By लोकेन्द्र सिंह राजपूत | Jan 12, 2024
हिन्दवी स्वराज्य के जो आधार स्तम्भ हैं, उनमें से एक है- राजमाता जिजाऊ माँ साहेब। उनके बिना हिन्दवी स्वराज्य के महान विचार का साकार होना संभव नहीं था। बाल शिवा के मन में स्वराज्य का बीज उन्होंने ही रोपा। उस बीज को उचित खाद-पानी एवं वातावरण मिले, इसकी भी चिंता उन्होंने की। रामायण-महाभारत और भारतीय आख्यानों की कहानियां सुनाकर माँ जिजाऊ ने शिवाजी के व्यक्तित्व को गढ़ा। वे ही शिवाजी महाराज की प्रथम गुरु भी थीं। प्रतिकूल परिस्थितियों में और अनेक प्रकार के झंझावातों का सामना करते हुए तेजस्विनी माता ने शिवाजी महाराज को वीरता, साहस, निर्भय, धर्मनिष्ठा, दयालुता, संवेदनशीलता और स्वतंत्रता के संस्कार दिए। जिजाऊ माँ साहेब के वात्सल की छांव का ही आशीष था कि कंटकाकीर्ण मार्ग पर भी शिवाजी महाराज मुर्झाये नहीं अपितु हीरे की तरह चमक उठे।
जीजामाता ने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया। परंतु उन्हें अपने कष्टों की चिंता नहीं थी, उन्हें पीड़ा थी तो मुगलों के अत्याचार से पीड़ित आम समाज की। ऐसा कहते हैं कि भवानी के सामने आंचल फैलाकर जीजाबाई प्रार्थना करती थीं- “माँ! तुम कैसी माँ हो! माँ! तुम्हारी पुत्रियों के आंचल खींचे जा रहे हैं। उनकी चूड़ियां तोड़ी जा रही हैं। उनकी माँग उजाड़ी जा रही हैं। नाना प्रकार से धर्म पर आघात हो रहा है। फिर भी तुम चुप हो! माँ! तुम्हारा वह पराक्रम कहाँ गया, जिससे तुमने महिषासुर का वध किया था और जिससे तुमने कालिका रूप धारण करके दैत्यों का संहार किया था। माँ! तुम मुझे ऐसा पुत्र दो! जो डूबती हुई धर्म की तरणी का उद्धार कर सके और जो स्त्रियों के आंचल खींचने वालों के हाथ काट सके”। इसी मान्यता के क्रम में आता है कि माँ भवानी ने जीजामाता की प्रार्थना को स्वीकार करके उन्हें शिवा-सा पुत्र दिया।
जिजाऊ माँ साहेब का उल्लेख करते हुए पुस्तक ‘नियति को चुनौती’ में मेधा देशमुख-भास्करन लिखती हैं कि अपने देश के रक्तरंजित इतिहास और दु:खद भविष्य की छाप को मन में लिए शिवाजी की माता जीजाबाई ने अपने नन्हे बेटे के कानों में हौले से क्या कहा होगा, जो विस्मय से पूरे संसार को निहार रहा था और उसकी आंखों में दक्खन पर मंडराने वाले, खूबसूरत पर छलिए आसमान का निष्पाप नीलापन झलक रहा था? यदि कोई और महिला होती तो ऐसी निराशा के बीच सुबकियां भरते हुए, अपने पुत्र के अंधकारमय भविष्य की कल्पना के सिवा कुछ न कर पाती। उन दिनों केवल इसी बात का चलन था, ‘अगर तुम शांति से जीना चाहते हो या केवल जीना भी चाहते हो तो हुक्म बजाओ और वही करो जो बादशाह या राजा का आदेश हो’। जीजाबाई ने अपने पुत्र को यह सब नहीं कहा होगा क्योंकि वे जाननी थी कि किस तरह हिन्दू योद्धाओं ने मुस्लिम राजाओं को अपनी सेवाएं देते हुए असंख्य कष्ट झेले, जिनमें उनके पिता, भाई और पति भी शामिल थे। वे जिन जाने-माने परिवारों को जानती थीं, वे छोटी-छोटी बातों पर आपस में खून के प्यासे होकर, लड़ते हुए खत्म हो गए। उनके जीवन नष्ट हो गए और बस जिंदा रहने की आस के झूठे भ्रम और विनीत रवैए के तले, क्षत्रिय भावना कहीं कुचल गई। उन्होंने अपने पुत्र से कहा होगा कि उसे ही उन पुरानी जंजीरों को तोड़ना होगा, ‘जब निराशा और लज्जा के बदले में शांति मिलने लगे तो ऐसे में जंग ही सबसे इंसानी चुनाव बचता है’।
