ब्रह्मा जी ने आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत तक ढूंढा। परंतु भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। ब्रह्मा जी ने अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत कर दिये। अंत में ब्रह्मा जी ने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषोत्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे।
ब्रह्मा जी ने उस कमल कोष के तीन विभाग भूः भुवः स्वः किये। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प लिया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये। एक बार ब्रह्मा जी ने एक घटना से लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।
इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व आदि उप-वेदों की रचना की। उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया और फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्द आदि तथा क्रीड़ा से सात सुर प्रकट हुये।
इस सबके बावजूद भी ब्रह्मा जी को लगा कि मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्होंने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दिया जिनका नाम 'का' और 'या' (काया) हुये। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। मनु और शतरूपा ने मानव संसार की शुरुआत की।
ब्रह्मा जी ने दस प्रकार की सृष्टियों की रचना की जो इस प्रकार हैं-
1− महत्तत्व की सृष्टि− भगवान की प्रेरणा से सन्त्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका गुण है।
2− अहंकार की सृष्टि− इसमें पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रयि और कर्मेन्द्रिय की उत्पत्ति होती है।
3− भूतसर्ग की सृष्टि− इसमें पंचमाहा भूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।
4− इन्द्रियों की सृष्टि− यह ज्ञान और क्रियाशील शक्ति से उत्पन्न होती है।
5− सात्विक सृष्टि− अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की सृष्टि है। मन इसी सृष्टि के अंतर्गत आता है।
6− अविद्या की सृष्टि− इसमें तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र, तम, मोह, माहमोह, पांच गांठें हैं।
7− वैकृत की सृष्टि− यह छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की है। इनका संचार जड़ से ऊपर की ओर होता है।
8− तिर्यगयोनि की सृष्टि− यह पशु पक्षियों की सृष्टि है। इनकी 28 प्रकार की योनियां मानी गयी हैं।
9− मनुष्यों की सृष्टि− इस सृष्टि में आहार का प्रवाह ऊपर मुंह से नीचे की ओर होता है।
10− देवसर्ग वैकृत की सृष्टि− इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमार सर्ग है यह प्राकृत वैकृत दोनों है।
- शुभा दुबे