By आरएन तिवारी | Oct 28, 2022
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि अघासुर जो विशाल सर्प का रूप धारण कर वृन्दावन में आया था, व्रजवासियों की मित्र मंडली उसे साधु-महात्माओं की पवित्र गुफा समझकर उसमें प्रवेश कर गई थी।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं---
उन अनजान ग्वाल बालों की आपस में की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा, अरे ! इन्हे तो सच्चा अजगर भी झूठा जान पड़ता है।
इत्थं मिथोsतथ्यमतंग्य भाषितं श्रुत्वा विचिन्त्येत्य मृषा मृषायते।
रक्षो विदित्वाखिल भूतहृतस्थित: स्वानां निरोद्धुं भगवान मनो दधे ॥
श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं— परीक्षित ! भगवान समझ गए कि यह राक्षस है। भला भगवान से क्या छिपा है? यह जगत इन्सान को धोखा दे सकता है भगवान को नहीं। वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि वे अपने सखा ग्वाल-बालों को उसके मुँह में जाने से अवश्य बचा लेंगे।
भगवान की यह प्रतिज्ञा है, जो उनके सहारे रहता है वे उसको डूबने नहीं देते उबार लेते हैं। “मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतान् तरंति ते।'' जो मेरा प्रपन्न हो गया मेरी शरण में आ गया वो इस माया के चक्कर में नहीं पड़ता। ये अघासुर क्या है? अघ माने पाप। पाप की प्रवृति ही तो अघासुर है। ब्रजवासी धोखा खा गए। पापमय अघासुर को पर्वत की कन्दरा समझकर उसमें प्रविष्ट हो गए। भागवत का एक सुंदर संदेश भगवान का भक्त भी कभी-कभी प्रमाद वश पाप की प्रवृति को पहचाने बिना उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं और भटक जाते हैं धोखा खा जाते हैं। माया इतनी ताकतवर होती है कि धोखा दे देती है। ध्यान दीजिए ग्वाल-बाल जब अघासुर के मुंह में घुस रहे थे तब प्रभु ने बहुत आवाज लगाई रुको, मत घुसो, यह कन्दरा नहीं बल्कि असुर अघासुर का मुंह है। जाने में खतरा है किन्तु उन्होने सुना नहीं। ठीक उसी प्रकार जब हम किसी पाप कर्म में प्रवृत होते हैं तब हृदय में बैठा हुआ अंतरात्मा हमें रोकता है, मना करता है उधर मत जाओ। ऐसा मत करो, प्रभु सावधान बहुत करते हैं, किन्तु हम लोग अंतरात्मा की उस आवाज को दबा देते हैं। उस समय माया का आकर्षण इतना प्रबल होता है कि जीव उस आवाज को समझ नहीं पाता और अनसुना करके घुस जाता है। जैसे ब्रजवासी घुसे। आइए कथा प्रसंग में चलते हैं—
जब ब्रजवासी भीतर घुस गए तो भगवान उनकी रक्षा करने के लिए भीतर गए। उन्होने जैसे ही प्रवेश किया अघासुर ने अपना मुंह तत्काल बंद कर लिया। अब तो सबके सब ब्रजवासी अघासुर के जबड़े में दबे हुए व्याकुल होने लगे। अब स्वर्ग के देवता यह दृश्य देखकर चिंतित हो गए और हाहाकार मचाने लगे। अरे ! अघासुर तो सबको खा गया। अघासुर के हितैषी कंस आदि सभी राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर ग्वाल-बालों के साथ-साथ भगवान श्री कृष्ण को भी अपनी दाढ़ों से चबा-चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था।
अब भगवान ने क्या किया कि बड़ी ही फुर्ती से उसके श्वास छिद्र में बैठकर अपना शरीर इतना बड़ा कर दिया कि अघासुर का श्वास का आवागमन ही अवरुद्ध हो गया। अब वह श्वास के बिना छटपटाने लगा। थोड़ी देर तक तड़पने के बाद उसका ब्रहमन्द्र फट गया और छिद्र के रास्ते प्रभु ने सभी ब्रजवासियों को बाहर निकाला। सबके सब अचेत अवस्था में पड़े थे। प्रभु ने अमृतमयी दृष्टि डाली सब ब्रजवासी पुन; जीवित हो गए। उसी क्षण अघासुर के शरीर से एक तेजपुंज निकला जो भगवान के श्री चरणों में विलीन हो गया।
बोलिए ------- भक्तवत्सल भगवान की जय----
इस प्रकार भगवान ने ग्वाल-बालों की रक्षा की और अघासुर का उद्धार किया। उस समय वही देवता जो डरे हुए और बड़े ही चिन्तित थे अति प्रसन्न हुए। सभी देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति पाठ कर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर आनंदपूर्वक भगवान श्रीकृष्ण का अभिनंदन किया क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बड़ा काम किया था।
ततोsतिह्रिष्टा: स्वकृतोकृतार्हणम पुष्पै: सुरा अप्सरसश्च नर्तनै: ।
गीतै:सुगावाद्य धराश्चवाद्यकै: स्तवैश्चविप्राजयनि:स्वनैर्गणा: ॥
शुकदेव जी महाराज कहते हैं, हे परीक्षित ! जब ब्रह्माजी ने यह हर्ष ध्वनि सुनी, तब वे अपने वाहन पर चढ़कर वहाँ आए और कृष्ण भगवान की यह महती महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गए।
शेष अगले प्रसंग में ---------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी