कोरोना संकट का सबसे ज्यादा भार परिवार में महिलाओं पर आ पड़ा है

By विजय गोयल | May 23, 2020

कुछ समय पहले टेलीविजन पर एक नाटक देखा था जिसका सार यह था कि कैसे हमारे परिवारों में महिलाओं का अनजाने में बड़े प्यार से शोषण होता है और खुद महिला भी उसे शोषण न मानकर कभी माँ, कभी पत्नी, कभी बहन, कभी बेटी का कर्तव्य समझ काम करते चली जाती है। मानो घर उसके अधिकार में हो। एक दिन उसे भान होता है की जिन्हें बड़े प्यार से वो अपना मान रही थी वे समय आने पर उसकी कोई बात मानने को तैयार नहीं हैं। 

 

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महिला को जन्म लेने से ही जीवन के विभिन्न मोड़ों पर अलग−अलग मुखौटे पहन कर विभिन्न भूमिकायें निभानी पड़ती हैं चाहे वो घरेलू मामलों को सुलझाना हो या रोजमर्रा के घरेलू काम। एक पुरुष जो पिता या पति है वो तो एक समय के बाद रिटायर हो जाता है। पर एक महिला जो माँ या पत्नी है वो मरते दम तक रिटायर नहीं होती और नौकरों की तरह काम में लगी रहती है। किसी ने कहा है ''गृहिणी का मतलब है एक निर्धारित समय में कई सारे कामों को दिमाग को शां रखते हुए सही ढंग से करना।''


आज कोरोना के भारी संकट में पूरे परिवार में यदि किसी पर सबसे ज्यादा संकट आया है तो वह घर की महिला ही है जिसकी भूमिका अचानक बहुत बढ़ गई है और घर में न केवल उसके काम बढ़े हैं बल्कि उसके अधिकार क्षेत्र में दूसरे लोगों का अनधिकृत प्रवेश भी बढ़ गया है। हर कोई उस पर हुक्म चला रहा है या फिर उससे काम करवा रहा है। 


लॉकडाउन में बाहर सब कुछ बंद है तो सबको घर पर ही रहने की मजबूरी है। चाहे एक दूसरे से किसी की बन रही हो या न बन रही हो। इस समय में घर में माँ या पत्नी केन्द्र बिंदू हो जाती है। यह महिलाओं की भूमिका है जो कोविड़−19 के दौरान एकदम बदल गई है। 


हमारी पुरुष प्रधान सोसायटी में जहां ज्यादातर पतियों को हुक्म चलाने और अधिकार जताने की आदत रही है वहां पतियों के स्वभाव के कारण पत्नी को इंतजार रहता था कि कब ये दफ्तर या काम पर जायें तो थोड़ी देर खुली हवा में सांस भी ले सकूंगी और जल्दी−जल्दी काम भी निपटा लूंगी। अब दिनभर जब लॉकडाउन पीरियड में उसे सारा दिन झेलना पड़ता होगा तब पत्नी की दशा का अनुमान आप लगा सकते हैं। न केवल झेलो बल्कि नित नई−नई फरमाईशों को भी पूरा करो। 


लॉकडाउन ने महिलाओं के काम के बोझ को बढ़ा दिया है। बच्चे स्कूल में जा नहीं रहे उन्हें या तो घर पर पढ़ाओ या नई−नई चीजें खिलाते रहो या मनोरंजन करो नहीं तो वे उधम मचायेंगे। जो बुर्जग हैं उन्हें कोरोना का सबसे ज्यादा खतरा है उनकी देखभाल अलग। बड़े आराम से घर में कोरोना से बचाव के लिए घर वालों ने तय कर दिया कि हाउस हैल्प और काम करने वाली बाई को मत आने दो। अब तो आर.डब्ल्यू.ए. ने भी फैसला कर दिया जो कि ज्यादातर पुरुष प्रधान हैं कि नौकरों को नहीं आने देंगे। फिर खाना बनाने, बर्तन मांजने, झाडू चौका, कपड़े धोने का काम सब महिला पर ही आ गया। फैसला करते हुए यह भी करना चाहिए था कि हम महिला का काम में हाथ बटायेंगे।

 

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मल्टी नेशनल कम्पनी में काम करने वाली राधिका का काम तब दोगुना हो गया जब उसका दफ्तर का काम लैपटाप से घर पर भी करना था और घर के भी सारे काम करने थे क्योंकि हाउस हैल्प को उसकी आर.डब्ल्यू.ए. नहीं आने देती और यदि गलती से सोसायटी में कोई भी संक्रमित निकल जाये और पति पत्नी दोनों घर से काम करते हों तो भी पत्नी पर ही घर के काम का बोझ होगा। 


