By डॉ. दिनेश चंद्र सिंह | May 19, 2021
किसी भी सभ्य समाज में दोषारोपण नहीं, आत्मावलोकन किया जाता है। किसी आसन्न समस्या का हल मिलजुलकर किया जाता है। हमारी परंपरा भी यही रही है और कोविड-19 जैसी महामारी से उत्पन्न विडम्बना भरी परिस्थितियों में आज हमारे देश की मांग भी यही है। हमारे राजनैतिक, प्रशासनिक व सामाजिक कर्णधार भी उसी अंतःचेतना से अभिप्रेरित हैं, लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी भी अपनी नापाक हरकतों से बाज आने वाले भी कहां हैं।
गत सप्ताह भले ही ईद व अक्षय तृतीया जैसा महत्वपूर्ण त्यौहार, सम्पूर्ण भारत में कोविड-19 की निर्धारित गाइड लाइन के अनुसार, सद्भावपूर्वक ढंग से मनाया गया। लेकिन विगत एक महीने से समाज में जो भय का माहौल व्याप्त है, उसका प्रतिकूल असर यह है कि प्रत्येक नागरिक, चाहे वह किसी भी आयु सीमा का हो, पहली बार भयाक्रांत हुआ है। परन्तु, मेरी राय में भयाक्रांत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उससे अधिक निर्भीक होकर अनुशासन, संयम एवं धैर्य से सम्मुख खड़ी चुनौती का सामना करें।
दुर्भाग्यवश, हममें से बहुत सारे लोग इसके प्रतिकूल आचरण कर रहे हैं। एक दु:खद अवसर को अपनी स्वार्थ साधना का अवसर बनाने के प्रयास में मशगूल रहना और वास्तविकता से दूर रह कर सिर्फ सरकार व प्रशासन की आलोचना करना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है। वजह यह कि सरकार एवं सरकारी क्षेत्र में लोग अपने प्राणों को हथेली पर रख कर निष्ठापूर्वक जनसेवा कार्य कर रहे हैं। ऐसे लोगों की आलोचना में जो लोग अपना समय लगाकर और इधर-उधर की बातों-अफवाहों को हवा देकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं, वह सरासर अनुचित है। उन्हें नहीं पता कि वे लोग इसे अपनी दुष्चेतना का विषय बनाकर अपना ही अहित कर रहे हैं। ऐसे लोग अन्दर से डरकर भी बाहर से कठोर एवं निडर होने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके कारण हम वास्तविकता से विमुख हो रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान व सेवा भावी लोगों की अनर्गल आलोचना कर रहे हैं।
जब यह बात सभी को मालूम है कि भारत निर्वाचन आयोग या राज्य निर्वाचन आयोग, भारतीय संविधान द्वारा दी गई व्यवस्था के अन्तर्गत एक स्वतंत्र अस्तित्व धारण किये हुए है। वह लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा में निहित जनतांत्रिक वसूलों-मूल्यों पर चलता है। साथ ही, भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु व निष्पक्ष सरकारों के गठन हेतु, व्यस्क मताधिकार के आधार पर सभी भारतीय नागरिक में से मतदाताओं को अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार देता है। जब वह चुनाव की तिथियों की घोषणा सभी राजनैतिक दलों के साथ बैठक करने के पश्चात विहित रीति-नीति से करता है, तो उस पर या सिर्फ सत्ताधारी दल पर सवाल उठाने का औचित्य सिर्फ ओछी सियासत नहीं तो क्या है? बता दें कि सर्वसम्मति से भारत निर्वाचन आयोग ही सरकार के गठन हेतु चुनाव की तिथियों का निर्धारण करता है।
बहरहाल, जिस तरह से विगत एक महीने से बंगाल के चुनाव परिणाम घोषित होने के पश्चात, कोविड-19 के संक्रमण फैलाने के लिए भारत की चुनी हुई केंद्र सरकार की आलोचना की जा रही है, वह चकवा-चकोर की तरह सच्चाई से मुंह फेरने सरीखा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निष्पक्ष व सर्वसमावेशी कार्य पद्धति किसी से छिपी हुई बात नहीं है। उन्होंने राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भारत को अतीत की वैभवशाली व गौरवपूर्ण परम्परा के साथ योग, अनुशासन, धैर्य, संयम, जप, तप, परिश्रम, न्याय एवं अन्याय का प्रतिवाद करने की क्षमता जैसे वैचारिक मुद्दों को पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए कठोर मेहनत की है और कर रहे हैं।
