भारतीय सेनाध्यक्ष की गलत जानकारी से भारत ने गंवाया था लाहौर विजय का मौका

By अभिनव आकाश | Jan 10, 2020

एक कहावत है- आदत से लाचार होना। 1965 की जंग इस मुहावरे का सबसे मुफीद उदाहरण है। जब भारत और पाकिस्तान, दोनों अपनी आदतों के आगे हारे। पाकिस्तान की ओवरकॉन्फिडेंस की आदत और भारत की समझौते की टेबल पर कमजोर पड़ने की आदत। जिसकी वजह से इस जंग में भारत को जीतकर भी जीत नहीं मिली। साथ ही इस बात से हर कोई अंजान था कि एक समझौता भारत के लाल को ही लील ले जाएगा। भारत और पाकिस्तान के बीच अब तक 4 बड़े युद्ध हो चुके हैं और गर्व की बात यह है कि इन चारों युद्धों में भारत की विजय हुई है। भारत और पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध 1948 में कश्मीर में कब्जे को लेकर हुआ था, इसके बाद 1965 की लड़ाई, 1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और सबसे बाद में 1999 में कारगिल युद्ध। 1965 के युद्ध को शांत करने के लिए दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ था, ताशकंद समझौता। आज हम बात करेंगे उस समझौते की और साथ ही आपको बताएंगे कि कैसे भारतीय सेनाध्यक्ष की गलती की वजह से पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा और लाहौर विजय का अवसर भारत चूक गया। 

 

साल 1964-65 की बात है और देश में अनाज संकट की कमी साफ दिखाई देने लगी। इन हालात में लाल बहादुर शास्त्री ने अपना अंदाज बदला और एक बड़ा नारा लोगों को दिया। नारा था हफ्ते में एक दिन उपवास का। शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री आवास के लॅान में ही अनाज उगाने का प्रयास किया और दो बैलों के साथ लॅान की जुताई शुरू कर दी। लेकिन तभी इतिहास ने एक नया रास्ता चुन लिया। खराब आर्थिक हालात के बीच लाल बहादुर शास्त्री का सामना एक और चुनौती से हुआ। चीन से लड़ाई को तीन साल भी नहीं गुजरे थे। भारतीय सेना हार के बाद अपना मनोबल जुटा ही रही थी। 1965 के मई और जून के महीने में पाकिस्तान ने गुजरात के कच्छ के रण पर हमला कर दिया। ये वो इलाका था जहां कोई सीमा विवाद नहीं था। इतना ही नहीं इस हमले में पाकिस्तान ने भारत के एक इलाके कंजरकोट को हथिया लिया। 1965 के जून महीने में अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा। इसके तहत भारत को 75 स्क्वायर मील जमीन पाकिस्तान को देनी पड़ी। जिसकी वजह से प्रधानमंत्री शास्त्री की तीखी आलोचना हुई। संसद में आलोचना करने वालों में विजयालक्ष्मी पंडित भी थीं। रण आफ कच्छ पर समझौता शास्त्री द्वारा युद्ध को टालने की नीति थी। 5 अगस्त आते-आते शास्त्री को ये लग गया कि युद्ध को टालना नामुमकिन है। चीन से लड़ाई के तीन साल बाद एक बार फिर भारत युद्ध की तरफ बढ़ रहा था। पिछली लड़ाई के जख्म ताजे थे और पाकिस्तान उसे ही कुरेदने की कोशिश कर रहा था। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और विदेश मंत्री जुल्फेकार अली भुट्टो समझ रहे थे कि कश्मीर पर कब्जा करने का इससे बेहतर मौका फिर कभी नहीं मिलेगा। 

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1 सितंबर 1965 के दिन आपरेशन ग्रैंड स्लैम के तहत पाकिस्तानी फौज ने जम्मू कश्मीर के छंब में भारतीय सेना पर तोपों से जबरदस्त हमला किया। पाकिस्तान को चीन की तरफ से पूरा समर्थन मिल रहा था। लेकिन इस समय चीन के रूस और अमेरिका से रिश्ते अच्छे नहीं थे इसी कारण वह युद्ध में सीधे तौर पर भाग नहीं ले रहा था। 6 सितंबर 1965 को भारतीय सेना ने वेस्टर्न फ्रंट पर अंतरराष्ट्रीय सीमा को लांघते हुए आधिकारिक तौर पर युद्ध का बिगुल बजा दिया। हिंदुस्‍तान ने लाहौर और सियालकोट को निशाना बनाकर सरहद पार बड़े हमले कर जबाव दिया। 22 सितंबर 1965 को संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद की दखलंदाजी के बाद दोनों मुल्‍कों के बीच संघर्ष विराम हुआ। इस युद्ध में 2862 भारतीय सैनिक और 5 हजार 8 सौ पाकिस्‍तानी फौजियों की जान गई। 97 भारतीय टैंक और 497 पाक्स्तिानी टैंक बर्बाद हो गए। 1900 वर्ग किमी पाकिस्‍तानी इलाका हिंदुस्‍तान ने जीता, जबकि पाकिस्‍तान के हाथ 540 वर्ग किमी आया। 

 

भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना को खदेड़ दिया और लाहौर के बाहर तक पहुँच गयी थी। लेकिन 1965 की जंग के समय भारत के आर्मी चीफ जयंतो नाथ चौधरी की एक गलती के कारण भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा और भारत को पाकिस्तान के जीते हुए सभी इलाके लौटाने पड़े।

 

भारत के आर्मी चीफ जयंतो नाथ चौधरी की गलती के बारे में तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी डायरी में लिखा था। "1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर" किताब में आप पढ़ सकते हैं। इस किताब के लेखक आरडी प्रधान का लिखा एक वाकया जिसने भारत की जीत को हार में बदल दिया था। 

