियनशिप ट्रॉफी में रजत पदक प्राप्त किया।

गुरजीत कौर, अमृतसर, पंजाब

अमृतसर के गांव मियादी कलां में 25 अक्टूबर 1995 को एक किसान परिवार में पैदा हुईं गुरजीत ने स्कूल से हॉकी खेलनी शुरू की। और धीरे-धीरे भारतीय टीम तक जगह बनाई। गुरजीत टीम में डिफेंडर और ड्रैग फ्लिक स्पेशलिस्ट की भूमिका निभाती हैं। गुरजीत और उनकी बहन प्रदीप ने शुरुआती शिक्षा गांव के निजी स्कूल से ली और फिर बाद में उनका दाखिला तरनतारन के कैरों गांव में स्थित बोर्डिंग स्कूल में करा दिया गया। हॉकी मैदान के पास स्थित स्कूल की लंबी यात्रा से बचने के लिए उसे एक छात्रावास भेजा गया था। लोगों को खेलते देखना उसे इसमें शामिल होने के लिए ललचाता था, और एक बार ऐसा करने के बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

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शर्मिला देवी, हिसार, हरियाणा

हरियाणा के किसान परिवार में जन्मी शर्मिला ने 2019 में ओलंपिक टेस्ट इवेंट में टोक्यो में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदार्पण किया। जब वह चौथी क्लास में थीं तभी कोच प्रवीण सिहाग से मुलाकात हुई। वह हॉकी, वॉलीबॉल और फ़ुटबॉल में इस्तेमाल की जाने वाली गेंदों से आकर्षित थी, और वह जिस खेल को आगे बढ़ाना चाहती थी उसे चुनने में कुछ समय लगा। प्रवीण सिहाग ने उनकी हर स्तर पर मदद की और इंटरनेशनल लेवल का खिलाड़ी बनाया।

नवजोत कौर, कुरुक्षेत्र, हरियाणा

26 साल की नवजोत कौर का जन्म 7 मार्च, 1995 को मुज़फ्फरनगर में हुआ था। उनके पिता पेशे से मैकेनिक हैं और मां गृहिणी हैं। उन्होंने 2003 में संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान स्कूल में प्रशिक्षण शुरू किया। कागज पर मिडफील्डर, लक्ष्यों को हासिल करने की उनकी क्षमता ने उन्हें 2012 में सीनियर टीम में तोड़ दिया। तब से उन्होंने क्रमशः 2014 और 2018 में एशियाई खेलों में कांस्य और रजत पदक जीता है। वह उस टीम में भी थीं जिसने 2016 के रियो खेलों और 2018 में विश्व कप के क्वार्टर फाइनल में जगह बनाई थी।

सविता पुनिया, जोधका, हरियाणा

भारतीय टीम की दीवार गोलकीपर सविता पूनिया हरियाणा के सिरसा जिले की रहने वाली हैं। पुनिया को उसके दादा ने हॉकी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया था, लेकिन जब तक उसके पिता ने एक नई किट पर एक बड़ी राशि खर्च नहीं की, तब तक उसने खेल को गंभीरता से लेना शुरू नहीं किया। जब सविता 9वीं क्लास में थीं, तब हिसार कोचिंग के लिए आई थीं। प्रैक्टिस मैच में सविता ने पहली बार गोलकीपर की भूमिका निभाई। इस मैच में सविता के रिएक्शन टाइम को देखने के बाद लगा कि उन्हें गोलकीपर के तौर पर तराशा जाना चाहिए। 

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