आजादी का अमृत महोत्सव तो मना रहे हैं लेकिन समस्याओं के रूप में विष भी खूब बिखरा पड़ा है

By ललित गर्ग | Dec 08, 2021

भारत को अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाते हुए अतीत का जिया गया वह कालखण्ड भूलाना होगा जो हर क्षण कृतभूलों का पश्चाताप देता रहा, अपराध-बोध कराता रहा? क्यों हमारी व्यवस्था भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है? क्यों आजादी के 75 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय चरित्र नहीं बन पाया है? भले ही स्वतंत्रता ही देशवासियों के लिए सबसे बड़ा अमृत है और इस अमृत को प्राप्त करने के लिए ही देश के लाखों बेटे-बेटियों ने बलिदान दिए। अफसोस तो इस बात का है कि इस बहुमूल्य आजादी को राजनीतिक स्वार्थों के लिये कभी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ाया तो कभी भाषाई विवादों में उलझाया। अपनी ही जड़ों से काटने एवं आत्मविस्मृति का षड्यंत्र चलता रहा। कभी शासन, सत्ता, संग्रह और पद के मद में चूर आदमी ने आतंक फैलाया तो कभी हिंसा का ताण्डव किया। यहां बड़ा गंभीर प्रश्न है, एक अमृत सागर मंथन से मिला, एक अमृत स्वतंत्रता के साथ देशवासियों को मिलना था, पर ऐसा लगता है कि वह अमृत आमजन को पूरी तरह नहीं मिला। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हमारा सबसे बड़ा संकल्प सशक्त भारत, ईमानदार भारत एवं विकसित भारत का होना चाहिए।

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क्या कारण है कि जन्मभूमि को जननी समझने वाला भारतवासी आज भूख और अभावों से आकुल होकर विदेश की ओर भागता है और वहां जाकर सम्पन्न हो जाता है? और यह भी नहीं कि बाहर जाने वाला हर व्यक्ति दक्ष होता है। क्या कारण है कि भारत की आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम अपने ही देशवासियों को दो वक्त की रोटी जुटाने के भी काबिल नहीं बना पाये हैं? कारण है- शासन, सत्ता, संग्रह और पद के मद में चूर देश का राजनीतिज्ञ, जिसने जनतंत्र द्वारा प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग किया और जनतंत्र की रीढ़ को तोड़ दिया है। कृषि प्रधान देश को कुर्सी-प्रधान देश में बदल दिया है। सरकारें हैं-प्रशासन नहीं। कानून है-न्याय नहीं। साधन हैं-अवसर नहीं। भ्रष्टाचार की भीड़ में राष्ट्रीय चरित्र खो गया है। उसे खोजना बहुत कठिन काम है। बड़े त्याग और सहिष्णुता की जरूरत है। उसे खोजने के लिए आंखों पर से जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता का काला चश्मा उतारना होगा। विघटनकारी प्रवृत्तियों को त्याग कर भावनात्मक एकता के वातावरण का निर्माण करना होगा। हथकण्डों की चुनाव-प्रणाली में सुधार कर बुरे और बुरे में से कम से कम बुरे को नहीं, अपितु अच्छे और अच्छे में से सबसे अधिक अच्छे को चुने जाने का वातावरण बनाना होगा। विघटन के कगार पर खड़े राष्ट्र को बचाने के लिए राजनीतिज्ञों को अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति को त्यागना होगा। ऐसा कर पायेंगे, तभी हमारा आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का कोई अर्थ है।


सागर मंथन का अमृत तो केवल चार स्थानों पर गिरा, जो पवित्र तीर्थ बन गए, पर आजादी का अमृत तो समूचे राष्ट्र में गिरा, फिर भी जनता के हाथ में कुछ नहीं आया, कोरा स्वार्थी एवं संकीर्ण राजनेताओं में बंट गया। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल, लाहिड़ी, अशफाक और चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि ने जिस अमृत को सुरक्षित भारत की भावी पीढ़ियों के लिए रखा था, वह तो रास्ते में बंट गया। उस अमृत पर तो कोरी राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकी गयीं, अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध किये गये, देश को भुला दिया गया। यही कारण है कि 75 वर्षों के कालखण्ड में राष्ट्र मजबूत होने की बजाय दिन-ब-दिन कमजोर होता गया। राष्ट्र कभी भी केवल व्यवस्था पक्ष से ही नहीं बनता, उसका सिद्धांत एवं चरित्र पक्ष भी सशक्त होना चाहिए। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के नागरिकों के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय चरित्र नहीं बन पाया। राष्ट्रीय चरित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा है। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर्त्तव्य को गौण कर दिया गया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है।


