सनातन हिंदू संस्कृति के कारण ही सफल हो पाया है भारत का लोकतंत्र

By प्रह्लाद सबनानी | Sep 01, 2022

किसी भी राष्ट्र के मूल में कुछ तत्व निहित होते हैं, जिनके बल पर वह देश आगे बढ़ता है और समाज के विभिन्न वर्गों को एकता के सूत्र में पिरोए रखता है। भारत के एक राष्ट्र के रूप में, इसके मूल में, सनातन हिंदू संस्कृति का आधार है जो हजारों वर्षों से भारत को आज भी भारत के मूल रूप में ही जीवित रखे हुए है। अन्यथा, पिछले लगभग 1000 वर्षों में भारत को तोड़ने के लिए अरब के आक्रांताओं और अंग्रेजों के द्वारा अनेकानेक प्रयास किए गए हैं। अरब के आक्रांताओं एवं अंग्रेजों ने बहुत अधिक प्रयास किए कि किसी तरह भारतीय मूल संस्कृति को तहस नहस किया जाये, शिक्षा पद्धति को ध्वस्त किया जाये, बलात हिंदुओं का धर्म परिवर्तन किया जाये, आदि आदि। इन प्रयासों में उन्हें कुछ सफलता तो अवश्य मिली परंतु पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि कई अन्य देशों (ईरान, लेबनान, इंडोनेशिया, मिस्त्र, ग्रीक आदि) में इनके यही प्रयास पूर्ण रूप से सफल रहे एवं वहां के लगभग सम्पूर्ण नागरिकों को इस्लाम में परिवर्तित करने में वे सफल रहे। भारत में चूंकि सनातन हिंदू धर्म का बोलबाला है अतः यहां इन तत्वों को आज तक सफलता नहीं मिली है हालांकि इनके प्रयास अभी भी जारी हैं। 

 

अंग्रेजों ने जब भारत पर शासन करना प्रारम्भ किया तो अज्ञानतावश उनकी यह सोच थी कि यहां के नागरिक कुछ जानते ही नहीं हैं और इनकी विज्ञान के प्रति कोई समझ ही नहीं है। उनकी यह भी सोच थी कि हिन्दुस्तान कई राज्यों का एक समूह है और यह एक राष्ट्र नहीं है। उनका मानना था कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा है, ना ही अभी यह एक राष्ट्र है और न ही कभी भविष्य में यह एक राष्ट्र रह पाएगा। क्योंकि यहां तो विभिन्न राजा राज्य करते हैं और उनके राज्यों की अलग-अलग भौगोलिक सीमाएं हैं इसलिए भारत का एक राष्ट्र के रूप में कभी अस्तित्व ही नहीं रहा है। अंग्रेज यह भी मानते थे कि पूरे भारत के लोग एक हो जाएंगे यह कभी सम्भव ही नहीं है।

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अंग्रेज अहंकारवश भारतीयों को अनपढ़, असभ्य एवं रूढ़िवादी तक कहते थे। उनकी नजरों में भारतीयों की कोई एतिहासिक उपलब्धि नहीं है एवं भारत के बर्बर, जंगली लोगों को सभ्यता सिखाने का दायित्व हमारा (अंग्रेजों का) है। भारत के लोग प्रशासन करने के अयोग्य है। किसी कारण से यदि भारत को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दे दिया तो इस देश की बर्बादी सुनिश्चित है और फिर इसकी जवाबदारी हमारी (अंग्रेजों की) होगी। उनको विशेष रूप से हिंदुओं से बहुत डर लगता था और वे हिंदुओं से सावधान रहने की आवश्यकता पर बल दिया करते थे। उनकी सोच थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत बहुत जल्दी बर्बाद हो जाएगा। भारत में लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता, यह बहुत ही अस्वाभाविक राज्य है। भारत आजाद होते ही कई टुकड़ों में बिखर जाएगा क्योंकि यहां 52 करोड़ लोग हैं एवं इनकी अलग-अलग भाषाएं हैं, ये आपस में लड़ते रहते हैं और कभी भी एक नहीं रह पाएंगे। भारत आजादी के बाद पूरी दुनिया के लिए एक भार बन जाएगा एवं यहां के नागरिक भूख से ही मर जाएगे। उक्त सोच ब्रिटेन, अमेरिका, लगभग समस्त यूरोपीय देशों सहित कई देशों की भी थी। 

 

आज भी आतंकवादी संगठन एवं विदेशी ताकतें जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं वे इसी परिकल्पना पर अपना कार्य प्रारम्भ करते हैं एवं समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में लड़ाने का प्रयास करते नजर आते हैं। उक्त वर्णित देशों की यह सोच इसलिए थी क्योंकि उनके पास हिंदू सनातन संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं था बल्कि उनकी अपनी पश्चिम रंग में रची बसी सोच थी जो केवल “मैं” में विश्वास करती थी। उनके लिए देश मतलब केवल भौगोलिक सीमाओं वाला जमीन का टुकड़ा और उस जमीन के टुकड़े पर रहने वाले लोग ही विशेष हैं। उनके सोच में अहम का भाव कूट-कूट कर भरा है। केवल मैं ही श्रेष्ठ हूं। इस दुनिया में रहने वाले बाकी सभी लोग हमसे हीन हैं। जर्मन लोगों ने अपना एक विशेष दर्शन शास्त्र दुनिया के सामने रखा जिसमें उन्होंने किसी और दर्शन को स्वीकार न करते हुए केवल अपने दर्शन को ही श्रेयस्कर माना एवं अहंकार का भाव जाहिर किया। जर्मन, फ़्रेंच से भिन्न हैं। यूरोप में प्रत्येक देश ने अपने आप को दूसरे देश से बिलकुल अलग रखा हुआ है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एकांतिक है इसमें समावेशिता का नितांत अभाव है। इसीलिए आज रूस, यूक्रेन के साथ लड़ रहा है तो जर्मनी की फ़्रांस के साथ नहीं बनती है। इसी प्रकार यूरोप के लगभग सभी देशों के आपसी विचारों में किसी न किसी प्रकार की भिन्नता दृष्टिगोचर होती रहती है। जबकि यह लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानने वाले देश हैं।

