विरोध का भी एक तरीका होता है, संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा भंग करना ठीक नहीं

By ललित गर्ग | Sep 25, 2020

राज्यसभा में विपक्ष द्वारा कृषि विधेयकों के विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच तकरार, आठ सांसदों का निलंबन और इन स्थितियों से उत्पन्न संसदीय गतिरोध लोकतंत्र की गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा और नारेबाजी की स्थितियां कैसे लोकतांत्रिक कही जा सकती हैं? जिन आठ सांसदों को राज्यसभा से निलंबित किया गया है, उनके पक्ष में आधे से ज्यादा विपक्ष एकजुट हो गया, कहां निभा रहा विपक्ष अपनी भूमिका? इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि किसान हित के नाम पर अपने-अपने अहं की चिन्ता एवं बिना विधेयकों की मूल भावना को समझे विरोध की राजनीति की जा रही है। विपक्ष इन कानूनों के खिलाफ आम जनता एवं किसानों को बरगलाने, भ्रमित एवं गुमराह करने के लिये छल-कपट एवं झूठ का जमकर सहारा ले रहा है।


संसदीय लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं हैं, वह पक्ष-विपक्ष की शर्तों से नहीं, आपसी समझबूझ एवं आपसी सहमति की राजनीति से चलता है। विपक्ष की प्रमुख तीन मांगों में से सबसे बड़ी मांग यह थी कि सांसदों का निलंबन वापस लिया जाए। इसका मतलब तो यह हुआ कि विपक्ष चाहता था कि पीठासीन अधिकारी के समक्ष की गई अभद्रता एवं आक्रामकता की अनदेखी कर दी जाये। इससे तो संसदीय मर्यादाएं बार-बार भंग होती रहेंगी एवं संसद में हुड़दंग मचाने, अभद्रता प्रदर्शित करने एवं हिंसक घटनाओं को बल देने के परिदृश्य बार-बार उपस्थित होते रहेंगे। गलत को गलत न मानने की हठ को कैसे स्वीकार्य किया जा सकता है? यह कैसी हठधर्मिता है कि सदन की गरिमा से खिलवाड़ करने वाले सांसदों के निलंबन के बाद विपक्ष यह मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने कुछ गलत किया है।

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विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि जब सत्तापक्ष सांसदों के निलंबन रद्द करने पर विचार करने को तैयार था तब फिर विपक्ष को भी चाहिए था कि वह अपना हठ त्यागें। यह विपक्ष की हठधर्मिता ही है कि निलंबित सांसद राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश की सद्भावना पहल पर भी झुकने को तैयार नहीं थे। संसद भवन के प्रांगण में धरने पर बैठे विपक्षी सांसदों के लिए जब उप-सभापति सुबह चाय लेकर पहुंचे, तब भी बात नहीं बनी। एक तरह से साबित हो गया कि भारतीय राजनीति में परस्पर विरोध कितना जड़ एवं अव्यावहारिक है। हमारे राजनेता जब टकराव पर उतरते हैं, तो शायद नहीं सोचते कि देश में क्या संदेश जा रहा है। क्या भारतीय राजनीति में आज इतनी शालीनता भी नहीं बची कि अपनी गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर आगे ऐसी त्रासद घटनाओं के न होने के लिये संकल्पित हों। पिछले संसद सत्रों की तारीफ होने लगी थी, लेकिन वर्तमान मानसून सत्र पुरानी भलमनसाहत को किनारे रखकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर चलने लगा है। इस बार राजनेताओं के बीच पनपा गतिरोध कहां रुकेगा, शायद वही बता सकते हैं।


यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम लोकतांत्रिक आचरण और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके हैं। संसद के सदस्यों के सदन के भीतर व्यवहार करने और आचरण करने की पूरी नियमावली (मैनुअल) है परन्तु अब तक इसका पालन करने में लगातार कोताही बरती गई है जिसकी वजह से सदन के भीतर कभी-कभी वातावरण असहज, अशालीन एवं असभ्य बनता रहा है। नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, उनकी काबिलीयत और चरित्र को गढ़ने का काम भी लोकसभा-राज्यसभा ही करती हैं। संविधान की शब्दधाराओं को ही नहीं उसकी भावना को महत्व देने के गुणों का विकास भी यहीं से होता है। बोलने की आजादी का सदुपयोग करना भी यहीं पर सिखाया जाता है। भारत का लोकतंत्र दुनिया का आदर्श लोकतंत्र इसलिये है कि यहां जहां विपक्ष को अपनी बात कहने का अधिकार है, वहीं सत्तापक्ष की यह जिम्मेदारी है कि वह उसकी बात सुने। लेकिन यह कैसे संभव है कि कोई एक पक्ष अपनी मनमर्जी करे, जो वह चाहे वही सदन में हो, इस पर अड़ा रहे, यह कैसे संभव है? यदि जबरन विधेयक पास नहीं कराये जाने चाहिए तो उन्हें बलपूर्वक रोका भी नहीं जाना चाहिए। लोकतंत्र में संख्या बल मायने रखता है, इसलिये उसका मान भी रखा जाना चाहिए। विपक्ष यदि कमजोर होकर सत्तापक्ष के शासन में अनुचित अड़ंगा लगाता है तो इसे लोकतंत्र को आहत करना ही कहा जायेगा।

