By युद्धवीर सिंह लांबा | Aug 10, 2019
इसे भी पढ़ें: 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के जुल्मो सितम की कहानी
इतिहास के पन्नों में भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों के बलिदान की शौर्यगाथाएं भरी पड़ी हैं। ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महज 18 साल की छोटी-सी उम्र में फांसी का फंदा चूम लिया था। देश की आजादी के लिए 18 साल की उम्र में फांसी के फंदे पर चढ़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी खुदीराम बोस की 11 अगस्त को पुण्यतिथि है। भारत के स्वातंत्र्य संग्राम के इतिहास में खुदीराम बोस का नाम अमिट है। देश की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहूति देने वाले अमर शहीद खुदीराम बोस में वतन के लिए मर मिटने का जज्बा कुछ ऐसा था जो भावी पीढ़ी को सदैव देशहित के लिए त्याग, सेवा और कुर्बानी की प्रेरणा देता रहेगा।
बहन ने किया था खुदीराम का लालन-पालन
आजादी के परवाने खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के गांव हबीबपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत जल्दी ही उतर गया था इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। 9वीं की पढ़ाई के बाद बोस पूरी तरह क्रांतिकारी बन गए थे।
इसे भी पढ़ें: भारत छोड़ो आंदोलन ने अंग्रेज हुकूमत की नीँव हिला कर रख दी थी
बंगाल विभाजन के बाद बने थे क्रांतिकारी
बंगाल में उभरते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को नष्ट करने के लिए 16 अक्टूबर 1905 को लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। 1905 में हुए बंगाल विभाजन के बाद तो खुदीराम बोस क्रांतिकारी सत्येन बोस की अगुवाई में क्रांतिकारी बन गए। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी खुदीराम बोस ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। पुलिस ने 28 फरवरी, 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए खुदीराम बोस को दबोच लिया। लेकिन वह पुलिस के शिकंजे से भागने में सफल रहे।
मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने की मिली जिम्मेवारी
कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दंड देने के लिए बदनाम था। इसके लिए क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फैसला किया। युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चंद को चुना गया। किंग्सफोर्ड को मारने के लिए खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को एक बम और पिस्तौल दी गई थी। 30 अप्रैल 1908 को दोनों यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड का इंतजार करने लगे। रात के 8.30 बजे दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्गी पर हमला कर दिया। हमले में किंग्सफोर्ड बाल-बाल बच गए, लेकिन उनकी बेटी और एक अन्य महिला की मौत हो गई।
इसे भी पढ़ें: अद्भुत प्रतिभा के धनी थे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर
फैसला सुनकर मुस्कुराए खुदीराम
8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून, 1908 को शहीद खुदीराम बोस को मौत की सजा सुनाई गई। जब जज ने फैसला पढ़कर सुनाया तो खुदीराम बोस मुस्कुरा उठे। जज को लगा कि खुदीराम सजा को समझ नहीं पाए हैं, इसलिए वे मुस्कुरा रहे हैं। जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ आ गई है। इस पर बोस ने दृढ़ता से जज को कहा कि ‘ये मेरा सौभाग्य है कि जिस देश की मिट्टी का मैंने नमक खाया है, देश के लिए फांसी के तख्ते पर झूल कर आज उस मिट्टी का कर्ज चुकाने का मौका मिला है।'
11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस फांसी पर चढ़े
11 अगस्त, 1908 को सुबह 6 बजे हाथ में गीता लेकर खुदीराम बोस हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तब उनकी आयु मात्र 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी। महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस की शहादत के बाद देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी। खुदीराम बोस देश युवाओं के लिए अनुकरणीय हो गए।
खुदीराम धोती
शहीद खुदीराम बोस की लोकप्रियता का यह आलम था कि उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था और बंगाल के नौजवान बड़े गर्व से वह धोती पहन कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। इतिहासवेत्ता शिरोल ने लिखा है कि ‘बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया’।
भारत के कई जाने माने इतिहासकारों ने शहीद खुदीराम बोस को देश को आजाद कराने के लिए हंसते-हंसते अपनी जान देश के खातिर कुर्बान करने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी माना है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि आज भौतिकवाद की चकाचौंध में हिन्दुस्तान के लोग धीरे-धीरे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को भूलते जा रहे हैं।
इसे भी पढ़ें: ऊधम सिंह ने बदला लिया था जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का
राष्ट्र के प्रति अमर शहीद खुदीराम बोस का अमर प्रेम नई पीढ़ी और देशवासियों को हमेशा ही प्रेरणा देता रहेगा। देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने की खातिर अनेकों क्रांतिकारियों ने संघर्षपूर्ण प्रयत्न करते हुए हंसते-हंसते देश की खातिर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, हमें ऐसे क्रांतिकारियों और शहीदों का हमें सम्मान करना चाहिए। कम उम्र में ही अपने सपनों को राष्ट्र के लिए कुर्बान करने वाले अमर शहीद खुदीराम बोस को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए मैंने मेरे गाँव धारौली, जिला झज्जर में दो पंक्तियों की रचना की।
जंग-ए-आजादी की लड़ाई में 18 वर्ष की आयु में खुदीराम ने चूमा फांसी का फंदा
आजादी का परवाना शहीद खुदीराम बोस आज भी भारत देशवासियों के दिलों में है जिंदा
-युद्धवीर सिंह लांबा
(लेखक अकिडो कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, बहादुरगढ़ जिला झज्जर, हरियाणा में रजिस्ट्रार के पद पर कार्यरत हैं।)