अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस पूरे विश्व में 29 अप्रैल मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस की शुरुआत 29 अप्रैल 1982 से हुई। ‘बैले के शेक्सपियर’ की उपाधि से सम्मानित एक महान् रिफॉर्मर एवं लेखक जीन जार्ज नावेरे के जन्म दिवस की स्मृति में यूनेस्को के अंतर्राष्ट्रीय थिएटर इंस्टीट्यूट की डांस कमेटी ने 29 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के रूप स्थापित किया है। जीन जार्ज नावेरे ने 1760 में ‘लेर्टा ऑन द डांस’ नाम से एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें नृत्य कला की बारीकियों को प्रस्तुत किया गया। जबकि नृत्य की उत्पत्ति भारत में ही हुई है, यहां की नृत्य कला अति प्राचीन है, कहा जाता है कि यहां नृत्य की उत्पत्ति 2000 वर्ष पूर्व त्रेतायुग में देवताओं की विनती पर ब्रह्माजी ने की और उन्होंने नृत्य वेद तैयार किया, तभी से नृत्य की उत्पत्ति संसार में मानी जाती है। इस नृत्य वेद में सामवेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद व ऋग्वेद से कई चीजों को शामिल किया गया और जब नृत्य वेद की रचना पूरी हो गई, तब नृत्य करने का अभ्यास भरत मुनि के सौ पुत्रों ने किया। नृत्य के कई प्रकार हैं जिनमें भरतनाट्यम, कुचीपुड़ी, छाउ, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी आदि है। मनुष्य की प्रवृत्ति है, सुख और शांति की तलाश, जिसमें नृत्य-कला की महत्वपूर्ण भूमिका है। नृत्य खुशी, शांति, संस्कृति और सभ्यता को जाहिर करने की एक प्रदर्शन-कला है। खुद नाचकर या नृत्य देखकर हमारा मिजाज भी थिरक उठता है और हमारी आत्मा तक उस पर ताल देती है। नृत्य जीवन की मुस्कान और खुशियों की बौछार है।
हमारे देश में प्राचीन समय से नृत्य की समृद्ध परम्परा चली आ रही है। नृत्य के अनेक प्रकारों में कथकली प्रमुख है, यह नृत्य 17वीं शताब्दी में केरल राज्य से आया। इस नृत्य में आकर्षक वेशभूषा, इशारों व शारीरिक थिरकन से पूरी एक कहानी को दर्शाया जाता है। इस नृत्य में कलाकार का गहरे रंग का श्रृंगार किया जाता है, जिससे उसके चेहरे की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई दे सके। मोहिनीअट्टम नृत्य भी केरल राज्य का है। मोहिनीअट्टम नृत्य कलाकार का भगवान के प्रति अपने प्यार व समर्पण को दर्शाता है। इसमें नृत्यांगना सुनहरे बॉर्डर वाली सफेद सा़ड़ी पहनकर नृत्य करती है, साथ ही गहने भी काफी भारी-भरकम पहने जाते हैं। इसमें सादा श्रृंगार किया जाता है।
ओडिसी ओडिशा राज्य का प्रमुख नृत्य है। यह नृत्य भगवान कृष्ण के प्रति अपनी आराधना व प्रेम दर्शाने वाला है। इस नृत्य में सिर, छाती व श्रोणि का स्वतंत्र आंदोलन होता है। भुवनेश्वर स्थित उदयगिरि एवं खंडगिरी की पहा़ड़ियों में इसकी छवि दिखती है। इस नृत्य की कलाकृतियाँ उड़ीसा में बने भगवान जगन्नाथ के मंदिर पुरी व सूर्य मंदिर कोणार्क पर बनी हुई हैं। कथक लोक नृत्य की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश में हुई है, जिसमें राधाकृष्ण की नटवरी शैली को प्रदर्शित किया जाता है। कथक का नाम संस्कृत शब्द कहानी व कथार्थ से प्राप्त होता है। मुगलराज आने के बाद जब यह नृत्य मुस्लिम दरबार में किया जाने लगा तो इस नृत्य पर मनोरंजन हावी हो गया। भरतनाट्यम नृत्य एक शास्त्रीय नृत्य है जो तमिलनाडु राज्य का है। पुराने समय में मुख्यतः मंदिरों में नृत्यांगनाओं द्वारा इस नृत्य को किया जाता था, जिन्हें देवदासी कहा जाता था। इस पारंपरिक नृत्य को दया, पवित्रता व कोमलता के लिए जाना जाता है। यह पारंपरिक नृत्य पूरे विश्व में लोकप्रिय है।
कुचिपुड़ी नृत्य की उत्पत्ति आंध्रप्रदेश में हुई, इस नृत्य को भगवान मेला नटकम नाम से भी जाना जाता है। इस नृत्य में गीत, चरित्र की मनोदशा एक नाटक से शुरू होती है। इसमें खासतौर से कर्नाटक संगीत का उपयोग किया जाता है। साथ में ही वायलिन, मृदंगम, बांसुरी की संगत होती है। कलाकारों द्वारा पहने गए गहने ‘बेरुगू’ बहुत हल्के लक़ड़ी के बने होते हैं। मणिपुरी नृत्य शास्त्रीय नृत्यरूपों में से एक है। इस नृत्य की शैली को जोगाई कहा जाता है। प्राचीन समय में इस नृत्य को सूर्य के चारों ओर घूमने वाले ग्रहों की संज्ञा दी गई है। एक समय जब भगवान श्रीकृष्ण, राधा व गोपियाँ रासलीला कर रहे थे तो भगवान शिव ने वहाँ किसी के भी जाने पर रोक लगा दी थी, लेकिन माँ पार्वती द्वारा इच्छा जाहिर करने पर भगवान शिव ने मणिपुर में यह नृत्य करवाया।
अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस भारत के इन नृत्यों से पूरे विश्व को परिचित कराने का माध्यम है। वैसे इस दिवस को मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता को उजागर करना था। जिससे लोगों में नृत्य के प्रति रूचि जागे, जागरूकता फैले। साथ ही सरकारें पूरे विश्व में नृत्य को शिक्षा प्रणाली से जोड़े। भारत के विभिन्न नृत्यकलाओं में निपुण अनेक नर्तकों एवं नृत्यांगनाओं ने पूरी दुनिया में भारतीय नृत्य कलाओं का नाम रोशन कर रहे हैं। जिनमें सोनल मानसिंह, यामिनी कृष्णामूर्ति, केलुचरण महापात्रा आदि चर्चित नाम है, इनदिनों परामिता भट्टाचार्य एक उभरता हुआ नाम है, जो अमेरिका में भारतीय नृत्य की धुम मचाते हुए उसे पहचान दिलाने के लिये तत्पर है। एक कथक नृत्यांगना होने के अलावा परामिता एक प्रसिद्ध कोरियोग्राफर, नृत्य शिक्षक, वक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता भी है। ‘शास्त्रीय नृत्य’ के क्षेत्र में उनके अनूठे योगदान के लिये उन्हें राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों से प्रशंसा मिली है। लॉस एंजिल्स में रहते हुए उन्होंने न केवल वहां के भारतीय लोगों बल्कि अमेरिकी लोगों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाकर भारतीय नृत्य कला को प्रसिद्धि के नये मुकाम प्रदान किये है।
परामिता भट्टाचार्य का मानना है कि पारंपरिक शास्त्रीय कला लोगों को अपने जीवन को शांत एवं खुशहाल बनाने और व्यक्तित्व विकास में मदद कर सकता है क्योंकि यह मन, शरीर और आत्मा की भाषा से संबंधित है। वह महसूस करती है कि विदेशी धरती पर भारतीय कला जीवंत करना थोड़ा चुनौतीपूर्ण है, लेकिन विभिन्न लोगों के साथ बातचीत करने के लिए दिलचस्प है। भारतीय कला-संस्कृति सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने और विश्वबधुंत्व की भावना, प्यार, दोस्ती और शांति फैलाने का सशक्त माध्यम है। अपने गुरु पंडित बिरजू महाराज के बारे में परामिता ने कहा कि उन्होंने उनके अंदर नृत्य, संगीत, दर्शन और रस का समावेश किया। परामिता ने कहा कि आज का समय क्लासिकल डांस के लिए उदयकाल है। बकौल परामिता, ‘युवा नृत्य साधक नए-नए विचारों के साथ सामने आ रहे हैं और इससे मैं मानती हूं कि यह भारतीय पारंपरिक नृत्य के लिए उदयकाल है।’
निश्चित ही नृत्य एक सशक्त दैवीय अभिव्यक्ति है जो पृथ्वी और आकाश से संवाद करती है। हमारी खुशी, हमारे भय और हमारी आकांक्षाओं को व्यक्त करती है। नृत्य अमूर्त है फिर भी जन के मन के संज्ञान और बोध को परिलक्षित करता है। मनोदशाओं को और चरित्र को दर्शाता है। नृत्य में हाथों की श्रंृखला बनाकर एक दूसरे के स्नेह और जोश को महसूस किया जाता है, जिसे आपस में बांटा जाता हैं और सामूहिक लय पर गतिमान होते हुए देखा जाता हैं। नृत्य समानांतर रेखाओं के उस बिंदु पर होता है जहाँ रेखाएं एक-दूसरे से मिलती हुई प्रतीत होती हैं। गति और संचालन से भाव-भंगिमाओं का सृजन और ओझल होना एक ही पल में होता रहता है। नृत्य केवल उसी क्षणिक पल में अस्तित्व में आता है। यह क्षण बहुमूल्य एवं अनूठा होता है। यह जीवन का लक्षण है। आधुनिक युग में, भाव-भंगिमाओं की छवियाँ लाखों रूप ले लेती हैं। वो आकर्षक होती है। परन्तु ये नृत्य का स्थान नहीं ले सकतीं क्योंकि छवियाँ सांस नहीं लेती जबकि नृत्य जीवन का उत्सव है।
चीनी कविताओं के संकलन ‘द बुक ऑफ सोंग्स’ में नृत्य के महत्व पर एक कविता का भावार्थ है कि द्रवित भावनाएं शब्दों के अभाव में आहें बनती है, आहें भी अक्षम होने पर गीतों में व्यक्त होती है। गीत नहीं पूरे पड़ते तो अनायास हमारे हाथ नृत्य करने लगते हैं और पाँव थिरकने लगते हैं। इस तरह नृत्य का हमारे जीवन की खुशियों से सीधा रिश्ता है। नृत्य एक प्रकार का योग है, जिससे जुड़कर हम नृत्य द्वारा अपनी कुंठाओं, निराशाओं एवं तनाव को कम कर सकते हैं तथा संतुलित जीवन जी सकते हैं। नृत्य द्वारा स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी प्रफुल्लित किया जा सकता है। इसलिये अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को केवल आयोजनात्मक ही नहीं प्रयोजनात्मक बनाने की अपेक्षा है।
- ललित गर्ग