By आरएन तिवारी | Mar 19, 2021
दो पल की जिंदगी के दो ऊसूल।
निखरो फूलों की तरह और बिखरो खुशबू की तरह॥
भगवान ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था, हे अर्जुन ! अपनी जिंदगी को सुगंधित पुष्प की तरह बनाओ, जिसकी खुशबू से पूरी दुनिया और देश-समाज महक उठे।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं- पिछले अंक में हमने पढ़ा कि बुद्धिमान भक्त वही है जो अपने सभी कर्मों को भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है। जैसे सच्चे भक्त को भगवान की बातें सुनते हुए तृप्ति नहीं होती, वैसे ही अपने प्यारे भक्त अर्जुन के प्रति अपने हृदय की बात कहते-कहते भगवान को भी तृप्ति नहीं हो रही है। आखिर भगवान अपने हृदय की गोपनीय बातें अपने भक्त के सिवाय किससे कहें ? भगवान अपने सच्चे भक्त को ढूंढ़ते फिरते हैं और उसके वश में हो जाते हैं।
भगत के वश में हैं भगवान,
भक्त बिना वे कुछ भी नहीं हैं, भक्त है उनकी जान।
भगत के वश में हैं भगवान॥
इसीलिए भगवान, अर्जुन के बिना पूछे ही दसवें अध्याय का विषय आरंभ कर देते हैं।
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥
श्री भगवान् ने कहा- हे महाबाहु अर्जुन! तुम मेरी परम-प्रभावशाली बातों को फ़िर से सुनो, क्योंकि मैं तुझे अत्यन्त प्रिय मानता हूँ इसलिये तेरे हित के लिये कहता हूँ। भगवान के कहने का तात्पर्य है— हे अर्जुन ! तुम्हारे भीतर मेरे लिए अगाध प्रेम का भाव है और मेरे भीतर तुम्हारे लिए अगाध हित का भाव है इसलिए मैं वह ज्ञान की बातें फिर कहूँगा, जो मैंने सातवें और नौंवे अध्याय में कहा है। सातवें, नौवें और दसवें अध्यायों में भगवान ने मनुष्य के हित की कामना से अपने हृदय की बात कही है। हम सबका कल्याण करने वाली होने से ही गीता पूरी दुनिया को प्रिय है और विश्व-वंद्य है।
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥
भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! संशय को मिटाने वाली बुद्धि, मोह से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान, क्षमा का भाव, सत्य का आचरण, इंद्रियों का नियन्त्रण, मन की स्थिरता, सुख-दुःख की अनुभूति, जन्म-मृत्यु का कारण, भय-अभय की चिन्ता, अहिंसा का भाव, समानता का भाव, संतुष्ट होने का स्वभाव, तपस्या की शक्ति, दानशीलता का भाव और यश-अपयश की प्राप्ति में जो भी कारण हैं वे सब भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। आइए ! इसको थोड़ा समझ लेते हैं— हम इंसान इस दुनिया को कैसे देखें?
हमें यह मान लेना चाहिए कि इस संसार में जो कुछ घटित हो रहा है वह सब भगवान का ही रूप है, भगवान की ही लीला है। भगवान की लीला में बालकांड भी है जहाँ प्रभु का प्राकट्य और वात्सल्य भाव है, अयोध्या कांड भी है जहाँ भगवान का वन गमन और दशरथ मरण भी है, अरण्य कांड भी है जहाँ भक्तों का भी मिलन है राक्षसों का भी मिलन है और सीता हरण भी है। लंका कांड में भयंकर युद्ध होता है, मार-काट होती है, खून की नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग कांडों में भगवान की अलग-अलग लीलाएँ हैं। परंतु तरह-तरह की लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है। इन सुख-दुख की लीलाओं से ही रामायण पूर्ण होती है। ऐसे ही इस दुनिया में हम सबके तरह-तरह के सुख-दुख के भाव हैं। कहीं कोई हँस रहा है तो कहीं पर कोई रो रहा है, कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है। इन विविध सुख-दुख की चेष्टाओं से ही हमारा जीवन पूर्ण होता है।
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
भगवान कहते हैं हे अर्जुन ! सातों महर्षि (जो सप्तर्षि कहे जाते हैं)
अंगिरा, अत्रि, मरीचि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु और वशिष्ठ उनसे भी पहले उत्पन्न होने वाले चारों सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार तथा स्वयंभू मनु आदि ये सभी मेरे मानस पुत्र हैं। संसार के सभी प्राणी इन्हीं की ही सन्ताने हैं। भगवान की अलौकिक कृपा की बात सुनकर अर्जुन बहुत खुश हुए और स्तुति करते हुए कहने लगे-
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! आप परम पिता परमेश्वर हैं, आप परब्रह्म हैं, आप परम-आश्रय दाता हैं, आप परम-शुद्ध चेतना हैं, आप शाश्वत-पुरुष हैं, आप दिव्य हैं, आप अजन्मा हैं, आप समस्त देवताओं के भी आदिदेव और आप परम पवित्र हैं। (जो स्वयम भी शुद्ध हो और दूसरों को भी शुद्ध करे, उसको परम पवित्र कहा जाता है)
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥
हे पुरूषोत्तम! हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे समस्त देवताओं के देव! हे समस्त प्राणियों को उत्पन्न करने वाले! हे सभी प्राणियों के ईश्वर! एकमात्र आप ही अपने आपको जानते हैं या फ़िर वह ही जान पाता है जिसकी अन्तर-आत्मा में प्रकट होकर आप अपना ज्ञान कराते हैं।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥
हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार आपका निरन्तर चिंतन करके आपको जान सकता हूँ और मैं आपके ईश्वरीय स्वरूप का किन-किन भावों से स्मरण करूँ? अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को तो जानते थे, पर उनके समग्र स्वरूप को नहीं जानते थे। अर्जुन भगवान के समग्र स्वरूप को जानना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भगवत प्राप्ति के उद्देश्य से यह प्रश्न पूछा। हमें यह समझना चाहिए कि अर्जुन हम सबका प्रतिनिधि हैं, इसलिए यह प्रश्न केवल अर्जुन का नहीं, बल्कि हम सबका है।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
हे जनार्दन! अपनी योग-शक्ति और अपने ऐश्वर्यपूर्ण रूपों को फिर भी विस्तार से कहिए, क्योंकि आपके अमृत स्वरूप वचनों को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। जैसे भूखे को भोजन और प्यासे को पानी अच्छा लगता है, वैसे ही जिज्ञासु अर्जुन को भगवान के प्रिय वचन बहुत विलक्षण लगते हैं, इसीलिए अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि आप ऐसे अमृतमय वचन सुनाते जाइए।
धन्य है अर्जुन का जीवन, जिन्हें परम ब्रह्म परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की अमृतमई वाणी सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्री कृष्ण...
-आरएन तिवारी