नारदजी कहते हैं− कार्तिक का व्रत करने वाले पुरुषों के लिये जो नियम बताये गये हैं, उनका मैं संक्षेप से वर्णन करता हूं। ध्यान देकर सुनो। अन्नदान देना, गौओं को ग्रास अर्पण करना, वैष्णव पुरुषों के साथ वार्तालाप करना तथा दूसरे के दीपक को जलाना या उकसाना− इन सब कार्यों से मनीषी पुरुष धर्म की प्राप्ति बतलाते हैं। बुद्धिमान पुरुष दूसरे के अन्न, दूसरे की शय्या, दूसरे की निंदा और दूसरे की स्त्री का सदा ही परित्याग करे तथा कार्तिक में तो इन्हें त्यागने की विशेष रूप से चेष्टा करे। उड़द, मधु, सौवीरक तथा राजमाष आदि अन्न कार्तिक का व्रत करने वाले मनुष्य को नहीं खाने चाहिए। दाल, तिल का तेल, भाव दूषित तथा शब्द दूषित अन्न का भी व्रती मनुष्य परित्याग करे। कार्तिक का व्रत करने वाला पुरुष देवता, वेद, द्विज, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषों की निंदा छोड़ दे। बकरी, गाय और भैंस के दूध को छोड़कर अन्य सभी पशुओं का दूध मांस के समान वर्जित है।
ब्राह्मणों के खरीदे हुए सभी प्रकार के रस, तांबे के पात्र में रखा हुआ गाय का दूध, दही और घी, घड़े का पानी और केवल अपने लिये बनाया हुआ भोजन− इन सबको विद्वान पुरुषों ने आमिष के तुल्य माना है। व्रती मनुष्यों को सदा ही ब्रह्मचर्य का पालन, भूमि पर शयन, पत्तल में भोजन और दिन के चौथे प्रहर में एक बार अन्न ग्रहण करना चाहिए। कार्तिक का व्रत करने वाला मानव प्याज, लहसुन, हींग, गाजर, नालिक, मूली और साग खाना छोड़ दे। लौकी, बैंगन, कोंहड़ा, भतुआ, लसोड़ा और कैथ भी त्याग दे। व्रती पुरुष रजस्वला का स्पर्श ना करे।
जो कार्तिक मास में तेल लगाना, खाट पर सोना, दूसरे का अन्न लेना और कांस के बर्तन में भोजन करना छोड़ देता है, उसी का व्रत परिपूर्ण होता है। व्रती पुरुष प्रत्येक व्रत में सदा ही पूर्वोक्त निषिद्ध वस्तुओं का त्याग करे तथा अपनी शक्ति के अनुसार भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए कृच्छ आदि व्रतों का अनुष्ठान करता रहे। गृहस्थ पुरुष रविवार के दिन सदा ही आंवले के फल का त्याग करे।
इसी प्रकार माघ में भी व्रती पुरुष उक्त नियमों का पालन करे और श्रीहरि के समीप शास्त्र विहित जागरण भी करे। यथोक्त नियमों के पालन में लगे हुए कार्तिक व्रत करने वाले मनुष्य को देखकर यमदूत उसी प्रकार भागते हैं, जैसें सिंह से पीड़ित हाथी। भगवान विष्णु के इस व्रत को सौ यज्ञों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ जानना चाहिए, क्योंकि यज्ञ करने वाला पुरुष स्वर्गलोक को जाता है और कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य वैकुण्ठ धाम को। इस पृथ्वी पर भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले जितने भी क्षेत्र हैं, वे सभी कार्तिक का व्रत करने वाले पुरुष के शरीर में निवास करते हैं। मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा होने वाला जो कुछ भी दुष्कर्म या दुःस्वप्न होता है, वह कार्तिक व्रत में लगे हुए पुरुष को देखकर नष्ट हो जाता है। इंद्र आदि देवता भगवान विष्णु की आज्ञा से प्रेरित होकर कार्तिक का व्रत करने वाले पुरुष की निरन्तर रक्षा करते रहते हैं− ठीक उसी तरह, जैसे सेवक राजा की रक्षा करते हैं। जहां सबके द्वारा सम्मानित वैष्णव−व्रत का अनुष्ठान करने वाला पुरुष नित्य निवास करता है, वहां ग्रह, भूत, पिशाच आदि नहीं रहते।
नारदजी कहते हैं− अब मैं कार्तिक व्रत के अनुष्ठान में लगे हुए पुरुष के लिये उत्तम उद्यापन विधि का संक्षेप में वर्णन करता हूं। व्रती मनुष्य कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को व्रत की पूर्ति तथा भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए उद्यापन करे। तुलसीजी के ऊपर एक सुंदर मण्डप बनायें, जिसमें चार दरवाजे बने हों, उस मण्डप में सुंदर बंदनवार लगाकर उसे पुष्पमय चंवर से सुशोभित करें। चारों दरवाजों पर पृथक पृथक मिट्टी के चार द्वारपाल− पुण्यशील, सुशील, जय और विजय की स्थापना करके उन सबका पूजन करें। तुलसी के मूलभाग में वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनायें, जो चार रंगों से रंजित होकर सुंदर शोभा संपन्न और अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता हो। सर्वतोभद्र के ऊपर पंचरत्न युक्त कलश की स्थापना करें। उसके ऊपर नारियल का फल रख दें। इस प्रकार कलश स्थापित करके उसके ऊपर समुद्र कन्या लक्ष्मीजी के साथ शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले पीताम्बरधारी देवेश्वर श्रीविष्णु का पूजन करें। सर्वतोभद्र मण्डल में इंद्र आदि लोकपालों का पूजन भी करना चाहिए। भगवान श्रीविष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा का षोडशोपचार द्वारा नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ प्रस्तुत करते हुए पूजन करना चाहिए। रात्रि में गीत और वाद्य आदि मांगलिक उत्सवों के साथ भगवान के समीप जागरण करना चाहिए।
रात्रि जागरण के पश्चात पूर्णिमा को प्रातःकाल अपनी शक्ति के अनुसार तीस या एक सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन के लिए आमंत्रित करें। उस दिन किया हुआ दान, होम और जप अक्षय फल देने वाला माना गया है। 'अतो देवाः' आदि दो मंत्रों से देवदेव भगवान विष्णु तथा अन्य देवताओं की प्रसन्नता के लिए अलग अलग तिल और खीर की आहुति छोड़ें। फिर यथाशक्ति दक्षिणा दे उन्हें प्रणाम करें। इसके बाद भगवान विष्णु, देवगण तथा तुलसी का पुन: पूजन करें। क्षमायाचना करके ब्राह्मणों को प्रसन्न करने के पश्चात उन्हें विदा करें और गौ सहित भगवान विष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा आचार्य को दान कर दें। तत्पश्चात भक्त पुरुष गुरुजनों के साथ स्वयं भी भोजन करे। संपूर्ण व्रतों, तीर्थों और दानों से जो फल मिलता है, वही इस कार्तिक व्रत का विधिपूर्वक पालन करने से करोड़ गुना होकर मिलता है।
-शुभा दुबे