क्या हो गया है कुछ युवाओं को ? जिन्ना वाली आजादी का आखिर क्या अर्थ निकालें ?

By राकेश सैन | Jan 26, 2020

देश में आधुनिक गणतन्त्र व्यवस्था के स्थापना की आज जयन्ती है। इसी दिन सन् 1950 को भारत द्वारा अधिनियम-1935 को हटाकर अपना संविधान लागू किया गया था। एक स्वतन्त्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए सन्विधान को 26 नवम्बर, 1949 को सन्विधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी, 1950 को इसे एक लोकतान्त्रिक प्रणाली के साथ लागू किया गया। इसके लिए 26 जनवरी का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि 1930 में इसी दिन कांग्रेस ने देश में पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया था। देश में गणतन्त्र की आधुनिक चरण लागू हुए 70 साल बीत चुके, आधुनिक सोपान इसलिए क्योंकि जनतन्त्र प्रणाली भारत के लिए कोई नई नहीं बल्कि किसी न किसी रूप में वैदिक काल से चली आ रही प्राचीन व्यवस्था रही है। हां इसे आधुनिक व व्यवस्थित रूप 1950 को दिया गया। आजादी के इन 72 और लोकतन्त्र के इन 70 सालों ने भारत ने अनेक उपलब्धियां हासिल कीं, जिस पर गर्व किया जा सकता है। हालांकि इस अल्पावधि में इमरजेंसी के हालातों से भी गुजरना पड़ा परन्तु लोकशक्ति ने लोकशाही को बचा लिया। देश व समाज के सम्मुख चुनौतियां व संकट हर युग में रहे हैं और आगे भी रूप बदल-बदल कर तरह-तरह के चुनौतियां सम्मुख आएंगी परन्तु वर्तमान में जिस तरह अकारण अशान्ति का महौल बनाया गया है उससे इस बात की आवश्यकता है कि हमारा गणतन्त्र गुणतन्त्र की तरफ भी बढ़े।

 

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर जिस तरह से समाज के वर्ग विशेष को भड़काया जा रहा है और विधेयक के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों में जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वे हमारे गणतन्त्र की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगा देती हैं। इन प्रदर्शनों में 'जिन्ना वाली आजादी' के नारों का क्या अर्थ निकाला जाए ? अगर देश के गण में राष्ट्रभाव के गुण होते तो क्या देश की राजधानी के बीचों बीच चल रहे धरनों में इस तरह की बेशर्मी होती ? देखा जाए तो ऐसे नारे लगाने वालों से अधिक कसूरवार वे राजनीतिक दल हैं जिन्होंने एक वर्ग विशेष को राष्ट्रभाव से जुड़ने ही नहीं दिया, उसे शरीयत, इफ्तार और वोटों के फतवों तक ही सीमित रखा। कुछ दिन पहले देश के जाने माने रक्षा विशेषज्ञ व लेखक कैप्टन आर. विक्रम सिंह का लेख पढ़ कर आंखें खुल गईं कि किस तरह एक वर्ग विशेष को योजनाबद्ध तरीके से अलग-थलग करके रखा गया। विभाजन के बाद पाकिस्तान इस्लामिक देश बना परन्तु भारत ने अपनी युगों की परम्परा का पालन करते हुए सर्वधर्म समभाव की नीति को अपनाया। ऐसे में मुसलमानों से भारतीय संस्कृति में मिश्रित होने की उम्मीद स्वाभाविक थी परन्तु अगर मुसलमान धर्मनिरपेक्ष हो जाते तो उनको वोट बैंक बनाए रखने की योजना बेकार हो जाती। इसलिए जरूरी था कि उनकी अलग बस्तियाँ, अलग पहचान और अलग संस्थाएं हों जो तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए किया भी गया।

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भारतीय मुसलमान भी तो मलेशिया, इंडोनेशिया के मुसलमानों से सीख लेकर मलय संस्कृति की तरह भारतीय संस्कृति पर गर्व कर सकते थे। वह भी इंडोनेशिया मुसलमानों की तरह राम को पूर्वज मान सकते थे, परन्तु उनको राममन्दिर के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उनको अरबों, तुर्कों के साथ जोड़ा गया। दरअसल, मुस्लिम समाज को भारतीयता के साथ जोड़े रखने की कोशिश ही नहीं हुई। राजनैतिक जरूरतों ने सांझी संस्कृति ही विकसित नहीं होने दी। आजादी से पहले इस बिखराव के लिए हम अंग्रेज सरकार, शाह वलीउल्ला, सैयद अहमद, अलामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना को दोषी मान सकते थे परन्तु आजादी के बाद तो हम ही अपने भाग्य विधाता थे। भारत और विश्व इतिहास पर पुस्तकें लिखते हुए नेहरू जी को उन वतनप्रस्त मुसलमानों जैसे कि हाकिम खान, इब्राहिम गारदी जो महाराणा प्रताप और मराठों की फौजों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ते हुए शहीद हुए, की याद नहीं थी। दारा शिकोह को उन्होंने शायद पढ़ा नहीं होगा। भारतीय संस्कृति-साहित्य का हिस्सा बन चुके कबीर, रसखान, रहीम, फरीद, दादू को उन्होंने कितना जाना, यह वो ही बता सकते थे। पता नहीं उन्होंने अबदुर रहीम खानखाना का यह दोहा 'जैसी रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूंढ़त गजरार' कभी सुना था या नहीं। उन्होंने मुसलमानों में भारतीय इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीयता का भाव जागृत करने के लिए कुछ नहीं किया, चाहते तो मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय एकता की सबसे मजबूत कड़ी बन सकती थी। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ, हुआ होता तो आज शाहीन बाग में जिन्ना वाली आजादी न मांगी जा रही होती, न ही तीन तलाक पर रोक के विरोध में कोई आस्तीन चढ़ाता व राममन्दिर निर्माण में कोई विरोधियों की कठपुतली बनता।

 

भारतीय गणतन्त्र में विसंगतियों की सूची यहीं पूरी नहीं होती, बल्कि इसकी फेहरिस्त लम्बी है जिनका वर्णन करने से पहले पाठकों को लगभग ग्यारह-बारह सौ साल पीछे ले जाना चाहूंगा। दक्षिण भारत में चेन्नई से 83 किलोमीटर की दूरी पर चेंगलपेट के पास एक कस्बा है उतीरामेरूर। यह नगर सन् 880 के दशक में चोलवंशी राजा परन्तगा सुन्दरा चोल के आधीन था। उस राजाओं के जमाने में भी ग्राम प्रशासन में गुणवत्ताशाली गणतन्त्र का जो अनोखा उदाहरण मिलता है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुसभ्य और उन्नत थी। नगर के शिव मन्दिर की दीवारों पर चारों तरफ हमारे संविधान की धाराओं की तरह ग्राम प्रशासन से सम्बन्धित विस्तृत नियमावली उत्कीर्ण है, जिसमें ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन विधि का भी उल्लेख मिलता है। ग्रामसभा के निर्वाचन हेतु जो कुडमोलै पद्धति अपनाई जाती थी। कुडम का अर्थ होता है मटका और ओलै ताड़ के पत्ते को कहते हैं। गाँव के केन्द्र में कहीं एक बड़े मटके को रख दिया जाता था और नागरिक, उम्मीदवारों में से अपने पसन्द के व्यक्ति का नाम एक ताड़ पत्र पर लिख कर मटके में डाल देते थे। बाद में उसकी गणना होती और ग्राम सभा के सदस्यों का चुनाव हो जाता। उस समय निर्वाचन के लिए जो शर्तें रखी गईं उनमें से तो कई आज भी सम्भव नहीं हैं। इनमें से उम्मीदवार की आयु 35 या उससे अधिक परन्तु 70 वर्ष से कम हो। वह मूलभूत शिक्षा प्राप्त और वेदों का ज्ञाता हो। पिछले तीन वर्षों में उस पद पर न रहा हो। इसके अतिरिक्त जिसने अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो, कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया, जिसने अपने कर न चुकाए हों, गृहस्थ रह कर परस्त्री गमन का दोषी हो, हत्यारा, मिथ्या भाषी और शराबी हो, दूसरे के धन का हनन किया हो, जो ऐसे भोज्य पदार्थ का सेवन करता हो जो मनुष्यों के खाने योग्य ना हो, वो चुनाव में हिस्सा ही नहीं ले सकता था। ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो 360 दिनों का था परन्तु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। हमें अपने आप से सवाल करना चाहिए कि क्या आज आधुनिक युग में भी हम अपनी शासन-प्रशासन प्रणाली में ऐसी शुचिता ला पाए हैं जो सदियों पहले हम में थी।

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अपने गणतन्त्र में गुणात्मक सुधार के लिए अपने पूर्वजों के साथ-साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सफल लोकतन्त्र से भी सीखना होगा। सभी समाजों व देशों की अच्छी बातों का अपने भीतर समावेश करना होगा और अपनी बुराइयों को पहचान कर उससे किनारा करना होगा। तभी गणतन्त्र सर्वगुणयुक्त तन्त्र बनेगा और दुनिया के लिए आदर्श। गणतन्त्र दिवस की ढेरों शुभकामनाओं के साथ, जयहिन्द।

 

-राकेश सैन

 

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