पिछले कुछ दिनों से जेएनयू में जारी आंदोलन को लेकर मीडिया में बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा है। जेएनयू में फीस बढ़ोत्तरी को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है....कुछ लोग इसे सही ठहरा रहे हैं तो कुछ लोगों का कहना है कि सरकार को ऐसा नहीं करना चाहिए। मैं फीस को लेकर अपनी राय बाद में रखूंगा पहले इस संस्थान की बात हो जाए।
मुझे याद है वो साल 1996...जी हां इसी साल पहली बार मैं बिहार से दिल्ली पहुंचा था...छोटे से शहर दरभंगा से ग्रेजुएशन के बाद अपने सपनों को साकार करने दिल्ली पहुंचे एक युवक की बेचैनी कैसी होगी इसे आप समझ सकते हैं। दिल्ली आने से पहले जेएनयू के बारे में तो सुना था लेकिन सच मानिए पहली बार कैंपस में दाखिल होते ही मेरा मन खिल उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए छात्र-छात्राओं को अलग-अलग अंदाज में देखना मेरे लिए बिल्कुल ही नया अनुभव था। उन दिनों जेएनयू आने वाले लोगों का सबसे बड़ा और अहम ठिकाना गंगा ढाबा होता था....इस अड्डे पर अंडा पराठे, आलू पराठे और मिल्क कॉफी के साथ देश और दुनिया के सभी ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा होती थी....अंग्रेजी स्कूल से आए छात्र धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते थे तो दूसरी ओर हिंदी भाषी क्षेत्रों से आए छात्र हिंदी में अपनी बात रखते थे।
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लेकिन अंग्रेजी-हिंदी को लेकर कभी कोई मसला नहीं रहा...रॉक गार्डन, टेफ्लाज, लाइब्रेरी कैंटीन इन सभी जगहों पर छात्रों का जमघट लगा रहता था। मेरा जेएनयू से सामना उस दौर में हुआ जब वहां सिविल सेवा परीक्षा का बोलबाला था। देश की राजधानी दिल्ली में बिहार जैसे राज्यों से आए मध्यमवर्ग परिवार से ताल्लुक रखने वाले छात्रों को कम से कम पैसे में जेएनयू जैसे बेहतर संस्थान में वो सब कुछ मिल रहा था जो संपन्न वर्ग के छात्रों को मिल सकता था। रहने के लिए छात्रावास, बजट में खाना-पीना, पढ़ने के लिए लाइब्रेरी अब इससे ज्यादा उन्हें क्या चाहिए था। ये वो दौर था जब जेएनयू से हर साल 50 और उससे ज्यादा संख्या में छात्र सिविल सेवा परीक्षा में अपना झंडा गाड़ रहे थे।
आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्रों में ज्यादा सैलरी मिलने के बाद भी यहां के छात्रों के लिए यूपीएससी एक बड़ा सपना था। जेएनयू में पढ़ाई के साथ-साथ छात्र राजनीति की भी खूब चर्चा होती थी। मुझे याद है उस दौर में छात्रसंघ चुनाव से पहले जो डिबेट होता था उसमें छात्र नेताओं को सुनने को भारी भीड़ जुटती थी। ये बात अलग है कि उन दिनों जेएनयू में सिर्फ लेफ्ट का बोलबाला हुआ करता था।
लेकिन यहां एक बात बता दूं कि उस दौर में छात्रों को कहीं ज्यादा आजादी मिली हुई थी...हर किसी को अपनी विचारधारा रखने की आजादी थी, हर छात्र अपनी पसंद-नापसंद खुलेआम कैंपस में छात्रों के सामने रखते थे और इसे लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ।
खैर अब हम मुद्दे पर लौटते हैं...मुझसे कई लोगों ने पूछा कि क्या जेएनयू में फीस बढ़ाना सही है। मेरा जवाब था....जेएनयू में फीस में बढ़ोत्तरी तो हुई है लेकिन इस कदर नहीं जिसे लेकर सड़क से संसद तक बवाल मचाया जाए। पहले बात छात्रावास की...अब तक छात्र हॉस्टल में रहने के लिए सालाना 20 रुपए देते आ रहे थे जिसे बढ़ाकर 600 रुपए कर दिया गया। मतलब अभी भी एक महीने के रहने का किराया 50 रुपया...जरा सोचिए दिल्ली जैसे शहर में वो भी साउथ दिल्ली में अगर एक छात्र को रहने के लिए हर महीने 50 रुपए खर्च करने पड़े तो उसके लिए इससे ज्यादा बड़ी बात क्या होगी। कुछ यही बात छात्रावास में मेस को लेकर भी है...मुझे याद है 1995-96 के बीच मेस का बिल हर महीने 600 से 700 तक जाता था। उस पैसे में ब्रेकफास्ट, लंच औऱ डिनर वो भी भर पेट। हफ्ते में तीन दिन नॉनवेज...एक दिन स्पेशल डिश जिसमें आइसक्रीम भी शामिल होता था। अभी 23 साल बाद भी वहां हर महीने मेस बिल 2500 के करीब आता है। महंगाई के इस दौर में जहां प्याज 90 रुपए किलो बिक रहा है, आलू की कीमत 25 रुपए किलो है वहां एक दिन में 100 रुपए से भी कम में तीन समय का बेहतर भोजन मिल जाए तो इससे बढ़िया और क्या बात हो सकती है ?
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कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि आखिर उन गरीब छात्रों का क्या होगा...जिनके माता-पिता की आय काफी कम है। ऐसे लोगों को मेरी हिदायत होगी कि वो एक बार ग्रामीण इलाकों का दौरा करें....जेएनयू आने वाले छात्र गरीब घरों से जरूर होते हैं लेकिन वो किसी मजदूर परिवार से नहीं आते। आजकल ग्रामीण इलाकों में भी लोगों की आमदनी बढ़ी है...लिहाजा फीस को लेकर शोर मचाना कहीं से जायज नहीं है। कम से कम मेरे जैसे लोग जो जेएनयू को करीब से देख चुके हैं ये बात जानते हैं कि महंगाई के दौर में भी ये एकमात्र ऐसा संस्थान है जहां मध्यमवर्गीय परिवारों का भी सपना पूरा होता है। महानगरों में रहने वाले लोगों से पूछिए जिन्हें बिजली-पानी की समस्या से जूझना होता है....जिन्हें बेहतर हवा नसीब नहीं होती। जेएनयू कैंपस का एक चक्कर लगाने के बाद आपको इस बात का अहसास हो जाएगा कि वहां छात्रों को मिलने वाली सुविधाएं अपने आप में मिसाल है। इसलिए मेरा तो यही मानना है कि फीस को लेकर बेवजह बवाल खड़ा किया जा रहा है...और कहीं न कहीं जेएनयू को बदनाम करने की कोशिश हो रही है।
-मनोज झा
(लेखक पूर्व पत्रकार हैं)