जिस प्रकार लोभी का चिंतन मात्र इस बात पर टिका रहता है, कि मुझे कैसे और किसी भी प्रकार से अधिक से अधिक धन कमाना है। ठीक वैसे ही चिंतन वानरों का भी इसी तथ्य पर टिका था कि हमें कैसे भी, किसी भी कीमत पर सागर पार कर माता सीता जी से मिलना है। न उन्हें कोई अपना याद आ रहा है, और न पराया। भले ही उन्हें सागर में तैरने का शून्य अनुभव हो। लेकिन तब भी प्रत्येक वानर अपने सामर्थ्य से बढ़कर प्रयास करने पर स्वयं को तैयार किए हुए था। माता सीता जी को मिलने की ललक ऐसी थी कि कोई भी वानर यह विचार ही नहीं कर पा रहा था, कि सागर के गहरे पानी में उतरने का तो सीधा सा अर्थ है कि मृत्यु निश्चित है। लेकिन सागर की गहराई भी उनके सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। क्योंकि जिनके हृदय में प्रभु का लक्ष्य सागर से भी गहरा उतर जाये, उन्हें भला सफल होने से कौन रोक सकता है? करोड़ों वानरों में एक भी ऐसा वानर नहीं था, जो सागर में कूदने को तैयार नहीं था। प्रभु श्रीराम की सेना में ऐसे ही सैनिकों की तो आवश्यक्ता थी। जो अपने प्रभु के प्राण देने तक को तत्पर हों। यहाँ इतिहास कम से कम से वानरों के प्रति शिकवे से तो पीडि़त नहीं होगा, कि वानर सागर में डूबने के भय से पूर्व ही निराशा के सागर में डूब गए। स्वयं जाम्बवान भी हालांकि महान योद्धा थे। लेकिन उनका वृद्ध शरीर उन्हें इस महान पराक्रम भरे अभियान पर बढने से रोक रहा था। तभी जाम्बवान की दृष्टि श्री हनुमान जी पर पड़ती है। उन्हें आश्चर्य होता है कि श्रीहनुमान जी ऐसी विपत्ति में भी यूं सबसे अलग-थलग से क्यों बैठे हैं। जाम्बवान जी श्रीहनुमान जी को मानों झकझोरते हैं। और अधिकार पूर्वक कहते हैं कि हे हनुमंत! समझ से परे है, कि आप यूं उदासीन से क्यों हैं। आप चुप क्यों हैं-
‘कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना।।’
आप की चुप्पी वानरों के समाज के लिए कितनी घातक व हानिकारक हो सकती है। इसका आपको अनुमान भी है? माना कि चुप रहना ज्ञानी जनों का गुण होता है। वे व्यर्थ की गाल नहीं बजाया करते, समय आने पर ही उचित व सार्थक भाषण करना उनका स्वभाव हुआ करता है। लेकिन तब भी चुप रहना, यद्यपि आपके आशीश वचनों की सबसे अधिक आवश्यक्ता हो, तब भी आप मौनव्रतधारी बने रहें, तो यह कहां तक उचित है। क्या आप इन वानरों के साहस को नहीं देख रहे हैं? इनमें सागर में उतरने का सामर्थ्य नहीं है, लेकिन तब भी वे सब हुँकार भरने में पीछे नहीं हट रहे। और समस्न वानरों के बजाय अगर आपके बल की तुलना हो, तो कहने ही क्या-
‘पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।’
हे पवन सुत हनुमान! क्या आपको भूल गया कि आप पवन के पुत्र हो, और पवन के ही समान हो। और पवन को थल अथवा जल मार्ग न भी दें। तब भी नभ का मार्ग तो सदैव आपके लिए खुला ही रहता है न। साथ में आप वैसे भी बुद्धि-विवेक व विज्ञान के धनी हो। ऐसे में भी अगर यह सोचा जाये, कि समुद्र को कौन लांघेगा। तो इसी तो मैं र्दुभाग्य ही कहूंगा। अन्य वानर न सही, लेकिन तुम तो महाबली हो। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आप वानर हो, तो अपनी छलांग लगाने की प्रिय वृति का त्याग कर दो। छलांग लगाइये, लेकिन ऐसी छलांग लगाइये, कि आप सीधे समुद्र के उस पार जाकर ही रुकें। एक ही छलांग में सारा सागर छोटा पड़ जाना चाहिए। केवल यही कार्य क्यों। मुझे तो संसार में कोई भी ऐसा कार्य प्रतीत नहीं होता, जो कि आपसे न हो सके-
‘कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।’
सूर्य का अवतण जैसे प्रकाश हेतु, जल का अवतरण समस्त जीवों को सींचने हेतु, ठीक ऐसे ही तुम्हारा अवतरण भी मात्र प्रभु के कार्य करने के लिए ही हुआ है-
‘राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।।’
श्री हनुमान जी ने जैसे ही जाम्बवान के यह शब्द सुने, वे तत्काल ही पर्वत के समान विशाल आकार हो गए। ऐसे महान व आश्चर्य में डालने वाले परिर्वतन को देखते ही बनता था। इस घटना ने मानों क्रांति का बिगुल फूँक दिया। चारों और श्री हनुमान जी के इस दैवीय रुप की धूम मच गई। देखते ही देखते सारी बाजी ही पलट गई। और श्रीरामचरितमानस में घटित इस सारगर्भित घटना ने हमें ऊत्तम जीवन जीने का सूत्र लाकर हथेली में लाकर रख दिया। सूत्र यह कि जीवन में अकसरा ऐसी प्रस्थितियां आती हैं, जब यह लगता है, कि बस अब हमारे समस्त मार्ग बंद हो गए हैं। पीछे घनघोर अंधकारमय डरावना वन है। और सामने अथाह सागर है, जो मानों सागर से न भरा हो, अपितु हमारे जीवन की बाधायों से भरा हो। ऐसे भयंकर आपदा संपन्न सागर को लांघने में हर किसी ने हाथ खड़े कर दिए हों। सभी अपनी मृत्यु की कल्पना कर रहे हों। इतना होने पर भी इस पूरी भीड़ में एक हस्ती ऐसी भी विद्यमान हो, जो प्रत्येक समस्या का समाधान भी हो, लेकिन समस्त प्रकार का सामर्थ्य होने के पश्चात भी चुप व निष्क्रिय हो, तो उस सामर्थ्यवान को अवश्य ही अपनी शक्तियों को जाग्रत कर समाज के कल्याण के लिए आगे आना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा है, कि समाज को दुष्ट लोगों की दुष्टता से इतना खतरा नहीं है, जितना सज्जन लोगों की निष्क्रियता से है। श्री हनुमान जी मानों ऐसी निष्क्रिय अवस्था का निर्वाह सा करते हुए प्रतीत हो रहे थे। जिन्हें जाम्बवान के ओजस्वी व क्रांतिकारी वचनों ने जाग्रित कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ, कि श्रीहनुमान जी का शरीर र्स्वण सा चमकने लगा। संपूर्ण शरीर तेज के पुँज से भर गया। श्रीहनुमान जी बार-बार सिंहनाद करने लगे। और बोले कि मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लांघ जाऊँगा-
‘कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा।।’
श्रीहनुमान जी गर्जना करते हुए दहाड़ते जा रहे हैं। अब श्रीहनुमान जी क्या ‘एक्शन’ लेते हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!
- सुखी भारती