कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन का ऊँचाई पर बैठा होना सबसे कठिन चुनौती थी

By नीरज कुमार दुबे | Jul 24, 2020

कारगिल युद्ध को 20 वर्ष पूरे हो चुके हैं और सारा देश कारगिल विजय दिवस मना रहा है। लेकिन यह जो 'विजय' है यह आसानी से नहीं मिली थी हमारे 20, 22, 25 साल के जवानों ने इस विजय के लिए और अपने देश की धरती की सुरक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों की चोटियों पर लड़ा गया यह युद्ध दुनिया का सबसे खतरनाक युद्ध माना जाता है। देखा जाये तो कारगिल में युद्ध की नौबत इसलिए आयी क्योंकि 160 किलोमीटर के दायरे में हमारे निगरानी तंत्र की विफलता के चलते वहां पाकिस्तानी सेना घुस आई थी और हमारी कई चौकियों पर कब्जा जमा लिया था। पाकिस्तानी घुसपैठियों ने मुख्यतः उन भारतीय चौकियों पर कब्जा जमाया था जिनको भारतीय सेना की ओर से सर्दियों के मौसम में खाली कर दिया जाता था। लेकिन भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन विजय' के तहत अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया और लगभग दो महीने तक चले इस युद्ध में विजय हासिल करते हुए पाकिस्तानी सेना को उलटे पांव भागने पर मजबूर कर दिया और पाकिस्तानी घुसपैठियों की ओर से कब्जाई गई अपनी चौकियों को छुड़ा लिया।

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सबसे कठिन लड़ाई

कारगिल की सबसे ऊँची चोटी टाइगर हिल से पाकिस्तान को खदेड़ कर वहाँ तिरंगा फहराते भारतीय सैनिकों की तसवीरें आपके जेहन में ताजा होंगी लेकिन ऊपर बैठकर गोली बरसा रहे पाकिस्तानी सैनिकों से इस क्षेत्र को छुड़ाना कोई आसान काम नहीं था। कारगिल युद्ध में भारतीय सेना और वायुसेना ने अपनी जबरदस्त जांबाजी दिखाई लेकिन इस दौरान हमारे लगभग 500 जवानों ने अपनी शहादत भी दी। भारतीय जवानों के लिए सबसे मुश्किल बात यह थी कि वह नीचे थे और दुश्मन ऊँचाई पर बैठ कर हमें साफ-साफ देख भी रहा था और गोलियां बरसा कर नुकसान पहुँचा रहा था। कल्पना करके देखिये कि ऐसे में क्या माहौल होगा जब दुश्मन के गोले और गोलियों से बचते हुए हमारे जवानों के सामने ऊपर चढ़ने की कठिन चुनौती भी है, रसद और गोला बारूद भी साथ लेकर जाना है, दुश्मन को ठिकाने भी लगाना है और उस समय सेना के पास आज की तरह रात में देख सकने वाले अत्याधुनिक उपकरण और कई अन्य प्रकार के साजो-सामान नहीं थे। कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर जहाँ सांस लेना भी मुश्किल होता है वहां हिम्मत दिखाते हुए बस आगे बढ़ते जाना है।


युद्ध के कारण

कारगिल की लड़ाई आखिर क्यों हुई? यह सवाल आने वाली पीढ़ी जरूर पूछेगी। तो आइए आपको जरा युद्ध से पहले के हालात से अवगत कराते हैं। पाकिस्तानी सेना के मन से यह टीस कभी नहीं गयी कि उसे हर बार भारत के साथ युद्ध में हार झेलनी पड़ी। वह सीधे मुकाबले से बचते हुए धोखे से भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करना चाहते हैं। पाकिस्तान कहने को तो लोकतांत्रिक देश है लेकिन वहां मालिक सेना ही है और इसी पाकिस्तानी सेना ने भारत से एक और युद्ध की तैयारी अंदर ही अंदर 1998 में ही शुरू कर दी थी। थोड़ा विस्तार में जाते हुए आपको उस समय के राजनीतिक माहौल के बारे में बताते हैं। कारगिल युद्ध से ठीक एक साल पहले 1998 में भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के बाद मई महीने में पोखरण में परमाणु परीक्षण किये गये जिसके बाद पाकिस्तान ने भी जवाबी परीक्षण किया और दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण माहौल उत्पन्न हो गया। लेकिन अटलजी तो शांतिप्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने दुश्मनी भरे माहौल को दोस्ती में बदलने का निर्णय लिया और बस से यात्रा कर लाहौर पहुँचे जहाँ तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उनका भव्य स्वागत किया। देखा जाये तो उस समय पाकिस्तान के हर राजनीतिज्ञ ने अटलजी के इस कदम की तारीफ की और सराहा लेकिन दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय में बैठे वहां के आर्मी चीफ परवेज मुशर्रफ को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। मुशर्रफ की नाराजगी तभी सामने आ गयी थी जब भारतीय प्रधानमंत्री के स्वागत के दौरान प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए मुशर्रफ ने अटलजी का अभिवादन नहीं किया था।

