दिखने और दिखाने का ज़माना है। जिसके पास जो भी बढ़िया, ख़ास, नई चीज़ है दिखा रहा है या दिखा रही है। अब तो देखा देखी में अनेक बार ऐसा भी काफी कुछ दिखा दिया जाता है जो न देखने लायक होता है न दिखाने लायक। यह प्रशंसनीय है कि बढ़ती बेशर्मी के ज़माने में, लोग अभी यह समझते हैं कि फूहड़ता क्या होती है। फिर भी हर कुछ, सब कुछ दिखाया जा रहा है। यह भी नहीं देखा जा रहा है कि कहां और कैसे दिखाना है। फार्मूला सीधा है, बस दिखाना है। ज़िंदगी में पैसा खूब हो जाए तो इंसान काफी कुछ दिखा सकता है और दिखाना शुरू कर भी देता है। पैसा धीरे धीरे बढ़े तो नियंत्रित रहता है मगर तेज़ी से बढे तो पचाना मुश्किल हो जाता है। जो दिख रहा हो तो उसे मानना ही पड़ता है।
बंदा पहले कहीं भी कुछ भी खा लिया करता है। उसकी पसंद और न पसंद में फर्क नहीं रहता। जेब में पैसा दिखने के बाद ध्यान रखना पड़ता है कि क्या खाएं। ब्रांडेड लेडीज़ हैंड बैग, ज्यादा महंगी घड़ियां, लम्बी और ऊँची कारें पसंद आने लगती हैं। छोटे मकान में जगह कम पड़ने लगती है। जहां रह रहे हों वो क्षेत्र नापसंद आने लगता है। किंग साइज़ के बिस्तर पर सोना चाहता है। दिखाने लायक पैसा न हो तो जिस्म छिपाने के लिए कपडे कम पड़ते हैं। दिखाने लायक पैसा हो जाए तो प्रसिद्धि भी आने लगती है और दोनों में से किसी एक के कारण जिस्म दिखाने के लिए कपडे छोटे होते जाते हैं। हर पसंद बदल जाती है। पहले से पैसा न हो तो प्रतिभा इतनी आसानी से शरीर से बाहर नहीं आती। आराम से सबको नहीं दिखती। पैसा आ जाए तो स्वाभाविक है दिखना है इसलिए प्रतिभा भी सभी को अविलम्ब दिखनी शुरू हो जाती है और तारीफ़ भी मिलनी शुरू हो जाती है।
पैसा हो तो ज़िंदगी जीने की शैली तो बदल ही जाती है इंसान अपने मरने का अंदाज़ भी बदलना चाहता है। बढ़ती दौलत चाहे उसे चौबीस घंटे भागम भाग में फंसाकर रखे, ढंग से जीने न दे लेकिन यही दौलत उसे महंगे हस्पताल में धीरे धीरे मरने को उकसाती है। अगर बुरे वक़्त से जंग जीत ली तो किस्मत, नहीं तो दुनिया के बाजार हो जाने के कारण कारण उसके परिवार वाले श्रद्धाजंलि का स्वरूप बदल देते हैं। शोक सभा को शोक उत्सव में बदलने की पूरी कोशिश करता है दिखता पैसा। ऐसा कर आम व्यक्ति का जाना प्रसिद्ध व्यक्तियों की तरह जाना हो जाता है।
सच तो यह है कि पैसा होगा तो दिखेगा।
- संतोष उत्सुक