अकसर हमें झाड़ू, पोछा, चौका बर्तन व कपड़े धोते हुए महिलाओं के ही फोटो सोशल मीडिया पर देखने को मिलते हैं, पुरुषों के नहीं। अब दिक्कत ज्यादा यह है की आज की युवा कामकाजी महिला को पहले से ही घर पर काम करने आदत नहीं है। जिस पर उसे बाहर से भी कोई मदद नहीं मिल रही। 


मुझे याद है 60 के दशक में मेरी माँ सात लोगों के परिवार का काम चौका बर्तन, कपड़े, सफाई, खाना सब कर लेती थी क्योंकि तब महिलाओं में आदत भी थी और उस समय ज्यादा नौकर भी नहीं हुआ करते थे। आजकल सामान्य दिनों में भी हफ्ते में तीन दिन लोग बाहर के स्वाद और आउटिंग के नाम पर रेस्तरां में खाना खा रहे थे क्योंकि आज की युवा गृहिणी के पास समय और रसोई में जाने की इच्छा दोनों ही नहीं है। ऐसे में उसकी मजबूरियां इस कोरोना संकट में आप समझ सकते हैं। कितने पति हैं जो अपनी पत्नी का काम मे हाथ बंटा रहे हैं यह रिसर्च का विषय है और रिसर्च की भी जानी चाहिए।


पति ही क्यों संयुक्त परिवार में तो बड़े छोटे बच्चे हैं जिनकी घर में पिकनिक हो रही है, रोज नये नये व्यंजनों की फरमाईश भी हो रही है। बच्चे कहेंगे मम्मा मैं कुछ नई रेसीपी बनाना सिखता हूँ, अच्छी बात भी है पर उस चीज को बनाते बनाते रसोई को ऐसे बिखेरेंगे कि उसको सम्भालने में कई घंटे लग जायेंगे। कोरोना में घर में परिवार के लोग एक कपड़े को दोबारा नहीं पहन सकते फिर उसे घर के सारे कपड़ भी धोने और सम्भालने हैं। जिन महिलाओं को बिंदी लिपिस्टिक वाली महिला कह मजाक किया जाता था। वो सब भी दिनभर काम में लिप्त हैं। 

 

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इस कोरोना संकट को महिलाओं ने इस सारे काम के बावजूद अपने लाभ में भी परिवर्तित किया है जिनको शादी के बाद खाना बनाना नहीं आता था वो आज खाना बनाना सीख रही हैं। महिलाओं का काम चाहे बढ़ गया हो पर वे नये-नये काम सीखने की कोशिश कर रही हैं। इस आपाधापी में भी घंटाभर थोड़ा वह व्यायाम के लिए भी निकाल रही हैं और नई−नई रेसिपी भी सीख रही हैं। ऐसे कई परिवारों में कई महिलाओं को मैं जानता हूं जा कत्थक, संगीत, पब्लिक स्पीकिंग की ऑनलाईन क्लास ले रही हैं। कई तो बच्चों को भी प्रेरित कर रही हैं कि वे लूड़ो, कार्टून, फिल्म देखने की जगह कुछ अच्छे ऑनलाईन कोर्स किया करें।


एक रिपोर्ट के अनुसार आज कोरोना संकट के समय जो लोग मेडिकल में काम कर रहे हैं उनमें ज्यादातर महिलायें ही हैं जो फ्रंट लाईन में खड़ी हैं। सामान्य दिनों में भी महिलायें 6 घंटे बिना वेतन के काम करती हैं जिनका उसको आर्थिक भुगतान नहीं होता। दूसरी तरफ हमारी सोसायटी में लड़कों और पतियों की परिभाषा है कि मानो उनकी दुनिया तो घर से बाहर है। 


महिलायें पुरुषों की तुलना में किसी भी संकट में ज्यादा सतर्क और सक्रिय होती हैं। बेहतर प्रबंधक और बुरे हालात में भी बड़ी हिम्मत से परिवार और समाज को संभाले रहती हैं ये अलग बात है जब संकट नहीं रहता तब वे परिवार और समाज दोनों में ही फिर से उपेक्षित हो जाती हैं। कोरोना के इस संकट में उन्होंने कुछ अतिरिक्त जिम्मेवारियों को ग्रहण कर लिया है। मानसिक रूप से वो टूट न जायें इस पर हम सबको ध्यान देना चाहिए।


-विजय गोयल

(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)


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