अयोध्या भारत की विरासत, परंपरा, सांस्कृतिक इतिहास और धार्मिक मूल्यों में गहरे तक धंसा हुआ है। अयोध्या वीतरागी है। अयोध्या की कलकल बहती सरयू की धार में एक तरह की निसंगता है। भक्ति में डूबी अयोध्या का चरित्र अपने नायक की तरह ही धीर, शांत और निरपेक्ष है। आज आपको अयोध्या विवाद से जुड़े कुछ खास प्रसंगों से रूबरू करवाएंगे।
युद्ध का अर्थ हम सभी जानते हैं। योध्य का मतलब जिससे युद्ध किया जा सके। मनुष्य उसी से युद्ध करता है जिससे जीतने की संभावना रहती है। यानी अयोध्या के मायने हैं जिसे जीता न जा सके। आजाद भारत में अयोध्या को लेकर बेइंतहां बहसें हुईं। अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को जो कुछ हुआ वह किसी भी हिन्दू परंपरा में मान्य और प्रतिष्ठित नहीं हैं। पर वह हुआ क्यों? आज इस सवाल का जवाब भी टटोलने की कोशिश करेंगे। इस प्रश्न के जवाब के लिए हमें इतिहास की गहराई में उतरने की जरूरत है और पौराणिक तथ्यों से जुड़ी रिपोर्टस् को खंगालने की जरूरत है। जिसके लिए हमने अयोध्या से जुड़ी कुछ किताबें अयोध्या द डार्क नाइट और युद्ध में अयोध्या जैसी पुस्तकों के सहारे पूरी कहानी को समझने की कोशिश की और फिर सरल भाषा में आपको समझाने का प्रयास कर रहे हैं। तो आइए शुरू करते हैं कहानी अयोध्या की।
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साल 1934 का दौर था हिन्दुओं की एक विशाल भीड़ ने बाबरी मस्जिद के तीनों गुंबद तोड़ दिए थे। फैजाबाद के अंग्रेज कलेक्टर ने बाद में इनका पुननिर्माण करवाया। उससे पहले के दौर में जाएंगे तो 1855 में अयोध्या में भारी संघर्ष हुआ। नवाब वाजिद अली शाह की रिपोर्ट के अनुसार 12 हजार लोगों ने ढांचे को घेर लिया। ढांचे का हिस्सा उस वक्त भी गिरा था। तब के दोनों दौर में न विश्व हिन्दू परिषद था न ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ। यानी अयोध्या के इन गुंबदों को लेकर आक्रोश हर काल में था।
राम के साथ कैसे जुड़ा लला
अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ते-सुनते हैं तो राम मंदिर से ज्यादा रामलला का जिक्र आता है। प्रभु राम तो राम हैं ऐसे में राम के साथ ‘लला’ शब्द कैसे ज़ुड़ गया इसकी कहानी आपको बताते हैं। 1949 में बाबरी मस्जिद वहां पर हुआ करती थी। गुंबद के ठीक नीचे राम की प्रतिमा रख दी गई। ये प्रतिमा राम के बाल रूप की थी। अगली सुबह पूरे इलाके में खबर फैल गई कि रामलला प्रकट हुए हैं। मूर्ति रखने वाले क्योंकि गुबंद के नीचे राम के जन्म की बात को बल देना चाहते थे। तो उन्होंने राम के साथ लला लगाया। संदेश ये कि राम प्रकट हुए छोटे बालक हैं लला हैं।
आगे की कहानी सुनाने से पहले आपको तुलसीदास की एक चौपाई सुनाता हूं-
भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी।
हर्षित महतारी मुनि मनहारी अद्भुत रूप विचारी।।
अयोध्या के साढ़े आठ हजार छोटे-बड़े मंदिरों, मठों और आश्रमों में करीब चार सौ वर्षों से हर सुबह इन्हें गाया बजाया जाता है। लेकिन 23 दिसंबर 1949 की सुबह अयोध्या में इन चौपाइयों के एक अलग ही मायने थे।
रामलला के विराजने की कहानी
22 और 23 दिसंबर 1949 की एक सर्द कड़ाके की ठंड वाली लंबी काली रात थी। घने कोहरे में कुछ नहीं दिख रहा था। अयोध्या की तंग और संकरी गलियों के मंदिरों में भगवान विश्राम कर रहे थे। मठों में साधु सो रहे थे। बीस हजार की आबादी वाले इस शहर के चारो तरफ सन्नाटा पसरा था। आधी रात से कुछ पहले सरयू के किनारे लक्ष्मण किले के घाट पर पांच प्रमुख लोग इकट्ठा होते हैं। सरयू के किनारे इकट्ठा होने वाले पांच लोगों में गोरखपीठ के महंत दिग्विजय नाथ, देवरिया के अहिंदीभाषी संत बाबा राघवदास, निर्मोही अखाड़े के बाबा अभिरामदास और दिगंबर अखाड़े के रामचंद्र परमहंस थे। इस गोपनीय ऑपरेशन में गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाईजी' भी व्यवस्था के लिए वहां मौजूद थे।
अब इन पांचों का संक्षिप्त परिचय भी आपको बता देते हैं।
महंत दिग्विजय नाथ क्रांतिकारी साधु थे। वे नाथपंथी समुदाय की शीर्ष पीठ गोरखपीठ के महंत थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरू अवेद्यनाथ थे और अवेद्यनाथ के गुरू दिग्विजय नाथ थे। दिग्विजय नाथ आजादी के लड़ाई के दौरान हुए चौड़ी-चौरा कांड में जेल भी गए थे। दिग्विजय नाथ को लान टेनिस का बहुत शौक था। अपने इसी प्रेम की वजह से वे गोंडा के कलेक्टर केके नायर और महाराजा बलरामपुर पटेश्वरी प्रसाद सिंह के करीब थे। तीनों अक्सर लान टेनिस खेलने के लिए गोंडा में एकत्रित होते थे। दूसरे संत बाबा राघवदास पुणे के चित्तपावन ब्राह्मण थे। 1920 में वे कांग्रेस में शामिल हुए और 1948 में अयोध्या विधानसभा का उपचुनाव हुआ और राम मंदिर मुद्दे पर पहला राजनीतिक टेस्ट साबित हुआ ये चुनाव। उस चुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कांग्रेस ने राघवदास को मैदान में उतार दिया और पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने आचार्य नरेंद्र देव को मंदिर विरोधी करार देते हुए आक्रामक प्रचार किया। नतीजा राघवदास चुनाव जीत गए।
