नेपाल और भारत के बीच रोटी और बेटी का संबंध है। दोनों मुल्क के नेताओं को अगर भारत-नेपाल संबंध पर दो शब्द बोलना पड़े तो, भाषण ही इसी मुहावरे से शुरु होता है। ऐसी बात नहीं कि इस मुहावरा में सच्चाई नहीं। बात त्रेता युग की करें तो अयोध्या के राजकुमार भगवान श्रीरामचन्द्र का विवाह जनकनंदनी सीता से हुआ था। यह क्रम अभी भी जारी है। नेपाल के सत्ता में रहे शाहवंश हो या संभ्रान्त कहलाने वाले राणा, भारत के साथ ये लोग पारिवारिक रूप से जुड़े हैं। खासकर नेपाल के दक्षिणवर्ती मधेश के जिले की बात की जाय, तो गांव हो या शहर हर घर में या तो बहु नहीं तो जमाई पड़ोसी मुल्क के ही हैं। आम तौर पर माना जाता है कि भारत और नेपाल घनिष्ट मित्र हैं और दोनों देशों कि मित्रता हजारों वर्ष पुरानी है। जिसके केंद्र में संस्कृति और धर्म है। नेपाल वर्षों तक दुनिया का अकेला ऐसा देश था तो खुद को हिन्दू राष्ट्र कहता था। रामायण और महात्मा बुद्ध के जीवन में भी नेपाल की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन रोटी-बेटी के इस मुहावरे पर धीरे-धीरे ग्रहण लगता जा रहा है और भारत-नेपाल दोस्ती में दरार पड़ती नजर आ रही है। आपने हिन्दी फिल्मों में कई बार देखा होगा कि दो बचपन के दोस्त की दोस्ती में किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से दरार आ जाती है। तीसरा व्यक्ति उनमें से किसी न किसी दोस्त को या दोनों दोस्तों के बीच गलतफहमी पैदा करने की कोशिश करता है। ऐसा कई फिल्मों आपने देखा होगा। भारत और नेपाल की दोस्ती के साथ भी ऐसा ही हो रहा है।
अक्टूबर 2019 की बात है महीने की 27 तारीख को दीवाली थी। लेकिन नेपाल की राजधानी काठमांडू में करीब एक पखवाड़े पहले ही दिवाली का माहौल बन गया था। रंग रोगन का काम चल रहा था, गड्ढे भरे जा रहे थे। कुल मिलाकर बोलचाल की भाषा में कहें तो एकदम चकाचक बनाने की तैयारी हो रही थी। यह सारी तैयारी पड़ोसी देश से आ रहे खास मेहमान के लिए थी। खास मेहमान थे शी जिनपिंग, चीन के राष्ट्रपति। उनसे पहले 1996 में आए थे जियांग जेमिन दोनों राष्ट्रपतियों के नेपाल आने के बीच 23 साल का फासला रहा। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह थी नेपाल और भारत की दोस्ती। कुछ सालों में यह समीकरण बदलने लगा और दोनों देशों के बीच रिश्तों में ठंडापन आ रहा है। नेपाल की गर्मजोशी उसकी उत्तर की दिशा यानी चीन के तरफ शिफ्ट होती जा रही है। चीन के दबाव में अपने फैसले लेने लगा है नेपाल। जिसका परिणाम बीते कुछ दिनों में उसके आपत्तियों, बयान और बर्ताव में नजर आने लगा है।
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भारत की बनाई सड़क पर आपत्ति
राजतंत्र के जमाने में नेपाल में एक तंजतारी चलती थी, ‘मुखे कानून छ' यानी जो मुंह से निकल गया, वही कानून है। 28 मई, 2008 को राजशाही खत्म कर नेपाल में लोकशाही की घोषणा कर दी गई, मगर शासन का रवैया वहां बदला नहीं। नेपाल ने उत्तराखंड में तीन महत्वपूर्ण इलाकों पर अपना दावा जता दिया है और अपने नए राजनैतिक नक्शे में इन तीनों इलाकों को अपने देश का हिस्सा बताया है। ये तीन इलाके हैं लिपुलेख, कालापानी और लिपियाधुरा। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने देश की संसद में बोलते हुए यहां तक कह दिया कि नेपाल में कोरोना वायरस भारत की वजह से फैल रहा है। ओली ने कहा कि देश के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती कोरोना वायरस के बढ़ते मामले हैं। उन्होंने कोरोना वायरस संक्रमण के मामलों में बढ़ोतरी के लिए देशव्यापी लॉकडाउन तोड़ने वाले व्यक्तियों और विशेष तौर पर उन लोगों को जिम्मेदार ठहराया, जो भारत से नेपाल में प्रवेश कर रहे हैं। साथ ही ओली ने अपने दावे वाले तीनों इलाकों को भारत से वापस लेने की बात करते हुए कहा कि इससे अगर भारत नाराज भी हो जाए तो नेपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
भारत ने इस हरकत पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता में इस तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि इस सीमा विवाद का हल बातचीत के माध्यम से निकालने के लिए आगे बढ़ना होगा।
हर साल कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर तीर्थयात्री जाते हैं। मानसरोवर तिब्बत में पड़ता है जहां चीन का कब्जा है इस यात्रा को सुगम और थोड़ा और छोटा बनाने के लिए रक्षा मंत्री ने लिपुलेख से कैलाश मानसरोवर जाने वाले रास्ते का उद्घाटन किया, तभी नेपाल ने इसका विरोध किया था।
आखिर राजनीतिक मैप को लेकर क्यों होते हैं विवाद? ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है। सात लाइनों में बताते है कि क्या होता है पॉलिटिकल मैप
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नक्शे से कूटनीति या राजनीति
ब्रिटिश भारत में 1798 से लेकर 1947 तक जो नक्शे समय-समय पर जारी किए गए, उन पर नेपाल को कोई आपत्ति नहीं थी। नेपाल उस दौर में भी ब्रिटिश इंडिया के नक्शे पर आश्रित था। भारत-नेपाल संयुक्त प्राविधिक समिति ने 26 वर्षों का समय लगाकर 182 स्ट्रीप मैप के साथ 98 प्रतिशत रेखांकन का कार्य संपन्न किया है। इसमें दो फीसदी कार्य कई वर्षों से बाकी है। इस पर भारतीय पक्ष की मुहर भी नहीं लगी है। नया विवाद 2 नवंबर, 2019 को शुरू हुआ, जब भारत ने कश्मीर-लद्दाख को लेकर नक्शा पुनर्प्रकाशित किया था। उसमें पड़ोसी मुल्कों को बांटती सीमाओं में कोई रद्दो-बदल नहीं हुआ था, पर भारतीय विदेश मंत्रालय के स्पष्टीकरण के बावजूद नेपाल मानने को तैयार नहीं था।
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भारत-नेपाल सीमा विवाद को समझिए
दो-तीन बातें ध्यान में रखने की हैं। 1962 में युद्ध के समय से ही यहां पर इंडो-तिब्बतन फोर्स की तैनाती भारत ने कर रखी है। सितंबर 1961 में जब कालापानी विवाद उठा था, उससे काफी पहले 29 अप्रैल, 1954 को भारत-चीन के बीच शिप्ला-लिपुलेख दर्रे के रास्ते व्यापार समझौता हो चुका था। सन1954 से लेकर 2015 तक चीन ने कभी नहीं माना कि लिपुलेख वाले हिस्से में, जहां से उसे भारत से व्यापार करना था, नेपाल भी एक पार्टी है या यह ‘ट्राइजंक्शन' है। 2002 में एक ज्वॉइंट टेक्नीकल कमेटी भी बनी। उन दिनों नेपाल की कोशिश थी कि चीन को इसमें शामिल करें। चीनी विदेश मंत्रालय ने 10 मई, 2005 को एक प्रेस रिलीज द्वारा स्पष्ट किया कि कालापानी भारत और नेपाल के बीच का मामला है, इसे इन दोनों को ही सुलझाना है। नेपाल, 1950 की संधि को भी ध्यान से नहीं देखता है। 31 जुलाई, 1950 को हुई भारत-नेपाल संधि के अनुच्छेद आठ में स्पष्ट कहा गया है कि इससे पहले ब्रिटिश इंडिया के साथ जितने भी समझौते हुए, उन्हें रद्द माना जाए। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिंदु है, जो कालापानी के नेपाली दावों पर पानी फेर देता है।
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झूठ बोल रहा नेपाल!
नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच 1816 में सुगौली संधि हुई थी। सुगौली बिहार के बेतिया यानी पश्चिम चंपारण में नेपाल सीमा के पास एक छोटा सा शहर है। इस संधि में तय हुआ कि काली या महाकाली नदी के पूरब का इलाका नेपाल का होगा। बाद में अंग्रेज सर्वेक्षकों ने काली नदी का उदगम स्थान अलग-अलग बताना शुरू कर दिया। दरअसल महाकाली नदी कई छोटी धाराओं के मिलने से बनी है और इन धाराओं का उदगम अलग-अलग है। नेपाल का कहना है कि कालापानी के पश्चिम में जो उदगम स्थान है वही सही है और इस लिहाज से पूरा इलाका उसका है। दूसरी ओर भारत दस्तावजों के सहारे साबित कर चुका है कि काली नदी का मूल उदगम कालापानी के पूरब में है।
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सोचने वाली बात है कि प्रधानमंत्री ओली इस पूरे मामले को राष्ट्रीय अस्मिता की ओर क्यों धकेल रहे हैं? सर्वदलीय बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री व जनता समाजवादी पार्टी के नेता बाबुराम भट्टराई ने यूं ही नहीं कहा था कि राष्ट्रवाद का भौकाल खड़ा करने की बजाय सरकार पुराने दस्तावेजों को जुटाए और कालक्रम को व्यवस्थित करे, तभी इस लड़ाई को वह अंतरराष्ट्रीय फोरम पर ले जा सकेगी। परिस्थितियां बता रही हैं कि लिपुलेख विवाद में पीएम ओली ने जान-बूझकर पेट्रोल डाला है। नेपाल के अंदर से उठती इस तरह की आवाजों से प्रतीत होता है कि ओली चाहते हैं कि सीमा पर तनाव बढ़े, ताकि देश का ध्यान उधर ही उलझा रहे। 29 मई, 2020 को बजट प्रस्ताव के बाद ओली पद पर रहें न रहें, कहना मुश्किल है। 44 सदस्यीय स्टैंडिंग कमेटी में प्रधानमंत्री ओली के पक्ष में केवल 14 सदस्य हैं। प्रचंड गुट के 17 और माधव नेपाल के 13 सदस्य मिलकर कोई नया गुल खिलाने का मन बना चुके हैं।
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वहीं भारत में कई लोग इस सारे फसाद को भारत नेपाल के बिगड़ते रिश्तों का नतीजा मानते हैं। जिसके पीछे भी कई सारे लाजिक दिए जाते हैं, इसके बारे में भी आपको बता देते हैं। साल 2015 में नेपाल अपना नया संविधान लाया, इसके विरोध में नेपाल के मधेशी समुदाय ने खूब प्रदर्शन किया। उनका कहना था कि नेपाल में उनके अधिकार कुचले गए हैं। इस क्रम में भारत ने भी अपनी आपत्तियां जताई, लेकिन नेपाल ने कहा कि आपत्तियों के बहाने भारत उनके आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है। इसका असर दोनों देशों की सीमा पर पड़ा नेपाल जाने वाले ट्रक भारत में खड़े रहे, नेपाल की सप्लाई बंद हो गई। नेपाल अपने ज्यादातर उत्पादों के लिए भारत पर ही निर्भर रहता है, ऐसे में उसके यहां जरूरी चीजों की किल्लत हो गई। नेपाल का आरोप है कि भारत ने जानबूझकर सीमा सील कर दी ताकि नेपाल को भारत पर निर्भरता का एहसास कराया जा सके। लेकिन भारत का कहना था कि नेपाल में नेपालियों की ओर से हो रहे उग्र प्रदर्शन की वजह से सामान की आवाजाही प्रभावित हुई।
भारत पर कितना निर्भर है नेपाल
केपी शर्मा ओली का चीन प्रेम
केपी ओली को हमेशा से ही चीन के लिए झुकाव रखने वाला पीएम माना जाता है। पीएम पद संभालते ही ओली ने कहा कि जहां वह चीन साथ संबंधों को और गहरा करना चाहते हैं तो वहीं भारत के साथ समझौतों में अधिक फायदा लेंगे। केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में चीन के प्रति झुकाव बढ़ा है। पिछले कुछ वर्षों में नेपाल ने भारत की आपत्तियों के बावजूद चीन के साथ कई तरह के समझौते किये हैं। नेपाल ने चीन की कंपनियों को अपने यहां एनर्जी खोज की अनुमति दी है। नेपाल अब इंटरनेट सेवाओं के लिए भी भारत पर निर्भर नहीं रहा, बल्कि चीन की मदद मिलने लगी है। चीन की वन बेल्ट-वन रोड (ओबोर) परियोजना में भी नेपाल शामिल है और इसके लिए दोनो के बीच समझौते भी हुए हैं।
दिल से दिल मिलने का कोई कारण होगा। बिना कारण कोई बात नहीं होती। चीन भारत के पड़ोस में अपना नेटवर्क मजबूत करने के प्रयास में है। श्रीलंका और मालदीव के बाद नेपाल को भी अपने पक्ष में करना चाहता है। चीन चीन का पुराना फार्मूला है इन्वेस्टमेंट, श्रीलंका हो या मालदेव पाकिस्तान हो या नेपाल, इन देशों में खूब इनवेस्ट करता है और तरक्की के सपने बेचता है और फिर इसी कर्ज की राह अपने सामरिक हित साधता है।
नेपाल स्वयं में एक छोटा राष्ट्र है जो एक तरफ भारत तथा दूसरी तरफ चीन से घिरा हुआ है। चूंकि भारत एवं चीन मौलिक रूप से एक दूसरे के परस्पर विरोधी साबित हुए हैं, इसके चलते आधुनिक समय में नेपाल के अंदर किसी भी प्रकार की अस्थिरता उत्पन्न होने की प्रबल संभावना बनी होती है। समय के साथ, चीन की गतिविधियां नेपाल के अंदर बढ़ती ही जा रही है, इससे पहले की नेपाल चीन के 'कब्जे' में पूरी तरह से आ जाये, यह नितांत आवश्यक है कि भारत-नेपाल संबंध में जमी बर्फ पिघले और दोनों के रिश्ते बेहतर हो।