शिवाजी महाराज भी चाहते तो अपने पिता के प्रभाव एवं प्रताप के कारण आदिल शाह के दरबार में अपने लिए स्थान बना लेते। उस समय अन्य जागीरदारों एवं राजाओं के पुत्र यही कर रहे थे। शिवाजी महाराज भी ऐसा करते तो वे भी मुस्लिम राजाओं के दरबार में काम करते हुए, वैभव और विलासिता के बीच जीवनयापन करेंगे, उनसे पदवियां हासिल करेंगे और अपने राजा के राज्य की रक्षा के लिए कभी–कभार कोई युद्ध भी लड़ लिया करेंगे। किसी साधारण सरदार के साधारण पुत्र के लिए यह स्वभाविक होता परंतु न तो राजा शाहजी सामान्य थे और न ही शिवाजी महाराज की दृष्टि में स्वार्थ था। शिवाजी महाराज एक ऐसे शूरवीर शाहजी भोंसले के पुत्र थे, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ का बीज बोया था और ऐसी महान देवी के पुत्र थे, जिसने अत्याचारी शासन का नाश करने के लिए उन्हें माँ भवानी से वरदान में माँगा था। हम यह भी कह सकते हैं कि यदि शिवाजी महाराज की माँ जीजामाता न होतीं, तब संभव है कि वे औरंगजेब के मनसबदार बन जाते। जिजाऊ माँ साहेब ने यथास्थिति के साथ बहने की अपेक्षा अपने पुत्र को आदिलशाही, निजामशाही, कुतुबशाही और मुगलिया सल्तनत के अत्याचारी शासन का नाश करने के लिए तैयार किया।
बच्चे के पालन-पोषण में माँ की क्या भूमिका होती है, यह माता जीजाबाई का जीवन देखकर समझना चाहिए। उनका जन्म और विवाह अवश्य ही प्रभावशाली राजघराने में हुआ, लेकिन उन्होंने जीवन में पग-पग चुनौतियों और कष्टों का सामना किया। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीजामाता ने कभी धैर्य नहीं खोया। उन्होंने शिवाजी जैसे महान चरित्र को गढ़ने में अपनी सारी शक्ति, योग्यता और बुद्धिमत्ता लगा दी। शिवाजी को बचपन से भारतीय आख्यान की गौरवपूर्ण कहानियां सुनाकर उनके हृदय में स्वराज्य का बीजारोपण कर दिया। वे नि:संदेह दिव्य आत्मा थीं, जिन्होंने अपनी आँखों के स्वप्न को अपने पुत्र के हृदय में उतार दिया। माता के दिखाए मार्ग पर चलकर ही शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य और हिन्दू पदपादशाही की स्थापना की। उनकी प्रेरणा से ही निर्भय होकर शिवाजी ने अधर्म का नाश किया और धर्म की जय की।
जिजाऊ माँ साहेब का समाधी स्थल :
सह्याद्रि की उत्तुंग शिखरों पर शासन करनेवाले महान हिन्दू राजा छत्रपति शिवाजी महाराज, जिन जीजामाता की गोद में खेलकर बड़े हुए थे, उन्हीं लोकमाता ने अपनी अंतिम सांस सह्याद्रि की गोद में ली। उनका स्मृतिस्थल भी सह्याद्रि की गोद में बसे पाचाड में बनाया गया है। यहाँ खुली जगह में सुव्यवस्थित स्थान पर राजमाता का स्मृतिस्थल है। महान साम्राज्य की राजमाता होकर भी जैसा सादगीपूर्ण जिजाऊ माँ का जीवन था, उसी सादगी के अनुरूप उनके स्मृतिस्थल को भी संभाल कर रखा गया है। यहाँ एक चौकोर चबूतरे पर चार पाषाण स्तम्भों पर आधारित छतरी निर्मित है, जिसमें चारों दिशाओं में मेहराब हैं। छतरी के मध्य में राजमाता जिजाऊ माँ साहेब की प्रतिमा स्थापित की गई है। प्रतिमा के सामने तुलसी का बिरवा है, जो जीजामाता के धार्मिक व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता है। परिसर में छोटे-छोटे बाग-बगीचे हैं, जिनमें खिलते पुष्प स्वराज्य की सुगंध बिखेर रहे हैं। श्रीशिव छत्रपति महाराज का राज्याभिषेक के ठीक बारहवें दिन यानी ज्येष्ठ कृ. नवमी दिनांक 17 जून 1674 को रात्रि लगभग बारह बजे जीजामाता का देहावसान हो गया था। पुत्र के राज्याभिषेक का समारोह देख कृतार्थ मन से लोकमाता जिजाऊसाहेब ने प्राण त्याग दिए। मानो, वे अपने पुत्र शिवा को सिंहासनारूढ़ होते देखने के लिए ही प्रतीक्षारत थीं। मानो, वे भारत में ‘रामराज्य’ की स्थापना के दिन की प्रतीक्षा में ही रुकी हुई थीं। उन्होंने जिस भगवा ध्वज को राम-कृष्ण के हाथों में देखा था, उसे श्रीरायगढ़ पर सिहासनारूढ़ महाराजधिराज श्रीशिव छत्रपति के हाथों में देखकर उनकी अभिलाषा पूर्ण हुई और वे वैकुंठ लोक को चल पड़ीं।
- लोकेन्द्र सिंह
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। आपका बहुचर्चित यात्रा वृत्तांत पुस्तक रूप में ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ शीर्षक से प्रकाशित है।)