5 स्वयंसेवकों के साथ दशहरे के दिन RSS के गठन की रोचक कहानी, जानिए इस दिन क्यों की जाती है शस्त्र पूजा

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By अभिनय आकाश | Oct 14, 2021

5 स्वयंसेवकों के साथ दशहरे के दिन RSS के गठन की रोचक कहानी, जानिए इस दिन क्यों की जाती है शस्त्र पूजा

नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है। माता दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूरे नौ दिनों तक विधिवत पूजा-अर्चना के बाद विजया दशमी का त्योहार आने वाला है। विजया दशमी जिसे दशहरा के रूप में भी जाना जाता है। हिन्दुओं के लिए महत्वपूर्ण त्योहारों में दशहरा में रावण पर भगवान राम की जीत का प्रतीक है। लेकिन ये दिन देश की सबसे बड़ी सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस के लिए भी बहुत मायने रखती है। इस दिन न केवल सरसंघाचलक का संबोधन होता है बल्कि शस्त्र पूजन भी किया जाता है। दरअसल, दशहरे का त्योहार संघ के लिए इसलिए काफी मायने रखता है क्योंकि इसी दिन 1925 में संघ की स्थापना हुई थी।

संघ और दशहरा

एक मजबूत राष्ट्र के लिए डॉ. हेडगेवार की सोच स्वाभिमानी और संगठित समाज के निर्माण की थी। इसी सोच के साथ 1925 में विजय दसमी के दिन उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस की स्थापना की गई। 1925 के साल और सितंबर की 27 तारीख को मुंबई के मोहिते के बाड़े नामक जगह पर डॉ. हेडगेवार ने आरएसएस की नींव रखी थी। ये संघ की पहली शाखा थी जो संघ के पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू की गई थी। 

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संघ का शस्त्र पूजा

हर साल विजयादशमी का पर्व बड़ी धूमधाम से बनाया जाता है इस दिन शस्त्र पूजन का विधान है ये प्रथा कोई आज की नहीं है बल्कि सनातन धर्म से ही इस परंपरा का पालन किया जाता है। इस दिन शस्त्रों के पूजन का खास विधान है। ऐसा माना जाता है कि क्षत्रिय इस दिन शस्त्र पूजन करते हैं। इस दौरान संघ के सदस्य हवन में आहुति देकर विधि-विधान से शस्त्रों का पूजन करते हैं। संघ के स्थापना दिवस कार्यक्रम में हर साल ‘शस्त्र पूजन’ खास रहता है। संघ की तरफ से ‘शस्त्र पूजन’ हर साल पूरे विधि विधान से किया जाता है। इस दौरान शस्त्र धारण करना क्यों जरूरी है, की महत्ता से रूबरू कराते हैं। बताते हैं, राक्षसी प्रवृति के लोगों के नाश के लिए शस्त्र धारण जरूरी है। सनातन धर्म के देवी-देवताओं की तरफ से धारण किए गए शस्त्रों का जिक्र करते हुए एकता के साथ ही अस्त्र-शस्त्र धारण करने की हिदायत दी जाती है। ‘शस्त्र पूजन’ में भगवान के चित्रों से सामने ‘शस्त्र’ रखते हैं। दर्शन करने वाले बारी-बारी भगवान के आगे फूल चढ़ाने के साथ ‘शस्त्रों’ पर भी फूल चढ़ाते हैं।

गुरु की जगह भगवा ध्वज को किया स्थापित 

1928 में गुरु पूर्णिमा के दिन से गुरु पूजन की परंपरा शुरू हुई। जब सब स्वयं सेवक गुरु पूजन के लिए एकत्र हुए तब सभी स्वयंसेवकों को यही अनुमान था कि डॉक्टर साहब की गुरु के रूप में पूजा की जाएगी। लेकिन इन सारी बातों से इतर डॉ. हेडगेवार ने संघ में व्यक्ति पूजा को निषेध करते हुए प्रथम गुरु पूजन कार्यक्रम के अवसर पर कहा, “संघ ने अपने गुरु की जगह पर किसी व्यक्ति विशेष को मान न देते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को ही सम्मानित किया है। इसका कारण है कि व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, फिर भी वह कभी भी स्थिर या पूर्ण नहीं रह सकता। 

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