मुझे भी वायरल होना है (व्यंग्य)

By डॉ. मुकेश असीमित | Oct 14, 2024

मैं परेशान, थका-हारा देवाधिदेव, पतिदेव, अभी बिस्तर पर उल्टे मुँह पड़ा ही था कि न जाने कहाँ से नींद ने मुझे आगोश में ले लिया और मुझे सपना भी आया। जी हाँ, वैसे तो नींद के खर्राटों की आवाज़ से डरकर सपने पास आते ही नहीं, जब घरवाले पास नहीं आते तो सपनों की क्या मजाल। खैर, सपना भी अच्छा था, हकीकत से कोई ताल्लुक नहीं रखता था। मैं सेलिब्रिटी बन गया था, जी हाँ, एक बहुत बड़ी सेलिब्रिटी। रातों-रात स्टार बनने वाली सेलिब्रिटी, अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर छपने वाली सेलिब्रिटी, चमचमाती गाड़ी के खुले दरवाजे से सटकर पोज़ देने वाली सेलिब्रिटी, मैगज़ीन के पेज थ्री में छपने वाली सेलिब्रिटी, पपराज़ी की शिकार सेलिब्रिटी। जी हाँ, मेरा एक शॉर्ट वीडियो, जिसे रील कहते हैं, वायरल हो गया। यह रील भी कोई मेरी तुच्छ बुद्धि से निकले हुए ज्ञान चक्षुओं को खोलने वाला प्रेरक वीडियो नहीं था, न ही मेरे चिकित्सा ज्ञान से लाभान्वित करने वाला था। वह तो मेरी कहीं दबकर रह गई नृत्य कला प्रतिभा का भोंडा प्रदर्शन था। यह मेरी ससुरालवालों की शादी में, साली की मनुहार भरे अनुनय-विनय के कारण, अपने आपको रोक नहीं पाने का नतीजा था, जिसे श्रीमती जी ने सोशल मीडिया पर डाल दिया। और जिसे दर्शकों ने जमकर देखा। वीडियो पर 1 मिलियन का करिश्माई लाइक आ चुका था। मेरे पास 1 करोड़ का चेक भी आ गया था, जो मैंने हाथ में ले रखा था। 


मेरे घरवाले मेरे आगे-पीछे नाच रहे थे। पहली बार सभी घरवालों को मेरे आगे-पीछे नाचते देख रहा था। शायद पहली बार उन्हें लगा कि मैं, एक नाकारा निकम्मा सा आलसी जीव, भी परिवार को कुछ खुशियाँ दे सकता हूँ। चलो, उन्हें कुछ तो मुझमें खूबी नज़र आई जो उन्हें खुशियाँ दे सकती थी। बेटे के हाथ में कोई ऑटो मैगज़ीन थी, जिसमें कम से कम 10 मॉडलों की श्रंखला में बड़ी गाड़ियों का चयन कर रखा था। श्रीमती जी की बरसों की नौलखा हार की चाहत पूरी होने की चमक उसकी आँखों में थी।

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नौलखा हार की चाहत तो शादी के पहले साल से ही थी, लेकिन महंगाई की मार और मेरे बार-बार के इनकार ने इस नौलखा हार को सिर्फ नाम का नौलखा और हकीकत में 50 लाख का कर दिया था। अब तो श्रीमती जी ने भी कहना बंद कर दिया था। मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि मेरे दो-चार कमर मटकाने वाले स्टेप लोगों को इतने पसंद आ जाएँगे। सच पूछो तो मारे खुशी के अब खुलकर मेरी प्रतिभा खुली सांस लेने लगी, मतलब कि नाचने लगा। मुझे नाचते देख बीबी बोली, "रुको, रील बनाने दो।" यानी कि अब मेरे नृत्य का इस प्रकार का मोनेटाइजेशन देखकर सभी बड़े खुश थे।


