प्रयागराज के पवित्र धाम पर दो महान विभूतियों का मिलन हुआ है। एक हैं मुनि याज्ञवल्क्यजी, एवं दूसरी विभूति हैं ऋर्षि भारद्वाजजी। दोनों की मध्य जो वार्ता हो रही है, वह जगत के कल्याण हेतु परम् आवश्यक है। ऋर्षि भारद्वाजजी ले मुनि याज्ञवल्क्य जी को करबद्ध निवेदन करके रोक लिआ है। उनके मन में भगवान को लेकर अतिअंत जिज्ञासा है। वे श्रीराम जी के अवतार एवं दिव्य लीलायों को लेकर, अनेकों प्रश्न पूछना चाहते हैं। देखा जाये तो समस्त लोकों में ऋर्षि भारद्वाजजी के तप की महिमा भी कुछ कम नहीं है। वे परम सिद्ध योगी हैं। लेकिन फिर भी वे मुनि याज्ञवल्क्यजी को अपने मन की जिज्ञासायें प्रगट कर रहे हैं। क्या सचमुच ऋर्षि भारद्वाजजी के हृदय में अज्ञानता का कोई अंश शेष बचा था? या फिर वे कोई लीला कर रहे थे। निश्चित ही मुनि याज्ञवल्क्य जी भी जान गये थे, कि ऋर्षि भारद्वाजजी संसार के साधकों के आध्यात्मिक मार्ग में आने वाले प्रश्नों व उलझनों के समाधान हेतु ही ऐसे प्रश्न कर रहे हैं। स्वयं को एक साधक के रुप में प्रस्तुत करके, वे नम्रता व लोक कल्याण की भावना का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। मानों वे कहना चाह रहे हैं, कि कैसे एक साधक को किसी महापुरुष अथवा गुरु के समक्ष, स्वयं को रखना चाहिए। गुरु तो एक वैद्य की भाँति होता है। जिनके समक्ष जाने पर यह नहीं कहा जाता, कि मुझमें कितनी निरोगता है। बल्कि यह कहा जाता है, कि मुझमें यह-यह रोग हैं। वैद्य के पास जाकर कोई अपने डोले ही दिखाने लग जाये, और अपनी पीड़ा न दिखाये, तो समझो उसकी व्याधि कभी समाप्त नहीं होगी।
ऋर्षि भारद्वाजजी भी यही दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं। वे सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं, कि गुरु के समक्ष जाकर कर भी एक साधक को कैसे व्यवहार करना चाहिए-
‘संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव।।’
ऋर्षि भारद्वाजजी हाथ जोड़ कर कहते हैं, कि हे प्रभु! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं, और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही कहते हैं, कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।
सज्जनों विचार करके देखिये! ऋर्षि भारद्वाजजी जी की दृष्टि में गुरु की कितनी महानता है। वह बात, जो वे किसी निकट संबंधी को भी नहीं बता सकते। वह बात वे गुरु को बड़ी सहजता से बताते हैं। इसके पीछे क्या कारण है? कारण स्पष्ट है। सच कहें तो संसार में न तो किसी को अपना दुख ही कहना चाहिए, और न ही आपको अपनी प्रसन्नता का विषय साँझा करना चाहिए। क्योंकि आप अपना दुख बताने बैठेंगे, तो लोग चुपचाप आपकी दीनता व हीनता सुन तो लेंगे, लेकिन दूसरे ही पल वे दूसरों के पास जाकर आपका उपहास करेंगे। माना कि आपने दुख नहीं, अपितु अपने सुख की चर्चा की है। ऐसे में भी संसार आपके साथ भली नहीं करेगा। आपका प्रसन्न होना उसको किंचित भी रास नहीं आयेगा। वह भीतर ही भीतर जल उठेगा, कि आप दुखी कैसे हों? वह आपकी आँखों में खुशी के चिन्न नहीं, अपितु अश्रुयों की बरसात देखना चाहेगा। लेकिन केवल गुरु जन ही ऐसे होते हैं, जो आपसे स्नेह पूर्वक बात करके, आपके दुख का निवारण करते हैं। वे आपके घाव पर नमक नहीं, अपितु दवा पट्टी करते हैं। ऐसे में भी अगर हम उन महान गुरु को प्रणाम करने की बजाये, उनके चरणों में न्योछावर होने की बजाये, उन्हीं से मन में कुंठा व पाप रखने लगेंगे, तो सोचिए फिर कहाँ से कल्याण होने वाला है। ऐसा ही विचार कर ऋर्षि भारद्वाजजी बोले-
‘अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू।
हरहु नाथ करि जन पर छोहु।।’
अर्थात यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रगट करता हूं। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए।
क्या था वह प्रश्न? जो ऋर्षि भारद्वाजजी ने मुनि याज्ञवल्क्यजी के श्रीचरणों में रखा। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती