मोदी विरोध करते करते मानवता को ही नुकसान पहुँचाने लगे जमात के लोग

By ललित गर्ग | Apr 04, 2020

आज जब देश-दुनिया कोरोना वायरस के कहर के बीच जीवन और मृत्यु के बीच संघर्षरत है, भारत में भी इसके खौफ के चलते सोशल डिस्टेंसिंग पर जोर दिया जा रहा था और हर तरह के जमावड़े से बचने की नसीहत-हिदायत भी दी जा रही थी तब दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तबलीगी जमात के एक केंद्र में तमाम प्रशासनिक हिदायतों की धज्जियां उड़ रही थीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में समूचा देश इस महासंकट से जूझते हुए दुनिया के अन्य देशों की तुलना में स्वयं को बचाए हुए था, लेकिन एक धर्म-विशेष के लोगों की नादानी की वजह से यह सुरक्षा एवं जीवन को बचाने का बांध अब टूट गया है। कुछ धर्म-विशेष के लोग सामने मौत देखकर भी इस कोशिश में जुटे रहे कि कैसे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को नाकाम किया जाए। क्योंकि इसकी घोषणा नरेंद्र मोदी ने की है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं। तबलीगी जमात के मौलाना साद कहते हैं, ‘अगर तुम्हारे तजुर्बे में यह बात है कि कोरोना से मौत आ सकती है तो भी मस्जिद में आना बंद मत करो, क्योंकि मरने के लिए इससे अच्छी जगह और कौन-सी हो सकती है।’ उन्होंने तो कोरोना को मुसलमानों के लिये एक षड्यंत्र तक कह दिया। यह कैसा धर्म है ? यह कैसी धार्मिकता है ? जो अपने ही समुदाय के लोगों के साथ-साथ समूची मानवता के जीवन को संकट में डाल दिया है। यह एक अक्षम्य महापाप है।

 

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साफ है कि तबलीगी जमात के आयोजकों ने अपनी लापरवाही से पूरे देश के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया। हालांकि आयोजक इस दलील के सहारे खुद को निर्दोष बता रहे हैं कि देशव्यापी लॉकडाउन के बाद तमाम लोग उनके यहां फंस गए और पुलिस ने उन्हें निकालने के अनुरोध की अनदेखी की, लेकिन सवाल यह है कि जब लॉकडाउन के काफी पहले ही दिल्ली सरकार ने लोगों के जमावड़े पर रोक लगा दी थी तब फिर इस धार्मिक स्थल में लोगों का आना-जाना क्यों लगा रहा ? लॉकडाउन होने के बाद तो पांच से अधिक लोगों के एक जगह एकत्र होने पर भी पाबंदी थी तो यह लोग इतनी बड़ी संख्या में क्यों और कैसे जमावड़ा किये रहे। यह अनुत्तरित प्रश्न आयोजकों की लापरवाही की ही पोल खोल रहा है। प्रश्न तो और भी बहुत सारे हैं जिनमें समूचे मानव जीवन पर संकट बने कोरोना को भी धार्मिक रंग देने की कुचेष्टाएं हुई हैं।


यह कुचेष्टा ही है कि इस मौलाना के मुताबिक कोरोना कोई बीमारी नहीं, दूसरे धर्म के लोगों की साजिश है मस्जिदें बंद करवाने की। मौलाना के इस अतिश्योक्तिपूर्ण ज्ञान एवं संकीर्ण धार्मिक नजरिये का नतीजा यह हुआ कि जमात में आए लोगों ने देश के 19 राज्यों में कोरोना वायरस के संक्रमण का बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। मौलाना को कोई बताए कि जिन संक्रमित तब्लीगियों की मौत हो रही है उनमें से कोई मस्जिद में नहीं मर रहा। इससे सबके मन में अहित होने की अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठ रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। धार्मिक, राजनीतिक व क्षेत्रीय संकीर्णता के ऐसे उदाहरण एक ही बात की ओर इशारा करते हैं कि यह निहित स्वार्थ एवं संकीर्णता राष्ट्रहित पर भारी पड़ रहे हैं। ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो संकट के समय भी अपने राजनीतिक हित की तलाश में रहते हैं और उसके लिए किसी हद तक जाने को तैयार हैं। बावजूद इसके मोदी हैं जो दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन का जोखिम उठाने को तैयार हैं, ताकि लोगों का जीवन बच सके। उन्हें चिंता है अपने देशवासियों की। वह हाथ जोड़कर कह रहे हैं कि अपनी सुरक्षा के लिए घर पर रहें।

 

