साक्षात्कारः तिब्बत की निर्वासित संसद के डिप्टी स्पीकर ने भारत को सतर्क रहने की दी सलाह

By डॉ. रमेश ठाकुर | Jul 27, 2020

तिब्बत की निर्वासित सरकार ने उन खबरों का पुरजोर विरोध किया है जिनमें ये कहा जा रहा है कि तिब्बत का 'झुकाव चीन की तरफ बढ़' रहा है। तिब्बत ने इन खबरों को चीन की गहरी चाल बताया है, अधिकृत रूप से खंडन किया है। अपनी सफाई में वहां की निर्वासित संसद के डिप्टी स्पीकर आचार्य यशी फुंटसोक ने डॉ0 रमेश ठाकुर के साथ बातचीत की। पेश है इस बातचीत के मुख्य अंश।


प्रश्न- मीडिया रिपोर्टस् कहती हैं कि तिब्बत का झुकाव चीन की तरह बढ़ रहा है ?


उत्तर- चीन बड़ा चालबाज मुल्क है इस सच्चाई को हमें समय रहते समझ लेना चाहिए। तिब्बत का रुझान चीन की तरफ है ऐसी खबरें चीनी मीडिया ने अपनी सरकार के आदेश पर प्लांट की और फैलाई। हम ऐसी सभी खबरों का अधिकृत रूप से खंड़न कर चुके हैं। यह अफवाह मात्र हैं, कोई सच्चाई नहीं। हमारा स्टैंड साफ है, जो दशकों से रहा है वह अभी है और आगे भी रहेगा? वैसे आप जिस संदर्भ में पूछना चाह रहे हो, मुझे आभास है। यह कहना चाहूँगा कि यह सब चीन की चालबाजी है, पैंतरेबाजी है। हमारी रिश्ते खराब कराना चाहता है। भारत सरकार अच्छे से जानती है हमारा रूख किस तरफ है। हमें बिलावजह सफाई नहीं देनी। तिब्बत की हमेशा से एक अलग राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक पहचान रही है। पर, चीन उसकी इसी पहचान को मिटाने की फिराक में लगा रहता है। चीन की इसी अदूरदर्शिता की वजह से तिब्बत का मसला सालों से उलझा है।


प्रश्न- गलवान की स्थिति क्या है। विपक्षी दलों का आरोप है कि कुछ छिपाया जा रहा है। आप उनके आरोपों से कितना इत्तेफाक रखते हैं?


उत्तर- वहां दोनों तरफ से तनातनी का माहौल है, सभी को पता है। वैसे, हिंदुस्तान की आर्मी कमजोर नहीं है उन्हें जवाब देना आता है और दिया भी। भारत से ज्यादा वहां के सैनिक हताहत हुए। वह अलग बात है चीन की मीडिया पर वहां की सरकार का पूर्ण नियंत्रण है। चीनी सैनिकों के मरने की खबर को उन्होंने उजागर नहीं किया। उनको पता था, सच्चाई सार्वजनिक करने से उनकी ग्लोबल स्तर पर थू-थू जो हो जाएगी। भारत जैसी आजादी वहां की मीडिया को नहीं है। मैं दावे से कह सकता हूं भारत से ज्यादा वहां के सैनिक हताहत हुए हैं।


प्रश्न- जिस तरह से चीन तिब्बत का लंबे समय से सांस्कृतिक नरसंहार करता आया है, क्या इसका कभी अंत होगा भी या नहीं?


उत्तर- देखिए, हम उनसे आजादी नहीं, बल्कि सिर्फ स्वायत्तता मांगते हैं। इसके लिए दुनिया से भी मदद की गुहार लगाते हैं। लेकिन चीन अपने हरकतों से बाज आए तब ना। हमें तो इस बात की हैरानी होती है कि 1993 से लेकर भारत चीन के साथ सीमा विवाद को लेकर 17वीं बार बैठकें कर चुका है। पर नतीजा हमेशा पीठ में छुरा घोंपने जैसा आया। गलवान में भी यही सब कुछ देखने को मिला। निहत्थे सैनिकों पर उन्होंने हमला करके अपनी दुर्दांत सोच से परिचय कराया है। इन्हें रत्ती भर शर्म नहीं आती। जो बौद्ध भिक्षुओं हमेशा न सिर्फ स्वयं अहिंसा के अनुयायी रहे बल्कि दुनिया को भी हमेशा अहिंसा के रास्ते पर चलने का संदेश दिया, आज वह निर्वासितों जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। चीन ने आधी से ज्यादा हमारी भूमि पर जबरन कब्जा किया हुआ है। अगर भारत का हमारे पर सहारा न होता, तो पता नहीं हमारे साथ क्या होता।

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प्रश्न- सामरिक रूप से भारत तिब्बत के साथ है। फिर भी आपके मूवमेंट का उतना असर दिखाई नहीं पड़ता?


