पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का जीवन एक अनंत पृष्ठों की सजीव-सचित्र पुस्तक के समान है इसे जितना स्पर्श करो तो महसूस होगा कि अभी तो बहुत कुछ जानने के लिए शेष है मानो अटल जी ने क्षणों व पलों को घंटों में बदल कर दिन को 24 घंटे से भी अधिक सप्ताह को 7 दिन से भी अधिक व वर्ष को 365 दिन से भी अधिक जिया हो। जनसंघ की विकास यात्रा में दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल जी आदि नेताओं ने अपना श्रम तप लगाया था। जनसंघ को विसर्जित करते समय अश्रु प्रवाह स्वाभाविक था। कुछ समय बाद जनता पार्टी में कलह हुई। जनसंघ घटक के सदस्यों पर दोहरी सदस्यता का आरोप लगा। अटल जी ने एक जनसभा में चुटकी ली, उन्होंने कहा, ‘उन्होंने पहले प्यार किया, संबंध बनाए। संबंधों का लाभ उठाया और अब हमसे हमारा गोत्र व वंश पूछते हैं।‘ जब जनसंघ घटक अलग हो गया तो अटल जी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी बनी, उनके नेतृत्व का जादू बढ़ता गया। वही जादू पार्टी को सत्ता तक ले गया।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे अनुपम राजनेता थे जिन्होंने स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात भी अपना जीवन देश और देशवासियों के उत्थान एवं कल्याण हेतु लगाया। उनके कार्यों से देश का मस्तक ऊंचा हुआ। अटल जी का राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव शुरू से प्रबल था। इसी विचारधारा ने उन्हें 21 अक्टूबर 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा स्थापित भारतीय जनसंघ से जोड़ा। वह 1957 में भारतीय जनसंघ के 4 सांसदों में से एक थे। तब से लेकर देश का प्रधानमंत्री बनने तक अटल जी ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन के असंख्य उतार-चढ़ाव देखे।
वाजपेयी जी मतभेद रखने वालों से भी संवाद करते थे। चाहे वह विपक्ष में रहे या सरकार में, उनका रवैया कभी नहीं बदला। वह एक बेमिसाल वक्ता थे और इसलिए उनका भाषण सुनने के लिए लोग घंटों उनका इंतजार करते थे। वर्ष 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण वाजपेयी सरकार के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। उन्होंने लीक से हटकर पाकिस्तान के साथ शांति के लिए काम किया। एम्स में एक बार डॉक्टर ने वाजपेयी जी से पूछा था, क्या आप झुक गए थे तब उन्होंने आपातकाल के संदर्भ में कहा, ‘झुकना तो सीखा नहीं डॉक्टर साहब। मुड़ गए होंगे।' बाद में उन्होंने लिखा टूट सकते हैं मगर झुक नहीं सकते।
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सहमति बनाकर सत्ता कैसे चलानी चाहिए और सत्ता चलानी पड़े तो सहमति कैसे बनाई जानी चाहिए इस सोच को जिस तरह वाजपेयी जी ने अपने राजनीतिक जीवन में उतारा, उसी का असर रहा कि नेहरू ने जीते जी युवा वाजपेयी की पीठ ठोकी। इंदिरा गांधी भी अपने समकक्ष वाजपेयी जी की शख्सियत को नकार नहीं पाईं। डॉ. कमल किशोर गोयनका एक प्रसंग बताते हैं कि ‘अटलजी लिखने-पढ़ने वालों की मदद भी अपने ही अंदाज में करते थे 1994 में मुझे बेटे का नागपुर के एक शिक्षण संस्थान में दाखिला कराना था। नानाजी देशमुख ने मुझे अटल जी के पास भेजा। तब अटल जी ने मुझे संस्थान संचालक के नाम पत्र देकर भेजा। उन्होंने पत्र में दो टूक लिखा कि ध्यान रहे, इन्होंने सरस्वती की साधना की है, लक्ष्मी की नहीं। इसके पीछे आशय था कि इनसे डोनेशन मत लेना।