यूं तो जब से होश संभाला, तब से एक ही हसरत थी- फेमस होना, सेलिब्रिटी बनना। इसके लिए जो जतन मेरी तंगहाली और मुफलिसी में मैं कर सकता था, वे किए। यानी कि सपने तो देख ही सकता था, तो खूब सपने देखे। कभी फिल्मों का हीरो बना, फिल्मों में डायलॉग डिलीवरी देखते ही बनती थी। ये बात और है कि मेरी इस कलाकारी को देखने वाला मैं ही था। कार रेसिंग, सिंगिंग, इंस्ट्रुमेंट प्लेइंग, यानी कि हर अव्वल दर्जे के काम जो पेज थ्री की सेलिब्रिटी भरी दुनिया में होते हैं, वे किए। पेज थ्री की दुनिया में क्या होता है, वह तो वैसे भी हकीकत हो जानी थी। तो कभी रॉक स्टार बना, कभी हीरो तो कभी क्रिकेट का धोनी। यूं तो कभी भी बैट के हाथ नहीं लगाया, या यूं कहिए किसी ने बैट को हाथ लगाने ही नहीं दिया। बचपन में क्रिकेट में मुझे बस एक ही काम मिलता था- गेंद जो पाले से बाहर चली जाती, उन्हें दौड़-दौड़कर लाना और बॉलर को पकड़ाना। लेकिन हकीकत में जो क्रिकेट के सहायक प्लेयर के रूप में पानी पहुँचाने का काम करते थे, वही करते रहे। लेकिन सपनों में हमेशा धोनी जैसे ही बनते थे। अब जैसे-जैसे समय ने करवट ली, सपने भी बदलने लगे।


कॉलेज के समय में हमें सपने आने लगे कि कॉलेज की सारी लड़कियाँ हम पर मर रही हैं। और इतनी मर रही हैं कि देवानंद स्टाइल में हम गर्ल्स हॉस्टल के बाहर चहल-कदमी कर रहे हैं। गोलगप्पे की ठेली पर चाय पीने के लिए तो हॉस्टल की छत से लड़कियाँ कूद रही हैं हम पर मरने के लिए। सपनों में कई बार हम गिरफ्तार भी हुए, इतनी सारी लड़कियों को "मारने" के इल्जाम में। लेकिन हकीकत में जो बने वह तो हमने सपने में देखना तो दूर, सोचा ही नहीं था- डॉक्टर, वो भी हड्डियों का। मुझे याद है करौली के हॉस्पिटल में, एक बार हम दादाजी जो कि वहाँ भर्ती थे, पापा के साथ उँगली पकड़ते हुए पहुँचे थे। वहाँ पास ही कटे हुए प्लास्टर का एक ढेर पड़ा था, उसमें उन प्लास्टरों के हाथ-पैर देखकर हमारे हाथ-पैर फूल गए। हम डर के भागे कि अब कभी हॉस्पिटल के दर्शन नहीं करेंगे। लेकिन नियति को जो मंजूर होता है, वही होता है।


खैर, शादी हो गई। उसके बाद तो हकीकत की सच्चाई तले सारे सपने ऐसे दबे कि अब तो सपने भी घुट-घुट कर आते हैं। सपनों की जगह अब खर्राटों ने ले ली है। लेकिन कभी-कभी सपने भी फड़फड़ाकर बगावत स्वरूप आ ही जाते हैं। खैर, आज का सपना खास है। मेरे लिए एक्स्ट्रा कमाई का एक जरिया लेकर आया है। डॉक्टरी चले तो ठीक, नहीं तो रील बनाने लगूँ। आजकल की हर उम्र की पीढ़ी, गरीब-अमीर, गाँव-देहात, शहर सभी इसे अपना मुख्य धंधा बना चुके हैं। धंधा कभी गंदा नहीं होता, इसलिए रील बनाई जा रही है। इसके लिए लोगों ने अश्लीलता और भोंडेपन की चरम सीमा को भी लांघ दिया है। सेक्स और कामुकता, जो कभी हिंदी फिल्मों की बी-ग्रेड फिल्मों तक सीमित थी और पर्दे तक सीमित थी, अब पर्दे से बाहर आ गई है। लोगों के अंगूठे के इशारे पर आ गई है। हर जगह एक ही दुहाई- बस वीडियो वायरल हो जाए। वीडियो वायरल करने के नुस्खे परोसने के नाम पर रील बनाकर लोग रीलों को वायरल करना चाहते हैं। मजेदार बात यह है कि वीडियो कैसे वायरल की जाए इसके नुस्खे बताने वाले रील ज्यादा वायरल हो रहे हैं। नुस्खे अपनाने वाली आत्माएँ अभी भी अपने वीडियो के वायरल होने की गुहार लगा रही हैं।