दुःखद स्थिति है कि जिस दिन अमृत महोत्सव का प्रारंभ हो रहा था, उसी दिन सागर से निकले हलाहल विष से भी बुरा समाचार मिला कि इंटरनेशनल ट्रांसपेरेंसी संस्था ने भारत को दुनिया के सबसे भ्रष्ट दस देशों में रखा है। यानी हम भ्रष्ट हो गए। यह सत्य है कि जब राजनीति भ्रष्ट होती है तो इसकी परछाइयां दूर-दूर तक जाती हैं। प्रबुद्ध मत है कि गांधीजी ने नैतिकता दी, पर व्यवस्था नहीं। जो नैतिकता दी वह एक महान राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष की नैतिकता थी। हालांकि गांधीजी ने उस नैतिकता को स्थायी जीवन मूल्य बनाया था। पर सत्ता प्राप्त होते ही वह नैतिकता खिसक गई। जो व्यवस्था आई उसने विपरीत मूल्य चला दिये। हमारी आजादी की लड़ाई सिर्फ आजादी के लिए थी-व्यवस्था के लिए नहीं थी। भ्रष्टाचार का विष पीते-पीते भारत की जनता बेहाल हो गई। हजारों लोग बेकसूर जेलों में पड़े हैं। रोटी के लिए, शिक्षा के लिये, चिकित्सा के लिये, रोजगार के लिए तरसते हैं। उपचार के लिए अस्पतालों के धक्के खाते हैं। आयुष्मान जैसी योजना भी भारत में भ्रष्टाचार की शिकार हो गई। कुछ सत्तापतियों की सात पीढ़ियां सुरक्षित हो गयीं। आज हमारी व्यवस्था चाहे राजनीति की हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो, धार्मिक हो, औद्योगिक हो, शैक्षणिक हो, चरमरा गई है। दोषग्रस्त हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि गांधी बहुत पीछे रह जाता है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। प्रगतिशील कदम उठाने वालों ने और समाज सुधारकों ने अगर व्यवस्था सुधारने में मुक्त मन से सहयोग नहीं दिया तो आजादी के कितने ही वर्ष बीत जाये, हमें जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं हो पायेंगे।

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130 करोड़ की आबादी का यह देश ऐसे खिलाड़ी तैयार नहीं कर सका, जो क्षण का सही उपयोग करते और देश का सिर ऊंचा कर देशवासियों को क्षण की कीमत समझा देते। घड़ी में तो सबके 24 घण्टे होते हैं, न किसी के कम और न ज्यादा। अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता से जब हमारे खिलाड़ी छोटे-मोटे तमगे लिये लौटते हैं, उस दिन बूढ़ा हिमालय ज़ार-ज़ार रोता है, क्योंकि हिमालय की ही कन्दराओं में बैठकर कितने ही ऋषि-मुनियों ने ''क्षण'' की व्याख्या की थी। हमारे वेद, शास्त्र, उपनिषद्, ऋषि, मुनि, अवतार सदा कहते रहे हैं कि ''जीवन में क्षण का बहुत महत्व है''। भगवान महावीर कहते हैं- ''खणं जाणहि'' क्षण को पहचानो। प्रति क्षण जागरूक रहो। क्षण भर भी प्रमाद मत करो। जीवन क्षणभंगुर है। ''क्षण'' खेल में ही महत्व नहीं रखता, जीवन में भी उतना ही महत्व रखता है- क्षण-क्षण समाप्त हो रहे जीवन में। जो राष्ट्र क्षण का उपयोग नहीं करता, वह भला जीवन्त राष्ट्र कैसे कहलाएगा। भारतीयों ने समय की कीमत नहीं जानी। कहीं पहुंचना है तो विलम्ब से, क्योंकि ठीक समय पर पहुंचने से लोग यह समझेंगे कि व्यक्ति के पास काम नहीं है। जानबूझ की विलम्बता का यह प्रदूषण समय की कीमत को निगल रहा है। क्षण का महत्व नया भारत- सशक्त भारत बनाने वाले नरेन्द्र मोदी जैसे राष्ट्रनायक से समझो, जो 18 से 20 घंटे प्रतिदिन खपते हैं।


आजादी का यह कैसा अमृत महोत्सव है, जिसमें विष ज्यादा-अमृत कम बचा है। सवाल यह है कि आजादी का अमृत कहां गया? जिस देश के न्यायालयों में न्यायाधीश ही पूरे नहीं, जिला अदालतों में जज पूरे नहीं, करोड़ों केस अदालतों में लंबित हैं और हैरानगी यह कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। देश के एक दर्जन से ज्यादा न्यायाधीश सेवानिवृत्त होते ही राज्यसभा में या उच्च पदों पर पहुंच जाते हैं, जो कई सवालों को जन्म देते हैं। जो आईएएस और आईपीएस अधिकारी लाभ के पदों पर विराजमान हैं, क्या यह आशा रखी जाए कि उन्होंने अपने कार्यकाल में जनता से न्याय किया होगा? अभी तो हम दुनिया के महाभ्रष्ट दस देशों में पहुंचे है, कल क्या होगा? कैसे विश्वगुरु का दर्जा पाएंगे? कैसे दुनिया की महाशक्ति बनेंगे? 


-ललित गर्ग

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