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बिहार के छपरा के भगेरन तिवारी के बेटे चंद्रेश्वर तिवारी जब 1930 में अयोध्या आए तो उस वक्त वे आयुर्वेदाचार्य थे। दिगंबर अखाड़े की छावनी में उनका नाम रामचंद्रदास और काम मिला राम जन्मभूमि मुक्ति का। सरयू किनारे पहुंचे चौथे शख्स हनुमान पोद्दार गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक थे। छह फुट के हठी साधु अभिरामदास की गिनती अयोध्या के लड़ाकू साधुओं में होती थी। वह दरभंगा के मैथिल ब्राह्मण थे।
ये सभी लोग सरयू स्नान करते हैं और नए वस्त्र धारण करते हैं। हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाईजी' अपने साथ भगवान राम की एक मूर्ति लाए थे। पूजन के बाद मूर्ति को एक बांस की टोकरी में रखकर अभिरामदास उसे सिर पर उठा लेते हैं। यह समूह रामधुन गाता हुआ हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ता है। परिसर की सुरक्षा में लगे कोई दो दर्जन पुलिस वाले बाहर तंबू में सो रहे थे और अंदर दो सिपाहियों की ड्यूटी बारी-बारी से थी। इस दौरान आठ-दस साधुओं ने गर्भगृह में प्रवेश किया। पहले गर्भगृह की फर्श सरयू के पानी से धोई गई। फिर लकड़ी का एक सिंहासन रख उस पर चांदी का एक छोटा सिंहासन रखा गया और उस पर कपड़ा बिछाकर मूर्ति रखी गई। मंत्रोच्चार के बीच मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा हुई। 23 दिसंबर 1949 की सुबह उजाला होने से पहले यह बात चारों तरफ जंगल की आग की तरह फैल गई कि 'जन्मभूमि' में भगवान राम प्रगट हुए हैं। राम भक्त उस सुबह अलग ही जोश में गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई 'भये प्रगट कृपाला' गा रहे थे। सुबह 7 बजे के करीब अयोध्या थाने के तत्कालीन एस.एच.ओ. रामदेव दुबे रूटीन जांच के दौरान जब वहां पहुंचे तब तक वहां सैकंड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी। रामभक्तों की यह भीड़ दोपहर तक बढ़कर करीब 5000 तक पहुंच गई। अयोध्या के आसपास के गांवों में भी यह बात पहुंच गई थी। जिस वजह से श्रद्धालुओं की भीड़ बालरूप में प्रकट हुए भगवान राम के दर्शन के लिए टूट पड़ी थी। पुलिस और प्रशासन इस घटना को देख हैरान था। आम बोलचाल की भाषा में प्रकट होने को राम विराजे कहने लगे और यहीं से रामलला के साथ विराजमान शब्द भी जुड़ गया।
खबर आम लोगों के साथ ही सरकार के पास भी पहुंच गई। तब केंद्र में थे जवाहर लाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल। जबकि राज्य में मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत और गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री। अयोध्या में कोई बवाल न हो, इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों ने तय किया कि अयोध्या में पहले वाली स्थिति बहाल की जाए। इसके लिए राज्य के मुख्य सचिव भगवान सहाय ने फैजाबाद के डीएम केके नायर को आदेश दिया कि रामलला की मूर्ति को मस्जिद से निकालकर राम चबूतरे पर फिर से रख दिया जाए। ये आदेश 23 दिसंबर की दोपहर तक ही केके नायर के पास पहुंच गया था, लेकिन केके नायर ने आदेश मानने से इन्कार कर दिया। जवाब लिखा कि ऐसा करने से अयोध्या और आस-पास कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब हो सकती है। इसके अलावा कोई भी पुजारी मस्जिद से निकालकर मूर्ति को फिर से राम चबूतरे पर विधिवत स्थापित करने को तैयार नहीं है। गोविंद वल्लभ पंत नायर के तर्क से सहमत नहीं हुए। उन्होंने फिर से केके नायर पर दबाव डाला और बदले में केके नायर ने फिर से आदेश मानने से इन्कार करते हुए अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी। उन्होंने अपने इस्तीफे में सरकार को सुझाव दिया कि अब इस मामले को अदालत के हाल पर छोड़ दिया जाए। मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के पास दो रास्ते थे। पहला तो ये कि वो केके नायर का इस्तीफा स्वीकार कर लें और किसी दूसरे अधिकारी को तैनात करके मूर्ति को मस्जिद से बाहर राम चबूतरे पर लेकर आएं। दूसरा ये था कि वो केके नायर के सुझाए गए उपायों पर अमल करें। गोविंद वल्लभ पंत सरकार ने नायर का इस्तीफा नामंजूर कर दिया और सुझाए गए उपायों को अमल करने का आदेश दिया। अयोध्या की काहनी के अगले खंड में आपको बताएंगे कि रामलला विराजमान कैसे पक्षकार बन गए और पूरे मामले में विश्व हिन्दू परिषद की कैसे हुई एंट्री।
- अभिनय आकाश