उत्तर- तिब्बत में छह दशकों से रह रहे तिब्बती चीनियों की दमनकारी नीतियों के चलते नर्क जैसा जीवन जीने पर मजबूर हैं। अपनी धार्मिक मान्यताओं, अनोखी सांस्कृतिक विरासत तथा राष्ट्रीयता के बोध, उन्हें इस आस से बांधे हुए हैं कि एक दिन आजादी मिलेगी। इस उम्मीद से दशकों से शांतिपूर्ण ढंग से अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। 10 मार्च 1959 की घटना को याद करते हैं तो आंखें आज भी नम हो जाती हैं। इस दिन हमारे शांतिपूर्ण मार्च पर चीन ने ना सिर्फ दमनात्मक कार्रवाई की बल्कि खून खराबा करके सैंकड़ों बौद्ध भिक्षुओं को मारा। हमारे धर्म गुरु दलाई लामा सालों से उक्त घटना की निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय जांच की मांग कर रहे हैं। ताकि दुनिया के सामने चीन का असली चेहरा सामने आ सके।


प्रश्न- चीनी सामानों का बहिष्कार भारत में हो रहा है। इस कदम को आप कैसे देखते हैं?


उत्तर- देखिए, किसी दुश्मन को जब उसकी औकात दिखानी हो तो सबसे पहले उसको आर्थिक दंड देना चाहिए। भारत सरकार का फैसला निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। भारत का बाजार चीन की कमाई का बड़ा जरिया रहा है। करोड़ों की आमदनी खाता है। इस पर चोट पड़नी जरूरी है। चीन खुलेआम मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है, धार्मिक आजादी पर पाबंदी और धार्मिक मुद्दों का राजनीतिकरण करने का माहिर खिलाड़ी है। भारत का आशीर्वाद तिब्बत पर रहता है, ये बात उसे हमेशा से अखरती रही है। वह कभी नहीं चाहता कि दोनों देशों के संबंध मधुर हों। लेकिन दोनों मुल्कों के रिश्ते बहुत अटूट हैं। तिब्बत का बच्चा-बच्चा भारत के उपकारों का गुण गाता है। भारत को हम अपना दूसरा घर मानते हैं। सार्वजनिक मंचों पर ये बात दलाई लामा भी कई मर्तबा बोल चुके हैं।


प्रश्न- चीन तिब्बत को कभी आजाद करेगा भी या नहीं?


उत्तर- समय सबका बदलता है। चीनी का तिब्बत पर सन 1951 से कब्जा है जिसकी स्वायत्ता की मांग हम करते आ रहे हैं। देखिए, हम अलग देश की मांग नहीं कर रहे हैं, सिर्फ अपनी उस स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं जिससे हम खुली फिजा में सांस ले सकें। अपने धर्म, संस्कृति और रीति−रिवाजों की रक्षा कर सकें। मैंने खुद हमेशा चीन सरकार से ऐसी नीति अमल में लाने की अपील की है जो दोनों के निहितार्थ हो और ऐसा आम सहमति से ही मुमकिन है। सन 2002 से लेकर अब तक हमारे प्रतिनिधियों ने चीन गणराज्य की सरकार से इस मुद्दे पर कई राउंड की वार्ताएं कीं। इससे चीन सरकार के कुछ संदेह तो साफ हुए मगर मूल मुद्दे पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।


प्रश्न- आपको लगता है भारत−चीन के बीच युद्ध जैसे हालात बन चुके हैं?


उत्तर- स्थितियां परिस्थितियों के हिसाब से बदलती हैं। बौद्ध सभ्यता शांति−अमन का प्रचार करती है। हमने हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया। हम कभी नहीं चाहेंगे कि दोनों देशों के दरमियान युद्ध हो। मसला शांति से सुलझे यही उम्मीद करते हैं। युद्ध समस्या सुलझाने का विकल्प कभी नहीं बना। चीन अपनी छल कपट वाली नीतियों की वजह से न सिर्फ अपना नुकसान कर रहा है बल्कि तिब्बतियों और भारत को भी नुकसान पहुंचाने लगा है। पूर्वी लद्दाख में दोनों तरफ से सेनाओं की तैनाती हो चुकी है। कुछ भी हो सकता है। लेकिन पूरा विश्व बड़ी उम्मीद भरी निगाहों से चीनी नेतृत्व की ओर देख रहा है कि वह किस तरह से सामाजिक एकता और शांति को बढ़ावा देगा, या फिर सब दरकिनार करके सिर्फ अपनी मूर्खता का ही परिचय देगा।


-फोन पर जैसा तिब्बत की निर्वासित संसद के उप-सभापति फुंटसोक ने डॉ. रमेश ठाकुर से कहा।

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