वजूद बचाने की जंग में इस तरह चुनावी लड़ाई हार गया विपक्ष

By नीरज कुमार दुबे | May 21, 2019

लोकसभा चुनावों के लिए मतदान संपन्न हो चुका है और सभी एक्जिट पोलों के यदि अनुमान सही साबित हुए तो केंद्र में एक बार फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने जा रही है। एनडीए ने स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में लौटने का जो लक्ष्य रखा था उसे हासिल करने में वह सफल साबित हो रहा है तो इस बात का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है कि आखिर ऐसा चमत्कार कैसे हो गया। याद कीजिये गत वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले एकजुट विपक्ष ने किस तरह मोदी सरकार को घेरा था और उसे तीन बड़े हिन्दीभाषी राज्यों की सत्ता से बेदखल कर दिया था। लेकिन अब यदि विपक्ष फेल हो रहा है तो इसके कारण जानना भी जरूरी है।

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दरअसल लोकसभा चुनावों में पूरे देश की जनता ने देखा कि मोदी सरकार और एनडीए जहाँ बेहतर भारत का दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा है तो वहीं विपक्ष के नेता ऐसा कुछ करने की बजाय अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ते नजर आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की लहर के कहर से बचने के लिए जिस तरह बरसों के प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल एक दूसरे के साथ आ गये उससे जनता के बीच स्पष्ट संदेश गया कि विचारधारा और सिद्धांत आदि सिर्फ दिखावे की बात है, इन दलों के लिए प्राथमिकता अपना वजूद बचाना है।

 

असल मुद्दों से भटक गया विपक्ष

 

आपको ध्यान होगा कि विपक्ष ने संविधान से कथित छेड़छाड़, हिंदुत्ववादी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव, नोटबंदी और जीएसटी से हो रहे कथित नुकसान, बढ़ती बेरोजगारी, किसानों की हालत, संवैधानिक संस्थानों मसलन सीबीआई के दुरुपयोग, सीबीआई अफसरों की आपस में भिड़ंत, आरबीआई और सरकार के बीच हुई खींचतान, देश के इतिहास में पहली बार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस कर कार्यों में दखलंदाजी का आरोप लगाना, राजभवनों का कथित दुरुपयोग, राफेल विमान खरीद में कथित अनियमितता आदि मुद्दों पर एकजुटता के साथ सरकार को घेरा और इस बात का फायदा उसे विधानसभा चुनावों में मिला भी।

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लेकिन देखिये सत्ता की भूख कितनी प्रबल होती है। चुनावों से पहले जिन दलों के नेता एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर साथ निभाने की कसमें खा रहे थे। जब सीटों के बंटवारे की बात आई तो एक-दूसरे पर ही निशाना साधने लग गये। यह सब वाकया जनता देख रही थी। विधानसभा चुनावों के समय एकजुट दिखा विपक्ष लोकसभा चुनावों के दौरान बिखरा हुआ नजर आया जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। विपक्ष के नेताओं ने राज्यों के स्तर पर जो गठबंधन किये उसका ज्यादा लाभ उन्हें मिलता नहीं दिख रहा है क्योंकि उनकी कैमिस्ट्री पर मोदी का गणित भारी पड़ गया है। याद कीजिये विधानसभा चुनावों के समय विपक्ष एकजुट था और राजग में खिबराव नजर आ रहा था लेकिन लोकसभा चुनाव आते-आते राजग का कुनबा पूरी तरह एकजुट हो गया।

 

विपक्ष की अन्य गलतियां

 

विपक्षी पार्टियों के नेता अपना एक सर्वमान्य नेता नहीं चुन सके यह बात तो समझ आती थी लेकिन आपस में ही ऐसे बड़े नेता जोकि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं, उनकी राह में रोड़ा अटकाया जा रहा था। जैसे कांग्रेस को ही लीजिये वह ममता बनर्जी को रोकने के लिए मायावती को मदद कर रही थी। देखा जाये तो जनता की नजर में इस बार का लोकसभा चुनाव सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को चुनने का चुनाव हो गया था। एक तरफ नरेंद्र मोदी का स्पष्ट नाम उसके समक्ष था तो दूसरी तरफ से कोई स्पष्ट नाम नहीं था। यह भी साफ नजर आ रहा था कि कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी बनने पर भी राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगे, यह तय नहीं है लेकिन दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट था कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी या स्पष्ट बहुमत आया तो भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बनेंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को ना तो भाजपा, ना ही एनडीए और ना ही आरएसएस की तरफ से कोई चुनौती है, यह बात भी मोदी के पक्ष में काम कर गयी। मोदी के पक्ष में एक और जो बड़ी बात गयी है वह यह है कि भले वह 2014 के सभी वादे पूरे नहीं कर पाये हों लेकिन जनता की उम्मीदें उनसे खत्म नहीं हुई हैं।

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इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता खासकर राहुल गांधी, ममता बनर्जी और मायावती सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेकर उन पर हमला करते रहे लेकिन मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में इन नेताओं का नाम नहीं लिया और इन्हें क्रमशः नामदार, दीदी और बहनजी कह कर ही संबोधित किया। नरेंद्र मोदी पर जब-जब सीधा हमला किया गया है उसका फायदा उठाने में मोदी सफल रहे हैं। मोदी को यह कला बखूभी आती है कि किस तरह विपक्षी हमले को अपने लिये अवसर में तबदील किया जाये। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी को चायवाला कहना कांग्रेस को भारी पड़ गया था और इस बार 'चौकीदार को चोर कहना' विपक्ष को भारी पड़ता नजर आ रहा है।

 

-नीरज कुमार दुबे

 

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