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तबलीगी जमात के कर्ता-धर्ता अपनी सफाई में कुछ भी कहें, यह किसी से छिपा नहीं कि अन्य देशों और खासकर पाकिस्तान से भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं कि इस जमात के लोग मजहबी प्रचार के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की धुन में सरकारी आदेशों-निर्देशों को ठेंगा दिखाकर जमावड़ा लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। निःसंदेह इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि निजामुद्दीन में कई देशों के ऐसे मजहबी प्रचारक मिले जिन्होंने वीजा नियमों का भी उल्लंघन किया। उल्लंघन तो इन्होंने मानव मूल्यों एवं मानवता का भी किया है। ऐसी जटिल एवं त्रासद स्थिति में रोषभरी टिप्पणियों व प्रस्तावों से कोरोना महामारी से लड़ा नहीं जा सकता। कोरोना से लड़ना है तो दृढ़ इच्छा-शक्ति चाहिए, न कि धार्मिक आग्रह, स्वार्थ, संकीर्णता एवं जड़ता। जैसे शांति, प्रेम खुद नहीं चलते, चलाना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार धर्म-विशेष की स्वार्थी-संकीर्ण सोच भी दूसरों के पैरों से चलती है। हमें कोरोना को समाप्त करने के लिये उसके पैर लेने ही होंगे, तभी वह पंगु हो सकेगा। निरंकुश आचरण से राजनीतिक-धार्मिक चरित्र नहीं बनता और व्यवस्था तो बिना भय के संभव ही नहीं है। जैसे ''भय के बिना प्रीत नहीं होती'', वैसे ही भय के बिना सुधार भी नहीं होता। जमात में शामिल लोगों के संक्रमण से होने वाली मौतों का जिम्मेदार इसी मौलाना को माना जाना चाहिए और इसी के मुताबिक उसके खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। मौलाना का कृत्य पूरे देश के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है। तब्लीगियों की इस करतूत से भी ज्यादा आश्चर्य और क्षोभ की बात यह है कि कई लोग मौलाना के समर्थन में खड़े हो गए हैं।


राष्ट्र में जब राष्ट्रीय मूल्य कमजोर हो जाते हैं और सिर्फ निजी एवं राजनीतिक हैसियत को ऊँचा करना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है तो वह राष्ट्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है। यह विरोधाभास नहीं, दुर्भाग्य है, जिसकी भी एक सीमा होती है, जो पानी की तरह गर्म होती-होती 50 डिग्री सेल्सियस पर भाप की स्थिति में पहुंच जाता है। कुछ राजनेता एवं मुख्यमंत्री अपनी इसी संकीर्ण राजनीतिक सोच से एक विडम्बना बने हुए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने प्रदेश में रह रहे प्रवासी मजदूरों को निकालने की जुगत करते हैं। वे चार लाख लोगों को खाना खिलाने का दावा करते हुए जितनी बार टीवी स्क्रीन पर आते हैं, जितनी राशि उनके भोजन पर खर्च की होगी उससे अधिक राशि तो उसके प्रचार में खर्च कर चुके होंगे, यह कैसी जनसेवा है ? लेकिन सच्चाई यही है कि उन्होंने ही दिल्ली में उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों को दिल्ली छोड़ने के लिए मजबूर किया था और इसके लिये नियमों का उल्लंघन करते हुए इतनी भीड़ को सड़कों पर ले आये थे, इससे कोरोना के बढ़ने की संभावनाओं को पंख लगे थे, अफरातफरी का माहौल बना। बड़ी चतुराई से अफवाह फैलाई गई कि उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसें खड़ी हैं, आप सबको अपने-अपने क्षेत्रों एवं गंतव्य तक ले जाने के लिए। इसके बाद डीटीसी की बसें लगाकर उन्हें उप्र की सीमा पर छोड़ भी दिया गया, जहां सड़कों पर भीड़ ही भीड़ थी, जबकि इसी सरकार ने 5 से अधिक लोगों के एक जगह एकत्र होने पर पाबंदी लगाई थी। 


राष्ट्रीय आपदा के इस दौर में यह जो मानवता विरोधी काम किया गया वह देश हित में है या विरोध में, यह तो दिल्ली की जनता को ही तय करना होगा। लेकिन यह एक शर्मसार करने वाला घटनाक्रम था। शर्म जब बिकाऊ हो जाती है या राजनीतिक स्वार्थसिद्धि का हथियार बन जाती है तब शर्म नहीं रहती, स्वार्थ हो जाती है। अभी तराजू के एक पलड़े में राजनीतिक स्वार्थ है और दूसरे पलड़े में लोगों के जीवन की रक्षा है। देह से जो पवित्र अभिव्यक्ति होती है वह गायब है। देह को केवल चर्म मान लिया जाता है और चर्म का प्रदर्शन चर्म तक पहुंच गया है। केजरीवाल जैसे नेता इनके सहारे अपना राजनीतिक उत्पाद बेच रहे हैं और उनके प्रचार-कार्यक्रमों को प्रायोजित कर रहे हैं। उनके लिए सब कुछ सत्ता एवं स्वार्थ है। जीवन मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। बहुत विस्फोटक स्थिति हो गई है।


-ललित गर्ग


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