Gyan Ganga: जरासंध की सेना ने भगवान श्रीकृष्ण को किस प्रकार ढक लिया था?

By आरएन तिवारी | May 05, 2023

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 


प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।


भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की अनोखी छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 


मित्रों ! पूर्व कथा में हमने उद्धव और गोपियों का प्रसंग सुना। उद्धव जी गोपियों को भगवान का संदेश सुनाने के लिए व्रज में जाते हैं। द्वैत वाद अद्वैत वाद और तत्व ज्ञान का उपदेश देते हैं, ब्रह्म और जीव की व्याख्या करते हैं। अपनी विद्वत्ता का परिचय देते हैं किन्तु गोपियां उद्धवजी के तत्वज्ञान को ठुकरा देती हैं।


आइए ! अब आपका परिचय कंस से करवाते हैं-- 

  

शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! कंस कौन है? दूसरे की संपत्ति को अपने सुख के लिए अनीति पूर्वक छीन ले उस प्राणी को कंस कहते हैं। वास्तव में कंस उग्रसेन का पुत्र नहीं था। एक बार राक्षस द्रुमिल ने कंस उग्रसेन के भेष में उनकी पत्नी पवनरेखा के साथ छल से व्यभिचार किया। जब पवनरेखा को सच का पता चला तब उन्होंने पूछा— क: त्वं ? अर्थात तुम कौन हो? तब द्रुमिल ने कहा— जाओ, तुम्हें कंस नाम का एक बलशाली पुत्र होगा। वही कंस हुआ।

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कंस की दो रानियाँ थीं। 


अस्ति प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ। 


अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से दोनों को बड़ा दुख हुआ। वे अपने पिता के घर चलीं गईं। मगधराज जरासंध को जब पता चला कि उनकी बेटियाँ विधवा हो गईं हैं, तब उसको बड़ा शोक हुआ। जरासंध क्रोध से तिलमिला उठा। निश्चय किया कि इस धरती पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा। उसने युद्ध की तैयारी की। तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया। भगवान ने सोचा- बड़ा अच्छा हुआ, इतनी बड़ी सेना आखिर ये सब धरती के भार ही तो हैं। मैं इन सबका अवश्य नाश करूंगा। इसीलिए तो यहाँ आया हूँ। परंतु अभी जरासंध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जिंदा रहेगा तो फिर से असुरों की सेना एकत्र करके लाएगा। मेरे अवतार का यही तो उद्देश्य है। 


एतदर्थोंवतारोsयम भूभार हरणाय मे 

संरक्षणाय साधूनाम् कृतोsन्येषाम् वधाय च॥ 


एक तरफ बलराम और कृष्ण अपनी छोटी सी सेना के साथ खड़े थे तो दूसरी तरफ जरासंध अपनी विशाल सेना के साथ खड़ा था। कृष्ण को देखकर उसने कहा- हे पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी बच्चा है तेरे साथ लड़ने में मैं अपनी मानहानि समझता हूँ। तुम मेरे सामने से भाग जाओ। भगवान ने कहा- जरासंध ! वीर पुरुष इस तरह डींग नहीं हाँकते बल्कि वीरतापूर्वक युद्ध करते हैं। इसी प्रकार रामावतार में रावण ने राम के सामने डींग हाँकते हुए कहा था। वन-वन में भटकने वाले तपस्वी राम सीता की आस छोड़ो और अपनी जान बचाकर अयोध्या भाग जाओ। तुम तपस्वी के साथ युद्ध करने में संकोच हो रहा है। तुलसीदास जी रामचरित्र मानस में कहते हैं, कि युद्ध भूमि में अपने पराक्रम का बखान करते हुए रावण राम से कहता है---


रावण नाम जगत जस जाना लोकप जाके बंदी खाना । 

आजु करहूँ खलु काल हवाले परेहू कठिन रावण के पाले ॥


प्रभु राम ने कहा- 


जनि जल्पना करि सूजसु नासहि सुनहि नीति करहि क्षमा 

संसार महु त्रिविध पुरुष पाटल रसाल पनस समा 

एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलही केवल लागही 

एक कहहि कहहि करहि अपर एक करहि बात न बागही ॥ 


भगवान ने कहा- जरासंध ! रावण की तरह तुम भी व्यर्थ बकवास करके अपने सुंदर यश का नाश न करो यदि सामर्थ्य हो तो सामने आकर युद्ध करो। 