लेकिन विघ्नसंतोषी लोग वैश्विक क्षितिज पर भारत की प्रतिष्ठा का डंका स्थापित करने वाले परम प्रतापी प्रधानमंत्री-प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी की भी आलोचना कर रहे हैं। ऐसे लोग इस बात को क्यों नहीं समझते कि निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित तिथियों की घोषणा पर 15 अप्रैल से किसी भी राजनैतिक दल अथवा संस्था द्वारा कोई लिखित प्रत्यावेदन सरकार, निर्वाचन आयोग अथवा पीआईएल के माध्यम से भारत की न्यायपालिका के समक्ष नहीं आया, जिसमें चुनाव टालने की बात हो। ऐसी कोई बात इनके समक्ष कोई प्रस्तुत किया हो, ऐसा मेरे संज्ञान में या जनसामान्य के संज्ञान (पब्लिक डोमेन) में नहीं है। वहां की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस भी क्यों चाहती कि चुनाव टले और राष्ट्रपति शासन लागू हो, क्योंकि वह केंद्रीय सत्ता की विरोधी धुरी की अगुवा है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि जब चुनाव घोषित है तो लोकतंत्र में अपने-अपने विचारों की सरकार स्थापित करने का प्रयत्न करना उस पार्टी के मुखिया का नैतिक उत्तरदायित्व भी है। हालांकि, इसी बीच कोरोना वायरस के संक्रमण से निपटने के लिए राष्ट्रीय सरकार व प्रदेश सरकार ऐसे सभी प्रयास कर रही थी, जिससे इसके प्रकोप से निपटा जा सके। वैसे, वैज्ञानिकों के भगीरथ प्रयास से कोविड-19 के वैक्सीन की खोज व परीक्षण हुई। फिर जन सामान्य का वैक्सीनेशन भी किया गया, जो जारी है। परन्तु हैरत की बात है कि उस समय भी कुछ संगठन व दल वैज्ञानिकों की खोज को भी पुष्ट नहीं मान रहे थे। लेकिन, अब सवाल उठाने में ऐसे ही लोग आगे हैं। यह बेशर्मी की हद नहीं तो क्या है?
वस्तुतः, 10 अप्रैल के पश्चचात कोविड 19 के संक्रमण से पैदा हुईं परिस्थितियां इतनी भयावह हुईं कि उन्हें संभालने में किसी भी सरकार और प्रशासन को वक्त लगता और इस दफे भी थोड़ा वक्त लगा। यह वैसे ही बात हुई, जैसे आंधी-तूफान, बाढ़ व भूकंप आने पर राहत व बचाव कार्य किया जाता है। कोविड 19 की अकस्मात व अप्रत्याशित दूसरी लहर से निपटने के लिए सरकार व प्रशासन ने भी तत्परता दिखाई, जो जारी है।
कहना न होगा कि जैसे भूकम्प की तीव्रता एवं उसके आने के समय की गणना-आकलन अभी पूर्णत: सटीक-सही नहीं माना जाता है। वैसे ही इस महामारी की भयावहता, आक्रामकता व अतितीव्रता का पूर्वानुमान लगाना दुरूह कार्य है। फिर भी इस महामारी के फैलाव को काबू में करने के लिए सरकार काफी ततपर दिखाई दी।
जरा सोचिए, हमने अपने जीवन में ऑक्सीजन की कोई कमी महसूस नहीं की थी। यही वजह है कि वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के निर्देश, आदेश एवं प्रचार की अनदेखी करके भी हम लोग निरंतर वनों एवं वृक्षों के अवैध कटान या फिर औद्योगिक विकास के लिये वैध कटान कर रहे हैं, जिसका दुष्परिणाम हमसब भूकम्प एवं भूस्खलन तथा अन्य तबाही के साथ देख सकते हैं। निःसन्देह, हमारी सरकार यथा श्रेष्ठ कार्य कर रही है। इसलिए उसके कार्यों एवं प्रतिबद्धतता पर हमें भरोसा रखना चाहिए। हम लोग बेशक आलोचना करें, परन्तु आधारहीन आलोचना से बचें। क्योंकि आपकी आलोचना, अन्य स्वार्थी तत्वों, मौकापरस्त लोगों को बिना प्रयास या योगदान के घर बैठे ही एक ऐसा अवसर प्रदान कर सकते हैं, जिससे लिए बाद में हम सबको पश्चाताप करना पड़े।
लोकतंत्र का तकाजा है कि सभी राजनैतिक दल आपदा की इस घड़ी में देश, प्रदेश एवं आम नागरिकों का साहस बनें। क्योंकि जब देश-प्रदेश व उसके नागरिक बचेंगे, तभी राजनीतिक परिदृश्य भी सही रह पाएगा। अतः पश्चिम बंगाल के चुनावों के आधार पर किसी एक राजनैतिक दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे विषय पर निष्पक्ष भाव से हम सबको सोचना चाहिए और अपनी ही की हुई गलतियों को भविष्य में दुहराने से बचना चाहिए, ताकि ऐसे आसन्न संकट से जनमानस अप्रभावित रहे।
-डॉ. दिनेश चंद्र सिंह, आईएएस
विशेष सचिव, संस्कृति विभाग, लखनऊ
उत्तर प्रदेश सरकार