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आज कई इस्लामी देश भी पश्चिमी सोच की राह पर चलते हुए दिखाई दे रहे हैं कि केवल हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है। इस धरा पर जो भी इस्लाम को नहीं मानता है वह काफिर है और उसे जीने का हक नहीं है। काफिर या तो इस्लाम को कबूल करे अथवा वह मार दिया जाएगा। और तो और इस्लामी देशों में भी अलग-अलग किस्म के कई फिर्के आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते हैं एवं एक दूसरे को अपने से श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं। 

 

जबकि भारतीय विचारधारा इसके ठीक विपरीत आचरण करना सिखाती है विशेष रूप से सनातन हिंदू संस्कृति में जो व्यक्ति जितना विशेष होगा वह उतना ही विनयपूर्ण होगा और इस नाते भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति अविभाजनकारी दर्शन पर चलकर सर्वसमावेशी है। इसमें ईश्वरीय भाव जाहिर होता है। जो मेरे अंदर है वही आपके अंदर भी है अर्थात मुझमें भी ईश्वर है और आपमें भी ईश्वर का वास है। इस प्रकार प्रत्येक भारतीय, चाहे वह किसी भी जाति का हो, किसी भी मत, पंथ को मानने वाला हो, अपने आप को भारत माता का सपूत कहने में गर्व का अनुभव करता है। और, इसलिए भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति अन्य संस्कृतियों को भी अपने आप में आत्मसात करने की क्षमता रखती है। इतिहास में इस प्रकार के कई उदाहरण दिखाई देते हैं। जैसे पारसी आज अपने मूल देश में नहीं बच पाए हैं लेकिन भारत में वे रच बस गए हैं। इसी प्रकार इस्लाम धर्म को मानने वाले लगभग सभी फिर्के भारत में निवास करते हैं जबकि विश्व के कई इस्लामी देशों में केवल एक विशेष प्रकार के फिर्के पाए जाते हैं।    

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, अंग्रेजों एवं अन्य कई देशों की सोच के ठीक विपरीत, विभिन्न मत, पंथों को मानने वाले भारतीय 26 विभिन्न राष्ट्रीय भाषाओं के साथ न केवल सफलतापूर्वक एक दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर आनंद में रह रहे हैं बल्कि आज भारतीय लोकतंत्र पूरे विश्व में सबसे बड़े मजबूत लोकतंत्र के रूप में अपना स्थान बना चुका है। यह केवल सनातन हिंदू संस्कृति के कारण ही सम्भव हो सका है। सनातन हिंदू संस्कृति में एकात्मता का भाव मुख्य रूप से झलकता है। अतः वर्तमान में आतंकवादियों एवं अन्य कई देशों द्वारा भारत में अस्थिरता फैलाने के जो प्रयास किए जा रहे हैं उन्हें भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति के दर्शन को अपनाकर ही पूर्णतः दबाया जा सकता है एवं इसलिए आज सामाजिक समरसता की देश में सबसे अधिक महती आवश्यकता है। इसके भी आगे जाकर आज भारतीय मुस्लिमों के लिए पूरे विश्व के सामने भारतीयता की पहचान कराने का समय आ गया है एवं भारतीय संस्कृति में रचे बसे इस्लाम के चेहरे को पूरे विश्व के सामने लाना चाहिए ताकि पूरे विश्व से आतंकवाद का सफाया किया जा सके। वैसे हाल ही के समय में कई देशों यथा, जापान, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया आदि में भारतीय संस्कृति के प्रति रुझान बढ़ता जा रहा है। 

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परमपूज्य सर संघचालक श्री मोहन भागवत जी भी कहते हैं कि “हमारे यहां (भारत में) सब बातों में अपनापन देखने की प्रवृत्ति है। अपनापन देखने की प्रवृत्ति से दुनिया का भला होता है। अलगाव देखने की प्रवृत्ति से दुनिया में कलह होती है, शोषण होता है, अन्याय होता है, युद्ध होते हैं, पर्यावरण की हानि होती है। इसलिए सनातन धर्म की सबको अपना मानने की प्रवृत्ति जो धर्म है, उसकी रक्षा के लिए भारत का निर्माण हुआ है।”


अब तो विश्व के कई विकसित देशों को भी यह आभास होने लगा है कि भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति इस धरा पर सबसे पुरानी संस्कृतियों में एक है और भारतीय वेदों, पुराणों एवं पुरातन ग्रंथों में लिखी गई बातें कई मायनों में सही पाई जा रही हैं। इन पर विश्व के कई बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शोध किए जाने के बाद ही यह तथ्य सामने आ रहे हैं।


-प्रह्लाद सबनानी

सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक

भारतीय स्टेट बैंक

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