By आरएन तिवारी | Apr 10, 2021
गीता प्रेमियों ! हमारा मानव जीवन एक अवसर है, श्रेष्ठ करने का, श्रेष्ठ बनने का और श्रेष्ठ पाने का। भगवान ने अर्जुन को यही समझाया था, इस सुनहरे अवसर को मत गँवाओ। इस समय युद्ध में प्रवृत्त होना ही तुम्हारा श्रेष्ठ कर्म है। इससे तुम श्रेष्ठ बनोगे और श्रेष्ठता को प्राप्त करोगे। आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं--- आज-कल हम गीता ज्ञान-गंगा के दसवे अध्याय में गोता लगा रहे हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपनी श्रेष्ठतम विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं---
श्री भगवान उवाच
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! मैं ही सभी को मारने वाली मृत्यु हूँ। आइए ! इसको थोड़ा समझ लें--- मृत्यु में हरण करने की ऐसी तीव्र ताकत है कि मृत्यु के बाद इस जन्म की कोई भी बात याद नहीं रहती, सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तव में यह शक्ति मृत्यु की नहीं बल्कि परमात्मा की है। अपने घर-परिवार को लेकर जैसी चिंता हम सबको इस जन्म में होती है, वैसी ही चिन्ता पिछले जन्म को लेकर भी होती। मनुष्य न जाने कितने जन्म ले चुका है। यदि हर जन्म की हर बात याद रहती, तो मनुष्य की चिंताओं का कभी अंत आता ही नहीं। किन्तु मृत्यु के द्वारा विस्मृति होने से पूर्व जन्मों के घर-परिवार और जमीन-जायदाद की चिन्ता मिट जाती है और हम नए सिरे से नए जन्म की शुरुआत करते हैं। इस प्रकार मृत्यु में जो चिन्ता और मोह-माया मिटाने की शक्ति है वह सब भगवान की ही है।
भगवान कहते हैं-- मैं ही भविष्य में सभी को उत्पन्न करने वाली सृष्टि हूँ। संसार भर की सभी स्त्रियों में कीर्ति, श्री, स्मृति, मेधा, धृति, वाणी और क्षमा इन सातों को श्रेष्ठ माना गया है। स्मृति, मेधा, धृति, और क्षमा ये पाँच दक्ष प्रजापति की कन्याएँ हैं ‘श्री’ महर्षि भृगु की कन्या है और ‘वाणी’ ब्रह्मा जी की कन्या है। ये सातों गुण यदि किसी व्यक्ति में दिखाई दें तो उस व्यक्ति की विशेषता न मानकर भगवान की ही विशेषता माननी चाहिए। क्योंकि यह दैवी सम्पदा है, जो भगवान से प्रकट हुई हैं।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
वेदों की जितनी छंदोबद्ध ऋचाएँ हैं उनमें गायत्री छंद मुख्य है गायत्री को वेदों की जननी कहा गया है। इसलिए भगवान ने गायत्री को अपनी विभूति कहा है।
जिस अन्न से सम्पूर्ण प्रजा जीवित रहती है, उस अन्न की उत्पत्ति मार्गशीर्ष महीने में होती है। महाभारत काल में नया साल मार्गशीर्ष से ही शुरू होता था। इसलिए इन विशेषताओं के कारण भगवान ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है। वसंत ऋतु में बिना वर्षा के ही पेड़-पौधे फल-फूल से लद जाते हैं। इस ऋतु में न अधिक गर्मी, न अधिक सर्दी होती है। इसलिए भगवान वसंत ऋतु को अपनी विभूति कहते हैं।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥
भगवान कहते हैं---- मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव हूँ तथा मैं ही पाण्डवों में अर्जुन हूँ। अर्जुन में जो भी विशेषताएँ हैं वह भगवान के द्वारा ही दी गईं हैं, इसलिए भगवान ने अर्जुन को अपनी विभूति बताया है। मैं मुनियों में वेदव्यास हूँ, और मैं ही कवियों में शुक्राचार्य हूँ। शुक्राचार्य संजीवनी विद्या के ज्ञाता हैं, इनकी शुक्रनीति प्रसिद्ध है, इसलिए भगवान ने इन्हें अपनी विभूति कहा है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
हे अर्जुन! वह बीज भी मैं ही हूँ जिनके कारण सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि संसार में कोई भी ऎसा चर (चलायमान) या अचर (स्थिर) प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना अलग रह सके।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥
भगवान कहते हैं-- हे परम तपस्वी अर्जुन! मेरी लौकिक और अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण विभूतियों का अंत नहीं है। भगवान अनंत हैं तो उनकी विभूतियाँ भी अनंत होंगी। गोस्वामी जी अपने रामचरित मानस में कहते हैं
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
भगवान यहाँ हम सबको बताना चाहते हैं कि मैंने जो विभूतियों का विस्तार किया है वह विस्तार केवल सांसरिक लोगों कि दृष्टि में ही है। मेरी दृष्टि में तो यह संक्षिप्त में है क्योंकि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
भगवान अर्जुन से कहते हैं— इस संसार में जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तुयें है, उन-उन को तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ समझो। कहने का तात्पर्य यह है कि, मनुष्य को जिस-जिसमें विशेषता मालूम पड़े उस-उसमें परमात्मा की ही विशेषता मानते हुए परमात्मा का ही चिंतन होना चाहिए। अगर हम भगवान को छोड़कर दूसरे व्यक्ति, वस्तु आदि की विशेषताओं को प्राथमिकता देंगे, तो यह पतन का कारण होगा। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मन में अपने पति के सिवाय दूसरे किसी पुरुष की विशेषता रखती है, तो शास्त्र की नजर में उसका पतिव्रत्य भंग हो जाता है, ऐसे ही भगवान के सिवाय दूसरी किसी वस्तु की विशेषता को लेकर मन आकृष्ट होता है तो व्यभिचार दोष आ जाता है। भगवान के प्रति अनन्य भाव का व्रत भंग हो जाता है। इसलिए--- सर्वं खलु इदं ब्रह्म सर्वं विष्णुमयम जगत
इस प्रकार हमें यह समझना चाहिए कि यह सम्पूर्ण जगत भगवान का है और भगवान सम्पूर्ण जगत के हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
हे अर्जुन! तुझे इस प्रकार सारे ज्ञान को विस्तार से जानने की आवश्यकता ही क्या है, मैं तो अपने एक अंश मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करके सर्वत्र स्थित रहता हूँ। भगवान के कथन का अभिप्राय सबकी दृष्टि अपनी तरफ कराने में है, कि सब कुछ मैं ही तो हूँ। मेरी तरफ देखने में फिर कोई भी विभूति बाकी नहीं रह जाएगी। जब सम्पूर्ण विभूतियों का आधार और मूल कारण मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ, तो फिर युद्ध के परिणाम का चिंतन करने की क्या जरूरत है?
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु
जय श्री कृष्ण
- आरएन तिवारी