विश्व साक्षरता दिवसः भारत की प्रगति में बाधक है निरक्षरता

By टीम प्रभासाक्षी | Sep 08, 2022

शिक्षा एक सभ्य, सक्षम व सुदृढ़ समाज की आधारशिला होती है। किसी भी देश के विकास के स्तर को उस देश की शिक्षा यानी साक्षरता के प्रतिशत से ही आंका जाता है। संस्कृत की सूक्ति है 'विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्' मतलब विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है। शिक्षा के इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन द्वारा घोषित 8 सितंबर को 'विश्व साक्षरता दिवस' मनाया जाता है। एक समाज में साक्षरता विकास का एक अच्छा संकेतक है। साक्षरता का फैलाव और प्रसार आम तौर पर आधुनिक सभ्यता जैसे कि आधुनिकीकरण, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, संचार और वाणिज्य के महत्वपूर्ण लक्षण से जुड़ा हुआ है। इस तथ्य को स्पष्ट किया जा सकता है क्योंकि अमेरिका और कनाडा जैसे सभी विकसित देशों में निरक्षरता दर बहुत कम है, जबकि भारत, तुर्की और ईरान जैसे देशों में निरक्षरता की बहुत उच्च दर है। विश्व बैंक के अध्ययन ने एक ओर साक्षरता और उत्पादकता के बीच प्रत्यक्ष और कार्यात्मक संबंध स्थापित किए हैं तो दूसरे ओर साक्षरता पर मानव जीवन की समग्र गुणवत्ता को रेखांकित किया है।


गौरतलब है कि सात वर्ष से अधिक आयु वर्ग के एक व्यक्ति, जो किसी भी भाषा में किसी भी समझ से पढ़ और लिख सकता है, को साक्षर माना जाता है। साक्षरता अभियान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना के तहत चलाया था। गांधी का सपना था कि भारत में कोई निरक्षर न रहे। भारत में संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है। भारत में सामाजिक व्यवस्था पुरुष लिंग के लिए शिक्षा को बढ़ावा देती है जबकि महिला आबादी खासकर देश के गहरे अंदरूनी हिस्सों में स्कूलों से दूर रहती है।

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एक साक्षर व्यक्ति अपने सभी मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों से परिचित है। सांप्रदायिकता, आतंकवाद और विकास के तहत समस्याओं से लड़ने का साक्षरता अंतिम उपाय है। जबकि निरक्षरता सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों को कम कर सकती है, इसलिए यदि हम एक विकसित राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो सरकार को उचित कार्यान्वयन और बजट के साथ प्रभावी कार्यक्रमों को शुरू करने से पहले निरक्षरता की समस्या को दूर करना चाहिए। यह विडंबना है कि आज भी हमारे नेताओं और लोगों के प्रतिनिधियों ने साक्षरता को कम से कम प्राथमिकता दी है, गरीबी उन्मूलन, भोजन, कपड़े, आश्रय, काम, स्वास्थ्य आदि इसके ऊपर है। वे विकास की प्रक्रिया के भाग के रूप में, साक्षरता को जीवन की गुणवत्ता में सुधार के प्रयास के रूप में, कमजोर वर्गों में जागरूकता बनाने की प्रक्रिया के रूप में, राजनीतिक शक्ति के लोकतंत्रीकरण के भाग के रूप में, उनके कारण देने की व्यवस्था के रूप में विफल रहे हैं। वे शिशु मृत्यु दर, प्रतिरक्षण, प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की भागीदारी, जनसंख्या वृद्धि, परिवार नियोजन, महिलाओं की मुक्ति, बाल विवाह, दहेज, दुल्हन जलाने जैसी सामाजिक बुराइयों जैसे मामलों में साक्षरता की प्रासंगिकता की सराहना करने में असमर्थ हैं।


देश की निरक्षता को यदि सरकारों की कुछ बड़ी असफलताओं में से एक माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं है। मानव संसाधन की ऐसी उपेक्षा और बदहाली शायद ही किसी विकासशील देश में मिले। विकास के लिए जो नेता और सरकारें मानव संसाधन की बात करती हैं, वे इस यथार्थ को कैसे भुला देती हैं कि आजादी के बाद से अब तक एक पूरी पीढ़ी अपनी परिपक्वता हासिल कर चुकी है, और वह अनपढ़ है। दूसरी तरफ समाज का हर जिम्मेदार नागरिक भी इस बात का जिम्मेदार है कि उसके देश भारत में सबसे अधिक लोग निरक्षर हैं। सरकार सालों से भारत में साक्षरता अभियान चला रही है और उस पर होने वाले खर्च की चर्चा होती रही है। दो तीन वाक्यों के ज्ञान वाले व्यक्ति को विकास में भागीदारी करने वाला कुशल मानव संसाधन तो नहीं माना जा सकता। निरक्षरता के मुद्दे की उपेक्षा से भारत के विकास को हर साल 53 अरब डॉलर (करीब 27 खरब रुपए) का नुकसान पहुंच रहा है। इस मामले में चीन को भी शामिल किया गया है लेकिन किसी भी देश से हमारी तुलना नहीं हो सकती। कहने को तो रूस 28.48 अरब डॉलर के नुकसान के साथ तीसरे और ब्राजील 27.41 अरब डालर के साथ चौथे स्थान पर है।

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न केवल सरकार, बल्कि हर साक्षर नागरिक को निरक्षरता के दानव से जूझने में योगदान करना चाहिए। हमारे आदर्श वाक्य होना चाहिए 'प्रत्येक एक को सिखाना', अगर हम एक विकसित देश बनना चाहते हैं। आवश्यकता है कि हमें अशिक्षा को रोग के तौर पर देखना होगा और इसे जड़ से खत्म करना होगा। भारत को आर्थिक संसाधनों के साथ अपने मानव संसाधन को भी विकास की आवश्यकताओं के अनुसार तैयार करना होगा। अनपढ़ और अकुशल भीड़ पर गर्व करने की प्रवृत्ति सरकारों और जिम्मेदारों को त्यागनी होगी।

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