अटल जी अपने देश के ऐसे महान नेताओं में थे जिन्हें लोग राजनेता या प्रधानमंत्री के रूप में ही महान नहीं मानते थे बल्कि एक विशाल अंत: करण वाले, उदारमना, सहिष्णु वृत्तिवाले तथा सहृदय मानवतावादी, संवेदनशील, विश्व एकात्मता प्रबल अनुभूति वाले प्रखर हिंदू के नाते, कवि मन वाले इस कविराय की कविताएं, देशभक्ति, मानवीय संवेदनाओं तथा राष्ट्रीय कर्तव्यबोध से भरी हुई थीं। आपातकाल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी जी जैसे विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था । अटल जी को कारागार में तब्दील एम्स में रखा गया था। 25 जून 1975 की उस काली रात ने 26 जून के समाचार पत्रों के संपादकीय लेखों को निगल लिया था। इस त्रासदी की पीड़ा उनकी कविता के माध्यम से निकली अनुशासन के नाम पर अनुशासन का खून।
भंग कर दिया संघ का कैसा चढ़ा जुनून।।
कैसा चढ़ा जुनून, मात्र-पूजा प्रतिबंधित।
कोटल कर रहे केशव-कुल की कीर्ति कलंकित।।
कह कैदी कविराय, तोड़ कानूनी कारा।
गूंजेगा भारत माता की जय का नारा।।
अटल जी 1957 में बलरामपुर से लोकसभा चुनाव जीतकर प्रथम बार संसद पहुंचे, उस समय जनसंघ के चार सांसद चुने गए थे। उस कालखंड में संसद में उपेक्षा पर अटल जी कहते थे कि, ‘भारतीय जनसंघ के हम चारों सदस्य संसद में पहली बार आए थे, हममें से कोई विधानसभा का सदस्य भी नहीं रहा था। विधायी कार्य के लिए सर्वथा नए थे। ना कोई पूर्व अनुभवी सदस्य ही सहायता के लिए उपलब्ध था। संख्या कम होने के कारण सभी सदस्यों को सदन में पिछली बैंचों पर स्थान मिले थे। लोकसभा अध्यक्ष की नजर खींचना टेढ़ा काम था। विभिन्न विषयों पर चर्चा में समय पार्टियों के संख्या बल के अनुसार मिलता है। छोटे दलों के सदस्यों को बोलने के लिए पहले भी समय नहीं मिलता था। अटल जी ने अपने छात्र जीवन में उक्त पंक्तियां लिखीं-
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता
आज़ादी अभी अधूरी हैI
सपने सच होने बाकी हैं
रावी की शपथ न पूरी हैI
जिनकी लाशों पर पग धरकर
आजादी भारत में आई,
वे अब तक हैं खानाबदोश
गम की काली बदली छाईI
जिस दिन यह कविता लिखी गयी, उसी दिन अटल जी ने अपने छात्रावास के प्रथम स्वाधीनता समारोह में मंच से भाषण दिया थाI समारोह में भाग लेने के लिए आगरा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति लाला दीवान चंद्र पधारे थे। कानपुर का डी॰ए॰वी॰ कॉलेज उस समय आगरा विश्वविद्यालय से ही सम्बद्ध था। अटल जी ने भाषण दिया तो खुश होकर लाला दीवान चंद ने अपने कोट के अंदर की जेब से दस रुपये का नोट निकालकर अटल जी को दिया। अटल जी के शब्द थे मुझे जीवन में अनेक पुरस्कार मिले हैं। जिनमें कीमती पुरस्कार भी शामिल हैं किंतु प्रोफेसर दीवान चंद के दिए दस रुपये मेरे जीवन की अमूल्य निधि है। अटल जी द्वारा खड़ा किया गया वैचारिक आधार आज वटवृक्ष की तरह भारत की संस्कृति, सभ्यता को ढंके हुए है। वास्तव में आज अटल जी हम सबके बीच में नहीं हैं लेकिन उनके विचार की दिव्यता, काव्य का मनोबल, संघर्ष की जिजीविषा यूं ही अक्षुण्ण बनी हुई है।
-मयंक गुप्ता