पत्नियों ने पतियों को रील बनाने में लगा रखा है। वह बेचारा अपना ऑफिस, काम-धंधा छोड़कर बस बीबी की रील बनाए जा रहा है। कहा बीबी पतिदेव की रील बनाती थी, उसे छटी का दूध याद दिलाती थी, अब उल्टा हो गया है। सास-बहू में अब नोक-झोंक नहीं, कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं, सभी मिलकर रील बना रहे हैं। मुझे तो लगता है सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। रील बनाने वालों को प्रोत्साहित करे, बेरोजगारी की समस्या हल हो जाएगी। पति-पत्नी, सास-बहू की नोक-झोंक खत्म, लोकतंत्र में 'अच्छे दिन आ गए हैं' का फील-गुड वाला अहसास। बस देश की जनता को रील बनाने में लगा दो। सरकार विशेष सब्सिडी इन्हें दे। इनके लिए स्पेशल डेटा पैकेज उपलब्ध कराए। जगह-जगह सड़कों पर रील स्टूडियो खुलवाए। कहाँ फ्री का डेटा! यही नहीं, हर नागरिक को दिन के चार घंटे रील देखने में स्पेंड करना आवश्यक किया जाए। रील देखेंगे नहीं तो वायरल कैसे होगी? वायरल नहीं होगी तो रील का बुखार कैसे चढ़ेगा? सच ही तो है, रील का जब तक वायरल देश की जड़ों में नहीं घुसेगा, यह बुखार नहीं चढ़ेगा। एक बार बुखार चढ़ जाएगा तो देह की सभी समस्याएँ चुटकियों में हल हो जाएँगी। 


अब देखो न, बेचारे रील बनाने वाले क्या-क्या जतन नहीं करते। कोई अपनी माँ-बाप की अर्थी को कंधा देते वक्त रील बना रहा है, कोई पड़ोसी के घर हुई मारपीट, लूट, हत्या की रील। कोई अपनी डूबती हुई अर्थी की रील बना रहा है, तो कोई ट्रेन से कूदकर आत्महत्या करने जा रहे अपने साथी की रील। कितना असंवेदनशील होना पड़ता है, अपने दिल को पत्थर जैसा बनाना पड़ता है तब कहीं जाकर कोई ऐसी रील बनती है जो वायरल हो सके। मुझे तो इन रील बनाने वालों को झुककर सलाम करना चाह रहा हूँ।


इधर जैसे ही मेरी श्रीमती जी ने रील बनानी शुरू की, मेरी कमर कुछ ज्यादा ही जोश में मटकने लगी। तभी पास में सो रही श्रीमती जी ने झिंझोड़कर मुझे उठाया, "क्या कर रहे हो? क्यों कमर हिलाए जा रहे हो?" मैं हड़बड़ाकर उठा, अपनी चादर वापस खींची और पैरों को उसमें समेटकर सो गया, क्योंकि हकीकत ने वापस अपना अधिपत्य जमा लिया था। और मुझे "जितनी चादर हो उतने पैर पसारिए" की हिदायत देकर वापस अपनी चिर-परिचित नथुने फुलाकर खर्राटे वाली नींद लेने को प्रोत्साहित किया।


– डॉ. मुकेश असीमित 

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