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कृषि विधेयकों के पारित होते समय ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ। जब सत्तापक्ष एवं विपक्ष दोनों ही किसानों के हित के लिये तत्पर हैं तो किसानों के हितों से जुड़े विधेयकों पर विरोध के बादल क्यों मंडराये? विपक्ष की कृषि विधेयकों से जुड़ी दो मांगें विचारणीय हैं, जिन पर आम-सहमति बननी चाहिए। जिनमें एक मांग है, एक ऐसा कानून बने, ताकि कोई भी निजी खरीददार या कंपनी किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर अनाज या उपज न ले सके। यह मांग तार्किक भी है और किसानों के, देश के हित में भी। किसानों के पक्ष में सोचने वाली कोई भी सरकार कभी नहीं चाहेगी कि एमएसपी से कम कीमत पर किसानों से कोई खरीद हो। एक अन्य मांग है, सरकार या फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया यह सुनिश्चित करे कि किसी भी किसान से एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद न हो। इससे जुड़ी हुई ही एक और अच्छी मांग है, एमएस स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के अनुसार ही न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो। भला इन मांगों को मनवाने के लिये संसद का विरोध क्यों? संसद का कामकाज क्यों बाधित किया जाये। यह त्रासद स्थिति ही है कि जब किसानों को यह संदेश देने की जरूरत है कि संसद उनके हितों की रक्षा को तत्पर है, तब पक्ष-विपक्ष में टकराव एवं तकरार राजनीति की विसंगतियों को ही उजागर कर रही है।


देश हित के महत्वपूर्ण विधेयकों के बनने में बाधा डालना राजनीतिक विसंगति का ही द्योतक है। जबकि हमारी रणनीति ऐसी होनी चाहिए कि छोटे, मध्यम और बड़े गांव शहरों से सीधे जुड़ सकें, देशहित के मुद्दों पर सकारात्मक राजनीति की पहल हो। यह जुड़ाव सिर्फ आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (सड़क, बाजार, बिजली आदि) से नहीं हो, बल्कि यह सामाजिक स्तर पर भी दिखना चाहिए। हमें सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि शहरों में रहने वाले लोगों की आय बढ़े। किसानों की आमदनी एवं गांवों की खुशहाली किस तरह से बढ़े, इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है और कृषि विधेयक इन्हीं महत्वपूर्ण दिशाओं पर केन्द्रित है और भारत की भावी आर्थिक परिदृश्यों की सुदृढ़ता इन्हीं कृषि विधेयकों पर टिकी है। कोरोना महामारी से ध्वस्त हुई अर्थ-व्यवस्था को केवल कृषि के बल पर ही रोशनी मिलती दिख रही है तो कृषि विधेयकों के नाम पर देश में सकारात्मक संदेश जाना जरूरी है। किसान भारत में किसी भी अन्य देश की तुलना में ज्यादा संवेदनशील और सशक्त है। किसानों के संगठन भी सशक्त हैं, पर इनसे कौन कितनी चर्चा कर रहा है? भारत की अस्तव्यस्त अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये देश में निजी कंपनियों का वजूद भी कायम रहे और किसान भी सशक्त बने।  किसान तभी मजबूत होगा वह देश के किसी दूसरे कोने में जाकर अपना उत्पाद बेच सकेगा, पर इसके साथ ही, मंडी और एमएसपी की मौलिक भारतीय व्यवस्था को भी मजबूत रखने की जरूरत है। केंद्र सरकार इन्हीं बातों को बार-बार दोहरा चुकी है कि मंडी और समर्थन मूल्य की व्यवस्था बनी रहेगी। ऐसे में, अविश्वास एवं विरोध भारतीय राजनीति या किसान समाज में क्यों पैदा हो रहा है? उसे दूर करने की जिम्मेदारी भले सरकार पर ज्यादा हो, लेकिन इस कार्य में विपक्ष को भी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। तमाम किसान संगठनों के साथ मिलकर देश को आश्वस्त करने का समय है, ताकि किसानों के नाम पर शुरू हुई राजनीति का संतोषजनक पटाक्षेप हो।


-ललित गर्ग

(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)

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