 

सितंबर, 20 1965:  प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ से पूछा कि अगर जंग कुछ दिन और चले, तो भारत को क्या फायदा होगा। सेना प्रमुख ने कहा कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है। इसीलिए अब और जंग लड़ पाना भारत के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि भारत को रूस और अमेरिका की पहल पर संघर्ष विराम का प्रस्ताव मंजूर कर लेना चाहिए और शास्त्री जी ने ऐसा ही किया।

 

लेकिन बाद में मालूम चला कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 प्रतिशत सामान ही खर्च हुआ था। अगर भारत चाहता तो पाकिस्तान का नामो-निशान मिटाने तक लड़ता रहता। लेकिन भारत के सेनाध्यक्ष की गलत जानकारी देने की गलती के कारण ऐसा नहीं हो सका। सेनाध्यक्ष की गलतियां इतने पर खत्म नहीं होती हैं। समझौते से पहले भारत की सेना लाहौर के बाहर तक पहुँच चुकी थी। इंडियन आर्मी आसानी से सियालकोट और लाहौर पर कब्जा कर सकती थी। लेकिन आर्मी चीफ ने शास्त्री को ऐसा करने से रोका।

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जब पाकिस्तानी सेना ने पंजाब के खेमकरन पर हमला किया, तो उस वक्त वहां भारतीय सेना के कमांडर हरबख्श सिंह पॉजिशन पर थे। आर्मी चीफ ने हरबख्श सिंह से कहा कि वो किसी सुरक्षित जगह पर चले जाएं। लेकिन कमांडर हरबख्श सिंह ने अपने आर्मी चीफ की सलाह को मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद ही हुई थी ‘असल उत्तर’ की भयंकर लड़ाई। जहां भारतीय सेना के हवलदार वीर अब्दुल हमीद ने जबर्दस्त बहादुरी दिखाई थी। हमीद ने पाकिस्तान के कई पैटन टैंक बर्बाद कर दिए। भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया था और यह हमला इतना भयानक था कि पाकिस्तानी सेना अपनी 25 तोपों को छोड़कर भाग गई थी।

 

ताशकंद समझौता

1965 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के कई इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया था। 23 सितम्बर को युद्ध विराम का ऐलान हो गया। लेकिन अभी भी सीमा पर तनाव बरक़रार था। दोनों देशों के बीच मध्यस्थता के लिए रूस आगे आया और ताशकंद में भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान को समझौते के लिए बुलाया गया। पाकिस्तान समझौते में कश्मीर पर जोर डालना चाहता था। लेकिन शास्त्री जी टस से मस नहीं हुए। हालांकि एक बात जो शास्त्री जी को अंदर ही अंदर खाई जा रही थी कि समझौते के मुताबिक भारतीय सेना को महत्वपूर्ण इलाकों से हटना पड़ेगा जिन्हें भारत ने युद्ध में जीता था। यानी युद्ध में भारत को जो बढ़त मिली वह कायम नहीं रहती। शास्त्री जी इस बात पर देश की प्रतिक्रिया से थोड़े चिंतित थे। ताशकंद में 10 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति के बीच 9 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। इसमें कहा गया कि 25 फरवरी तक दोनों देशों की सेनाएं 5 अगस्त के पहले की स्थिति में लौट जाएंगी। इसमें कश्मीर की कोई चर्चा नहीं की गयी थी। तो आइए जानते हैं इस समझौते के बारे में...

 

1. 25 फरवरी 1966 तक दोनों देश अपनी सेनाएं सीमा रेखा से पीछे हटा लेंगे। दोनों देशों के बीच आपसी हितों के मामलों में शिखर वार्ताएं तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएं जारी रहेंगी।

2. भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच हुए ताशकंद समझौते के तहत दोनों देशों को जीती हुई भूमि लौटानी पड़ी। (यह करार का अहम हिस्‍सा था)

3. भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने-अपने झगड़ों को शांतिपूर्ण समाधान खोजेंगे। दोनों देश 25 फ़रवरी, 1966 तक अपनी सेना 5 अगस्त, 1965 की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे।

4. इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ता तथा अन्य स्तरों पर वार्ता जारी रहेगी। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे।

5. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध फिर से स्थापित कर दिए जाएंगे। एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा।

6. आर्थिक एवं व्यापारिक संबंधों तथा संचार संबंधों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा। 

7. शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में ज़ब्त की गई एक दूसरे की संपत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।

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इस समझौते के बाद ताशकंद में एक पार्टी रखी गई, पार्टी में शामिल होने के बाद रात करीब 10 बजे शास्त्री जी अपने होटल के कमरे में आ गए। अगले दिन सुबह 7 बजे शास्त्री जी का विमान काबुल के लिए रवाना होने वाला था। लेकिन शास्त्री जी के लिए वह सुबह कभी नहीं आई। रात 11 बजे शास्त्री जी ने दिल्ली फ़ोन मिलाकर अपनी बेटी कुसुम से बात की। शास्त्री जी ने घरवालों से कहा कि वो भारतीय अख़बार काबुल भिजवा दें, जहां उन्हें अगले दिन पहुंचना था। रात के करीब 1 बजकर 20 मिनट पर शास्त्री जी की हालत बिगड़ गयी और डाक्टरों को बुलाया गया। लेकिन शास्त्री जी दुनिया से चले गए थे। उस समय ताशकंद में रात के 1 बजकर 30 मिनट हो रहे थे और भारत में समय था रात के 2 बजे का। उनकी मौत की खबर फैलते ही छोटे से कद के इस बड़े नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए एयरपोर्ट पर लोगों का तांता लग गया।

 

- अभिनव आकाश

 

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