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कुटिल मुशर्रफ की काली चाल

एक ओर अटलजी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर रहे थे तो दूसरी तरफ मुशर्रफ कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ करा रहे थे। पाकिस्तानी सेना ने यह घुसपैठ 'ऑपरेशन बद्र' के तहत करवाई थी और उसका मुख्य उद्देश्य कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोड़ना और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाना था। मुशर्रफ ने यह घुसपैठ इतने गुपचुप तरीके से करवाई थी कि तत्कालीन पाकिस्तानी वायुसेना प्रमुख और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री तक को इसकी खबर बाद में पता चली थी। जब भारत में यह बात जगजाहिर हुई कि कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ हो चुकी है तो अटलजी पाकिस्तान के इस धोखे से स्तब्ध थे। यह उनकी ओर से बढ़ाये गये दोस्ती के हाथ में छुरा घोंपने जैसा था। उन्होंने मंत्रिमंडल की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक बुलाई और कुछ देर बाद ही भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन विजय' का ऐलान कर दिया। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्जे वाली जगहों पर हमला किया और पाकिस्तानी सेना को भारतीय चोटियों को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। 26 जुलाई को वह दिन आया जिस दिन सेना ने इस ऑपरेशन का पूरा कर लिया।


सेना और वायुसेना की जाँबाजी

कारगिल युद्ध को भारतीय सेना की एक बड़ी विजय के रूप में दुनिया इसलिए भी देखती है क्योंकि हमारी सेना के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बात यह थी कि दुश्मन ऊँची पहाड़ियों पर बैठा था और वहां से गोलियां बरसा रहा था। इसलिए हमारे जवानों को आड़ लेकर या रात में चढ़ाई कर ऊपर पहुँचना पड़ता था जोकि बहुत जोखिमपूर्ण था। कारगिल की लड़ाई सेना और वायुसेना के आपसी समन्वय और सम्मिलित प्रयास का भी अनुपम उदाहरण है। कारगिल के युद्ध में जहाँ भारतीय सेना की बोफोर्स तोपें दुश्मनों पर कहर बनकर ढा रही थीं तो 30 वर्ष बाद 1999 में ऐसा समय आया था जब भारतीय वायुसेना को हमले करने के आदेश दिये गये थे। दरअसल कारगिल की लड़ाई में भारतीय जवान बड़ी संख्या में शहीद होते जा रहे थे जिससे एनडीए सरकार को आलोचना झेलनी पड़ रही थी। तब 25 मई 1999 को दिल्ली में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की एक अहम बैठक हुई जिसमें तय किया गया कि पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ हवाई हमले किये जाएं। इसके बाद कारगिल युद्ध में वायुसेना के 300 विमानों को शामिल किया गया था। वायुसेना की मदद मिलने से हमारी सेना की स्थिति काफी मजबूत हो गयी थी।


कारगिल युद्ध से जुड़ी कुछ खास बातें

कारगिल युद्ध से जुड़ी एक और खास बात यह है कि आजादी के बाद यह पहली ऐसी लड़ाई थी जिसकी तसवीरें टीवी समाचार चैनलों के माध्यम से घर-घर तक पहुँच गयी थीं और भारतीयों में पाकिस्तान के विरोध में गुस्सा उबाल ले रहा था। भारतीय सेना जब धड़ाधड़ पाकिस्तानी सेना को नुकसान पहुँचाये जा रही थी तो नवाज शरीफ सरकार भी हिल गयी थी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को मदद मांगने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मिलने के लिए वाशिंगटन भागना पड़ा था। हम आपको बता दें कि कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 2700 से ज्यादा सैनिक मारे गये थे। इस लड़ाई में पाकिस्तान को 1965 और 1971 से भी ज्यादा नुकसान हुआ था। खैर...वाशिंगटन पहुँच कर नवाज शरीफ ने जब अपनी सेना की पिटाई की बात बिल क्लिंटन को बताई तो उन्होंने हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन लगा दिया और कहा कि आप भी यहाँ आ जाइये, बैठ कर बातें करते हैं। लेकिन अटलजी ने साफ इंकार कर दिया। तब बिल क्लिंटन ने बताया कि परेशान पाकिस्तानी सेना भारत पर परमाणु हमला भी कर सकती है तो अटलजी ने साफ कह दिया कि पाकिस्तानी सेना यदि ऐसा करेगी तो हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन पाकिस्तान अगले दिन का सूरज नहीं देख पायेगा। कारगिल युद्ध के समय देश में जहां एक ओर पाकिस्तान की ओर से मिले 'धोखे' के कारण आक्रोश का माहौल था वहीं जब लगभग रोजाना देश के किसी हिस्से में कारगिल में शहीद हुए जवानों का पार्थिव शरीर पहुँचता था तो गम का माहौल हो जाता था।


बहरहाल, कारगिल की विजय एक ओर जहां हमारी सेना के अदम्य साहस, शौर्य और सर्वोच्च बलिदान से मिली वहीं हमारी तत्कालीन सरकार के दृढ़ रुख का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा और सबसे खास योगदान हर भारतीय ने दिया जो एकजुट होकर मुश्किल समय में देश और सेना के साथ डट कर खड़ा रहा, हर शहीद परिवार के लिए मदद देने में कोई कसर नहीं छोड़ी, सीमा पर जाकर मर मिटने की खातिर लोग घरों से निकलने को आतुर दिखे। देख कर अच्छा लगता है कि पूरा देश एकजुट होकर कारगिल के शहीदों को श्रद्धांजलि देता है लेकिन शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब प्रत्येक भारतीय के मन में भारत माता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने का भाव पैदा होगा। तिरंगे की आन बान और शान को बरकरार रखना हर भारतीय का फर्ज है। साथ ही हमें शहीदों के परिवारों की भी सुध सदैव लेते रहने की आवश्यकता है।


-नीरज कुमार दुबे

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