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जरासंध की सेना ने भगवान श्रीकृष्ण को वैसे ही ढक लिया जैसे धुआँ आग को और बादल सूर्य को ढक लेते हैं। भगवान कृष्ण ने भी शारंग धनुष का टंकार किया और जरासंध की चतुरंगिणी सेना का संहार करने लगे। दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। देखते ही देखते भगवान ने जरासंध की सम्पूर्ण सेना को नष्ट कर दिया। किन्तु जरासंध को इसलिए छोड़ दिया कि जिंदा रहेगा तो और असुरों की सेना लाकर आएगा और हम धरती का भार उतार सकेंगे। शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर जरासंध ने भगवान से युद्ध किया। जब अठारहवाँ युद्ध छिड़ने वाला था उसी समय नारद द्वारा भेजा गया कालयवन दिखाई पड़ा। पूरी दुनिया में कालयवन के सामने खड़ा होने वाला कोई दूसरा वीर नहीं था। उसने तीन करोड़ म्लेछों की सेना लेकर मथुरा को घेर लिया। अचानक कालयवन की चढ़ाई देखकर भगवान ने विचार किया, इस समय यदुवंशियों पर दो-दो विपत्तियाँ आ गईं हैं। श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों की रक्षा हेतु समुद्र में एक ऐसा किला बनवाया जिसमें शत्रु सेना का प्रवेश कठिन था। वहाँ के महल सोने के बने थे। वह नगर सुंदर-सुंदर उपवनों और बाग-बगीचों से परिपूर्ण था। देवराज इन्द्र ने पारिजात वृक्ष भेज दिया था। भगवान कृष्ण ने अपनी योगमाया से उस द्वारिकापुरी मे सभी सगे-संबंधियों और यदुवंशियों को पहुंचा दिया था और स्वयम मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले। कालयवन तो इंतजार में ही था कृष्ण को देखते ही दौड़ा। कालयवन को देखते ही भगवान रण छोड़कर भागने लगे। कालयवन उनको पकड़ने के लिए पीछे-पीछे दौड़ा। इसी कारण कृष्ण भगवान को रणछोड़ भी कहा जाता है। दौड़ते हुए भगवान एक पहाड़ की गुफा में प्रवेश किए पीछे से कालयवन भी प्रवेश किया। वहाँ एक मनुष्य गहरी निद्रा में सो रहा था। कालयवन ने उसको ज़ोर से एक लात मारी। वह मनुष्य ठोकर खाने के बाद रुष्ट हो गया और कालयवन पर क्रोधित नजर डाली। नजर पड़ते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया। राजा परीक्षित ने पूछ दिया- महाराज वह कौन था? जिसके देखने मात्र से ही कालयवन जैसा वीर जलकर भस्म हो गया। श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजा परीक्षित ! वे इक्ष्वाकु वंश महाराजा मानधाता के पुत्र मुचुकुंद थे। एक बार इन्द्र आदि देवता राक्षसों से भय-भीत हो गए थे। अचानक रक्षा के लिए उन लोगों ने मुचुकुंद से विनती की। मुचुकुंद ने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की थी। बाद में देवताओं ने मुचुकुंद से वरदान माँगने के लिए कहा- तो मुचुकुंद बहुत थके हुए थे इसलिए निद्रा का वर मांगा। वर प्राप्त कर पर्वत की गुफा में सो गए। देवताओं ने यह भी कहा- सोते समय जो आपको जगा देगा आपकी की दृष्टि पड़ते ही तत्काल जलकर भस्म हो जाएगा। कालयवन के भस्म हो जाने के बाद प्रभु ने मुचुकुंद को दर्शन दिया। मुचुकुंद ने आर्तभाव से श्री कृष्ण की स्तुति की और परम धाम को प्राप्त हुए।   


शेष अगले प्रसंग में----    

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।


-आरएन तिवारी

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